भारत विश्व के उन क्षेत्रों में से है। जहां विश्व की प्राचीनतम और आर्कियन काल की चट्टान से लेकर विश्व की नवीनतम एवं वर्तमान हेलोसीन काल की चट्टानें पाई जाती हैं। इसी कारण भारत की भूगर्भिक संरचना (Geological Structure of India) में पर्याप्त विभिन्नता पाई जाती है।
भूगर्भीय संरचनात्मक विशेषताओं के आधार पर भारत को 3 वृहद उच्चावच क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।
- उत्तर का पर्वतीय प्रदेश (Hilly region of north)
- मध्यवर्ती मैदानी प्रदेश (Intermediate plains)
- दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठारी प्रदेश (Peninsular plateau region)
ये तीनों उच्चावच (Relief) प्रदेश भिन्न-भिन्न कालों में निर्मित संरचना के प्रदेश है।
उत्तर का पर्वतीय प्रदेश तुलनात्मक रूप से नवीन संरचना का क्षेत्र है। इसकी उत्पत्ति सागरीय जल में निक्षेपण एवं संपीडन की क्रिया के फलस्वरुप हुई है। यह विश्व के नवीनतम मोड़दार पर्वतों का क्षेत्र है और अल्पाइन भू-संचलन का परिणाम है। मध्यवर्ती मैदान भारत की सर्वाधिक नवीन संरचना का क्षेत्र है। जिसकी उत्पत्ति नदियों द्वारा लाए गए अवसादों के निक्षेप से हुई है। फलत: भारत की भूगर्भिक संरचना में पर्याप्त विभिन्ता पाई जाती है। इसी कारण भारत में विश्व के लगभग सभी प्रकार के खनिज पाए जाते हैं।
प्रायद्वीपीय पठार भूगर्भिक दृष्टि से भारत की सर्वाधिक प्राचीन संरचना है। यह विश्व के प्राचीनतम प्रायद्वीप पैंजिया का अंग है। प्रायद्वीपीय पठार पैंजिया के विभाजन से उत्पन्न दक्षिणी भूखण्ड गोंडवाना लैण्ड का एक हिस्सा है। यह क्षेत्र एक बार समुद्र तल से ऊपर आने के बाद पुनः कभी समुद्र के नीचे नहीं गया, अतः करोड़ों वर्ष से यहां की चट्टानों में रूपांतरण की क्रियाएं होती रही है और विश्व की लगभग सभी प्राचीनतम संरचनाएं यहीं पायी जाती है। इसी अनुरूप प्रायद्वीपीय पठार की उच्चावच विशेषताओं का भी निर्धारण हुआ है।
भारत की भूगर्भिक संरचना न केवल भूगर्भिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। भौगोलिक संरचना के अध्ययन के लिए किए गए कार्यों में डॉ होलैंड का वर्गीकरण महत्वपूर्ण है।
डॉ हॉलैंड ने भारत को भूगर्भिक दृष्टि से निम्न भागों में बांटा –
- अति प्राचीन युग – आर्कियन, धारवाड़
- पुराण युग – कुडप्पा, विंध्ययन
- द्रविड़ युग –
- आर्य समूह – गोंडवाना, दक्कन ट्रैप
- आधुनिक या नूतनकाल – टर्शियरी, क्वाटरनरी
डॉ हॉलैंड के वर्गीकरण को प्रारंभिक वर्षों मे पर्याप्त मान्यता मिली, लेकिन यूरोपियन भूगोलवेत्ताओं एवं भारत में कृष्णन एवं वाडिया ने इसकी आलोचना की, क्योंकि यह वर्गीकरण संस्कृति एवं जातीय वर्ग को आधार बनाकर किया गया है, जिससे भूगर्भीय संरचना संबंधी भ्रम उत्पन्न हो सकता है।
अत्याधुनिक भूगर्भ शास्त्रियों ने यूरोपीय वर्गीकरण के आधार पर भारत की भौगोलिक संरचना का वर्गीकरण किया और यही वर्गीकरण मान्य है।
