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मृदा अपरदन के कारण | रोकने के उपाय

मृदा, स्थलीय भूपटल (Crust) की ऊपरी सतह है, इसमें ऋतुक्षरित (Seasoned) तथा अपरदित चट्टानी कणों के अतिरिक्त जल, वायु, ह्यूमस एवं सूक्ष्म जीवाणु इत्यादि विविध अनुपात में पाए जाते हैं। अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों (Geographical Conditions) में मृदा निर्माण मुख्यतः चट्टानों तथा जैव पदार्थों (Bio-substances) के अपक्षय तथा विघटन (Weathering and dissolution) की प्रक्रिया से होता है। मृदा निर्माण की प्राकृतिक प्रक्रिया में मृदा की गुणवत्ता बनी रहती है। जब मृदा की स्तरित ऋतुक्षरित चट्टानी कणों का अपरदन प्रारंभ हो जाता है, तो मृदा की ऊपरी उपजाऊ परत की गुणवत्ता में ह्रास होने लगता है। इसे मृदा अपरदन की समस्या कहते हैं।

अतः मृदा अपरदन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मृदा के उपजाऊ तत्व अपरदित होकर अन्य जगह चले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप मृदा की गुणवत्ता में कमी आती है और बंजर भूमि की समस्या उत्पन्न होती है।  मृदा एक विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र (Specific ecosystem) है, तथा मानवीय आवश्यकताओं जैसे भोजन, वनस्पतियों के विकास, सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व के लिए मृदा की गुणवत्ता का बने रहना आवश्यक है।

मृदा जलवायु को भी आधार प्रदान करती है, चूंकि वनस्पतियों को जलवायु का सूचक एवं नियंत्रक माना जाता है, और वनस्पति विकास के लिए मृदा की गुणवत्ता का बने रहना आवश्यक है। इसी कारण मृदा अपरदन की समस्या को गंभीरता से लिया जा रहा है। मृदा अपरदन वर्तमान में वैश्विक समस्या का रूप ले चुका है। खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार, विश्व की लगभग एक तिहाई मृदा क्षेत्र अपरदन की समस्या से ग्रस्त हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में लगभग 50% मृदा अपरदन से प्रभावित है। अन्य विकासशील देशों में भी मृदा अपरदन की गंभीर समस्या पाई जाती है। मृदा अपरदन को ‘रेंगती हुई मृत्यु’ कहा जाता है।

मृदा परिस्थितिकी तंत्र एवं खाद्य श्रृंखला का आधार स्तंभ होता है, अतः मृदा अपरदन की समस्या से पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या भी उत्पन्न हो रही है। अतः मृदा क्षरण को रोकने के लिए प्रभावी उपाय किए जाने चाहिए, साथ ही मृदा संरक्षण के वैज्ञानिक उपाय करना आवश्यक है।

मृदा अपरदन के कारण

मृदा अपरदन के कारणों को दो भागों में बांटा गया है।

  1.  प्राकृतिक कारक 
  2.  मानवीय कारक

(1) प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारक :

मृदा अपरदन के प्राकृतिक कारकों के अंतर्गत निम्न प्रक्रियाएं मृदा अपरदन के लिए उत्तरदाई है।

  1.  जलीय अपरदन
  2.  वायु अपरदन
  3.  हिमानी अपरदन
  4.  समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन

(1) जलीय अपरदन :   जल द्वारा मिट्टी का अपरदन व्यापक रूप से हो रहा है। जलीय अपरदन का कार्य वर्षा के जल, नदी के जल, बाढ़ के जल से होता है। तीव्र गति से बहता हुआ जल मृदा की उपजाऊ ऊपरी परत का तीव्रता से अपरदन कर देता है। यह समस्या विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाती है। विशेषकर वहां जहां वर्षा की अधिकता है। ढाल भूमि है, तथा वनस्पति का भी क्षरण हो गया है। पुनः नदियों के बाढ़ ग्रसित क्षेत्रों से भी यह समस्या बड़े स्तर में पाई जाती है। जलीय अपरदन की क्रिया निम्न प्रक्रियाओं द्वारा होती है।