भूगर्भिक संरचना की दृष्टि से भारत को निम्न मुख्य भूगर्भिक कालो में विभाजित करते हैं।
- एजोइक कल्प – आर्कियन
- पैलियोजोइक – कैम्ब्रियन
- मेसोजोइक – जूरैसिक
- सिएनोजोइक या टर्शियरी – इयोसीन, मायोसीन
- नियोजोइक – प्लीस्टोसीन, होलोसीन
एजोइक कल्प
प्रारंभिक संरचना एवं चट्टानों के रूप में प्रायद्वीपीय पठार के लगभग दो तिहाई भाग में आर्कियन संरचना विकसित है। हिमालय के गर्भ में भी इसका विस्तार है। यह प्रारंभिक आग्नेय चट्टानें हैं। जिनमें ग्रेनाइट, नीस एवं शिस्ट प्रकार के चट्टाने पाई जाती। इस चट्टान से भी धारवाड़ एवं अन्य चट्टानों का विकास हुआ है। भारत में पाए जाने वाले आणविक खनिज आर्कियन चट्टानों में ही पाए जाते हैं, जहां पर ये सतह पर आ गई हैं।
यूरेनियम एवं थोरियम जैसे खनिज पदार्थ के आणविक ऊर्जा विकास में आधार स्तंभ है। साथ ही ये भू-सामरिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।
आर्कियन काल की चट्टानों के ऊपर रूपांतरित आग्नेय चट्टानों का विकास हुआ है। इसमें प्रोट्रेजोइक एवं अलगोनकियन काल में बांटा गया है। प्रोट्रेजोइक के अंतर्गत धारवाड़ काल की चट्टानें विकसित हुई है। धारवाड़ संरचना भारत की प्रमुख संरचना है। इसमें ग्रेनाइट, नीस, कायांतरित चट्टानों के साथ ही देश के धात्विक खनिज भी पाए जाते हैं। धारवाड़ चट्टानों का विस्तार कर्नाटक के धारवाड़, शिमोगा क्षेत्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, मध्य प्रदेश, गोवा व महाराष्ट्र के वृहद क्षेत्रों में है। स्पष्टत: यह द्वीपीय भारत की संरचना की मुख्य विशेषता है। लेकिन हिमालय क्षेत्र में धारवाड़ संरचना का विकास नहीं हुआ है। इस संरचना में देश के प्रमुख धात्विक खनिज लोहा, मैंगनीज, तांबा, क्रोमियम, टंगस्टन एवं सोना इत्यादि बहुलता से पाया जाता है। इस प्रकार धारवाड़ संरचना देश के धात्विक खनिज का आधार है। इस पर कई खनिज आधारित उद्योगों का विकास हुआ है।
अलगोनकियन काल की चट्टानों के अंतर्गत कुडप्पा एवं विन्ध्यन काल की चट्टानों का विकास हुआ है। यह दोनों संरचनाएं मुख्यतः अधात्विक खनिज के लिए प्रसिद्ध है। कुडप्पा संरचना का विकास धारवाड़ संरचना के ऊपर असम्बद्ध रूप से एक लंबी अवधि के बाद हुआ है। इसका विस्तार मुख्यता आंध्र प्रदेश के कडप्पा क्षेत्र एवं प्रायद्वीपीय पठार में यत्र-तत्र हुआ है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान में भी कुडप्पा संरचना पायी जाती है। इसमें लोहा, मैंगनीज जैसे धात्विक खनिज के अतिरिक्त चूना, पत्थर, बलुआ पत्थर एवं स्लेट खनिज पाए जाते हैं, जिसका प्रयोग सीमेंट उद्योग एवं भवन निर्माण में किया जाता है। विंध्ययन संरचना का विस्तार मुख्यतः विंध्ययन पर्वतीय क्षेत्र में बिहार के सासाराम से गुजरात व राजस्थान तक है। इसमें प्रमुख अधात्विक खनिज चूना पत्थर, डोलोमाइट, बलुआ पत्थर, अग्नि प्रतिरोधक मिट्टी, संगमरमर एवं अभ्रक इत्यादि पाए जाते हैं। हीरा व पन्ना भी इस क्षेत्र में ही मिलता है और कुडप्पा व विंध्ययन संरचना सीमेंट उद्योग के आधार हैं।