(2) वायु अपरदन :  वायु अपरदन की समस्या मरुस्थलीय तथा अर्ध मरुस्थलीय प्रदेश में प्रधानता से पाई जाती है, चूंकि मरुस्थलीय प्रदेश में वायु की गति अधिक होती है और वनस्पति की बाधाएं भी नहीं होती है। अतः वायु मृदा के ऊपरी कणों को उड़ाकर कहीं ओर ले जाती है। मृदा के ऊपरी परत में ही उपजाऊ तत्व तथा ह्यूमस पाए जाते हैं। अतः अपरदन के कारण मोटे बालू के कण शेष रह जाते हैं जो अनुपजाऊ होते हैं। विश्व के सभी मरुस्थलीय क्षेत्र में यह समस्या पाई जाती है। अपवाहित बालू के निक्षेप से भी मरुस्थल का विस्तार आसपास के क्षेत्रों में होता है। एक अनुमान के अनुसार राजस्थान का मरुस्थल 0.8 किमी प्रति वर्ष की दर से दिल्ली की ओर बढ़ रहा है।

(3) हिमानी अपरदन :  हिमानी द्वारा अपरदन का कार्य मुख्यतः हिमाच्छादित प्रदेश में होता है। हिमानी ढाल की ओर गुरुत्वाकर्षण के कारण गतिशील होती है। और नदी की तरह ही मृदा के कणों को अपवाहित करती है। भारत में हिमालय में 4000 मीटर से अधिक ऊंचाई के क्षेत्र में हिमानी अपरदन की क्रिया होती है। साइबेरिया के प्रेयरी में मृदा के क्षेत्र, उत्तरी कनाडा तथा अलास्का क्षेत्र में हिमानी अपरदन की क्रिया होती है।

(4) समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन :   समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन का कार्य तटीय प्रदेश में समुद्री तरंगों एवं ज्वारीय तरंगों के कारण होता है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इस प्रकार का अपरदन शीतोष्ण प्रदेश की तुलना में अधिक होता है। इसका कारण उष्ण क्षेत्रों में तरंगों की बारंबारता तथा तीव्रता का अधिक होना है। तटवर्ती क्षेत्रों में तटीय मृदा तथा तटरेखा के कटाव की भयावह समस्या पाई जाती है। विशेषकर वैसे तटीय क्षेत्र जहां वनस्पति नहीं पाई जाती, वहां अपरदन की समस्या गंभीर है। भारत में यह समस्या सर्वाधिक केरल के तटवर्ती क्षेत्र में पाई जाती है। वैश्विक स्तर पर श्रीलंका का पश्चिमी तट, मालदीप एवं प्रशांत द्विपीय क्षेत्र में तटीय अपरदन की समस्या पाई जाती है।

(2) मानवीय कारक : 

मानवीय कारकों से मृदा अपरदन की प्रक्रिया में तीव्रता आती है। प्राकृतिक कारकों से मृदा अपरदन को त्वरित करने का कार्य मानवीय क्रियाओं द्वारा होता है। मृदा अपरदन को मानवीय कारक दो तरीके से प्रभावित करते हैं।

प्रत्यक्ष कारक :  

इसमें निम्न क्रियाएं आती हैं, जो मृदा अपरदन के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी हैं।

  1. वनों की कटाई तथा वन विनाश
  2. अत्यधिक चारागाह के रूप में भूमि का उपयोग अर्थात अति पशुचरण
  3. अवैज्ञानिक कृषि, जैसे अतिकृषि, अल्पकृषि, फसल चक्र का प्रयोग नहीं किया जाना, अवैज्ञानिक सिंचाई पद्धतियां, झूमकृषि तथा ढाल कृषि आदि।
  4. रासायनिक उर्वरक, कीटनाशकों का प्रयोग

अप्रत्यक्ष कारक : 

इसमें निम्न क्रियाएं आती है, जो अप्रत्यक्ष मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी है।

  1. नहर सिंचाई, बांधों का निर्माण, बहुद्देशीय परियोजनाएं
  2. जल प्रवाह की समस्या
  3. हरित क्रांति के चर
  4. नगरीकरण, औद्योगिकरण, सड़क निर्माण तथा खनन कार्य