पैलियोजोइक कल्प
- पैलियोजोइक कल्प के अन्तर्गत कैम्ब्रिज, ओर्डोविसियन, सिलुरियन, डिवोनियन, कार्बोनिफेरस, पार्मियन, भूगर्भिक काल आते हैं।
- इनमें कैम्ब्रियन काल की संरचना को छोड़कर शेष सभी काल की संरचनाएं भारत में पाई जाती हैं।
- कैंब्रियन संरचना के नहीं पाए जाने का कारण इस काल की चट्टानों का अत्यंत रूपांतरित हो जाना है।
कार्बोनिफरस काल की संरचना भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस समय गोंडवाना संरचना का विकास हुआ है। इस समय विशिष्ट जलवायु दशाओं में क्रमश: सघन वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई। इन वनस्पतियों के भूमि के नीचे दबने एवं दीर्घकालिक रूपांतरण के फलस्वरुप जीवाश्म ईंधन कोयले की उत्पत्ति हुई। देश का 98 प्रतिशत कोयला इसी संरचना में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त लिग्नाइट, चिका, बलुआ पत्थर ही पाए जाते हैं। गोंडवाना संरचना का विस्तार प्रायद्वीपीय पठार के नदी घाटी क्षेत्रों में हुआ है। प्रमुख क्षेत्र दामोदर नदी घाटी, महानदी घाटी क्षेत्र, गोदावरी वर्धा घाटी क्षेत्र, नर्मदा घाटी क्षेत्र प्रमुख हैं अतः गोंडवाना संरचना देश के ऊर्जा आवश्यकताओं का आधार है।
पर्मियन काल में भी कोयले की संरचना का विकास हुआ था। गोंडवाना संरचना का विकास कार्बोनिफरस काल से लेकर जुरैसिक काल तक हुआ। हिमालय क्षेत्र में गोंडवाना संरचना का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता लेकिन सीमित रूप से कश्मीर व आसाम के क्षेत्र में कोयला संरचना का विकास हुआ है।
मैसोजोइक कल्प
इसके अंतर्गत ट्रिएसिक, जुरैसिक व क्रिटेसियस काल आते हैं। ट्रिएसिक काल में महादेव वह पंचेत पहाड़ी क्षेत्र का निर्माण हुआ। सीमित रूप से राजस्थान के क्षेत्र में भी ट्रिएसिक संरचना पाई जाती है।
जुरैसिक काल में द्वितीय ज्वालामुखी क्रिया के फलस्वरुप आग्नेय चट्टानों की उत्पत्ति हुई व राजमहल की पहाड़ी क्षेत्र का निर्माण हुआ। क्रिटेशियस काल भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। इस काल में भारत में महत्वपूर्ण भूगर्भिक संरचनाओं का विकास हुआ है और भारत के वर्तमान स्वरूप का निर्धारण हुआ है। इस समय निम्नलिखित क्रियाएं घटित हुई –
- हिमालय का उत्थान का प्रारंभ (Himalaya’s rise begins)
- दक्कन ट्रैप का निर्माण हुआ
- नर्मदा, ताप्ती, भ्रंशघाटी तथा सतपुड़ा भ्रंशोत पर्वत की उत्पत्ति हुई।
हिमालय का उत्थान अंतिम क्रिटेशियस काल में प्रारंभ हुआ जो वर्तमान में भी जारी है। इस काल की प्रमुख संरचना दक्कन ट्रैप है। दक्कन ट्रैप की उत्पत्ति दरारी उद्भेदन के फलस्वरुप ज्वालामुखी पदार्थ के सतह पर आने एवं ठंडा होकर जमने से हुई। अतः यह बेसाल्ट संरचना के क्षेत्र हैं। दक्कन ट्रैप का विस्तार मुख्यतः महाराष्ट्र, काठियावाड़ प्रदेश (गुजरात), मालवा प्रदेश, कर्नाटक में बेंगलुरु, मैसूर के मध्य का क्षेत्र, तमिलनाडु में कोयंबटूर एवं मदुरै के मध्य उच्च भूमि का क्षेत्र है। दक्कन ट्रैप के बेसाल्ट चट्टानों से काली कपास के मिट्टी की उत्पत्ति हुई है, जिसे रेगूर मिट्टी भी कहते हैं। भारत के सूती वस्त्र उद्योग का यह आधार है। दक्कन ट्रैप में बेसाल्ट के अतिरिक्त घटिया रत्न पाया जाता है। बेसाल्ट का प्रयोग सड़क व भवन निर्माण में किया है।
सिएनोजोइक कल्प या टर्शियरी कल्प
इसे इयोसीन, ओलिगोसीन, मायोसीन, प्लायोसीन काल में विभाजित करते हैं। इन चारों काल में हिमालय की संरचना का विकास हुआ है। इस युग में ही हिमालय के क्रमश: तीन वृहद उत्थान हुए और हिमालय के वर्तमान स्वरूप का निर्माण हुआ। इस समय पृथ्वी पर अल्पाइन भू-संचालन हुआ और विश्व में नवीन मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति हुई, इसमें हिमालय सर्वाधिक नवीन मोड़दार पर्वत है। क्रमशः तीन उत्थानों के फलस्वरूप वृहद, मध्य व शिवालिक हिमालय की उत्पत्ति हुई। इयोसीन काल में रानीकोट क्रम की चट्टाने बनी। इसका विस्तार कुमायूं हिमालय में है।
ओलिगोसीन काल में मूरी क्रम की चट्टाने बनी जिसका विस्तार पश्चिम हिमालय से लेकर पूर्व में असम तक मध्य हिमालय के क्षेत्र में है। मायोसिन काल में मुख्य या वृहद हिमालय की संरचना का विकास हुआ। मुख्य हिमालय में ग्रेनाइट व रूपांतरित चट्टानों की बहुलता है। प्लायोसीन काल में शिवालिक की उत्पत्ति हुई। यहां चूना पत्थर एवं चिका जैसी संरचनाएं पाई जाती है। शिवालिक का उत्थान प्लिस्टोसीन काल में भी हुआ। टर्शियरी काल की संरचना में जहां चट्टाने अधिक वलित नहीं हुई वहां पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस की उत्पत्ति हुई। भारत के पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस के भंडार टर्शियरी संरचना के क्षेत्र में ही है। यह संरचना आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
नियोजोइक कल्प
इसको प्लिस्टोसीन व होलोसीन काल में बांटते हैं। प्लिस्टोसीन काल में शिवालिक का निर्माण हुआ तथा मुख्य मध्यवर्ती मैदान की उत्पत्ति हुई इस समय मध्यवर्ती मैदान के बांगर, भांवर, तराई जैसी संरचना का विकास हुआ। होलोसीन काल में मुख्यत: खादर व डेल्टाई संरचना विकसित हुई। यह सभी जलोढ़ संरचना के क्षेत्र हैं। जिसकी उत्पत्ति का कारण नदियों द्वारा लाए गए अवसादों का निक्षेप है। यह संरचना जलोढ़ मृदा के लिए जानी जाती है। यह भारत के कृषि का मुख्य आधार है। जलोढ़ संरचना का विकास तटवर्ती क्षेत्रों में भी हुआ है। उर्वरक मिट्टी होने के कारण यह विभिन्न फसलों के लिए उपयोगी है। Read More Web Stories……