मृदा अपरदन के परिणाम तथा समस्याएं

मृदा क्षरण मृदा के उर्वर तत्व को समाप्त कर देता है, जिससे मृदा की उर्वरता धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव कृषि के उत्पादन पर पड़ता है। विश्व की वृहद जनसंख्या के भरण पोषण एवं खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक खाद्यान्न उत्पादन की आवश्यकता है। अतः मृदा अपरदन का प्रत्यक्ष प्रभाव खाद्यान्न समस्या के रूप में सामने आ सकता है। इसके अतिरिक्त चूंकि मृदा परिस्थितिकी तंत्र का आधार है, साथ ही खाद्य श्रृंखला का भी मुख्य आधार है। अतः मृदा की गुणवत्ता में किसी भी प्रकार की कमी परिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी, जिसका विपरीत प्रभाव पारिस्थितिकी के विपरीत विभिन्न घटकों पर पड़ेगा, तथा कई जीव जंतु एवं सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व की समस्या उत्पन्न हो जाएगी। मृदा अपरदन की समस्या के व्यापक दुष्प्रभाव के कारण ही इसे रेंगती हुई मृत्यु कहा जाता है।

मृदा अपरदन की समस्या प्रायः विश्व के सभी देशों में हैं। हालांकि इसका सर्वाधिक प्रभाउष्णकटिबंधीय देशों में है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार विश्व की लगभग एक तिहाई मृदा अपरदन की समस्या से ग्रसित हैं। कुछ देशों जैसे हैती, लेसोथो, आइवरी कोस्ट बुर्किना फासो में 80% से अधिक भौगोलिक क्षेत्रफल में मृदा अपरदन की समस्या पाई जाती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार भारत की 60 प्रतिशत मृदा रोग ग्रस्त है। राष्ट्रीय कृषि आयोग के अनुसार देश के 50% भाग मृदा अपरदन से प्रभावित हैं।

इसके अतिरिक्त इंडोनेशिया, ब्राजील, कोलंबिया, इक्वाडोर, पेरू तथा दक्षिण पश्चिमी अफ्रीका देशों में भी दो तिहाई भाग मृदा अपरदन से प्रभावित है। पुनः उष्णकटिबंधीय देशों में भी मृदा अपरदन की गंभीर समस्या है। कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस जैसे देशों में भी मृदा क्षरण की समस्या पाई जाती है। स्पष्टत: मृदा अपरदन एक वैश्विक समस्या का रूप ले चुकी है। जिसका पर्यावरणीय दुष्प्रभाव के साथ ही आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

मृदा अपरदन से उत्पन्न प्रमुख समस्या एवं परिणाम निम्न है।

  1.  अपरदित भूमि का विस्तार
  2.  कृषि भूमि में कमी
  3.  सूक्ष्म जीवाणुओं का विनाश
  4.  भूमिगत जल स्तर में गिरावट
  5.  जैव विविधता में कमी
  6.  मृदा की उर्वरता एवं उत्पादकता में कमी
  7.  मरुस्थलीकरण में वृद्धि
  8.  तटीय अस्थिरता
  9.  बाढ़ की बारंबारता में वृद्धि

मृदा संरक्षण के कार्य (Conservation of Soil) :

मृदा सर्वप्रमुख प्राकृतिक संसाधन है, जिसकी उपयोगिता मानवीय अधिवासीय परिस्थितियों के लिए प्राथमिक रूप से है। साथ ही मृदा, परिस्थितिकी तंत्र का मुख्य आधार है। अतः मृदा की गुणवत्ता का बना रहना अति आवश्यक है। इस उद्देश्य से मृदा संरक्षण की आवश्यकता महसूस की गई तथा वैश्विक स्तर पर मृदा संरक्षण का कार्य किया जा रहा है।

मृदा संरक्षण : 

मृदा संरक्षण का तात्पर्य मृदा के विवेकपूर्ण उपयोग से है, ताकि मानव के लिए उपयोग में वृद्धि के साथ ही लंबे समय तक इसे संरक्षित रखा जा सके। इस तरह मृदा संरक्षण का अर्थ मृदा के ऐसे प्रबंध से है, जिसके द्वारा मृदा के उपयुक्त प्रयोग मानव की आवश्यकताओं के लिए किए जाने के साथ ही इसके गुणों को भी संरक्षित रखा जा सके।

मृदा संरक्षण के कार्य : 

भारत की योजना समिति के अनुसार मृदा संरक्षण के अंतर्गत मृदा प्रबंधन की समस्त विधियां तथा उपाय आते हैं, जिनके द्वारा मृदा की उपजाऊ शक्ति को पूर्ण रूप से नष्ट होने से बचाया जा सके। भारत के मृदा अपरदन की समस्या तथा मृदा संरक्षण के लिए वैज्ञानिक स्तर पर देश में सर्वप्रथम 1952 में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के सुझावों को महत्व दिया गया है। देश में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में भी मृदा क्षरण को पर्याप्त महत्व दिया गया है। वैश्विक स्तर पर मृदा संरक्षण का कार्य किया जा रहा है। इसके लिए सर्वाधिक बल वानिकी कार्यक्रमों के विस्तार पर दिया जा रहा है।

विभिन्न प्रभावित क्षेत्रों के लिए विशेष क्षेत्र आधारित कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। मृदा संरक्षण के कार्यों की निम्न वैज्ञानिक विधियां हैं।

  1. शस्यावर्तन :  यह भूमि की उर्वरता बनाए रखने की विधि है। इसके अंतर्गत कृषि भूमि या खेत में क्रमिक रूप से अलग-अलग फसलों को विशेष रुप से दलहनी तथा गैर-दलहनी फसलों को उगाया जाता है।
  2. पटवारीकरण :   इसके अंतर्गत खेत को खरपतवार या पॉलिथीन के आवरण से ढका जाता है, ताकि मृदा की नमी बनी रहे तथा वायु या जल द्वारा मृदा की ऊपरी परत का क्षरण नहीं हो पाए।
  3. पट्टी पर फसल लगाना :   यह विधि कम ढाल वाले पर्वतीय भागों में अपनाई जाती है। इसमें वार्षिक पौधें बहु-वर्षीय पौधों के बीच की पट्टी में लगाए जाते हैं। इससे जल का बहाव मन्द होता है तथा अपरदन में कमी आती है।
  4. कंटूर कृषि :  इसे समोच्च कृषि भी कहते हैं। इसके अंतर्गत पर्वतीय भाग में समान ऊंचाई के क्षेत्रों को समतल कर नीचे की ओर समकोण बनाते हुए खेत बनाए जाते हैं। ढाल कृषि से होने वाली मृदा अपरदन को कंटूर विधि से रोका जा सकता है।
  5. वेदिका कृषि :   इसके अंतर्गत पर्वतीय ढाल को छोटे, चपटे, आड़े, तिरछे, समकोण खेतों में बांटकर कृषि की जाती है। इससे पानी का बहाव कम होता है तथा ढाल के क्षेत्र में अपरदन में कमी आती है।
  6. वन आरोपण :   वनों को पहाड़ी तथा मैदानी क्षेत्रों में लगाने से मृदा की परतों को वृक्ष की जड़ें जकड़े रहती हैं, जिसके कारण वायु या तीव्र वर्षा प्रवाही जल के द्वारा होने वाली मृदा अपरदन में कमी लाती है। वर्तमान में वनिकी कार्यक्रम को वैश्विक मान्यता प्राप्त है।
  7. घास लगाना :  पर्वतीय ढालो एवं घास के मैदानी भागों में मृदा अपरदन को रोकने का एक तरीका घास को लगाना है।
  8. वेंडिंग :   वर्षा जल तथा नदी जल द्वारा होने वाली रिल एवं अवनालिका अपरदन के क्षेत्र में वेंडिंग विधि अपनाई जाती है। इसके अंतर्गत रिल एवं अवनालिका अपरदन के मार्ग में कम ऊंचाई के बांध बनाकर जल के तीव्र प्रभाव को रोका जा सकता है, जिससे आगे का मृदा के अपरदन नहीं हो पाता। बांध से जल बांध के ऊपर से धीरे-धीरे बाहर निकलता है, जिससे मृदा अपरदन में कमी आती है।
  9. वृक्षों की पट्टियां :  मरुस्थलीय एवं अर्ध मरुस्थलीय क्षेत्र में मरुस्थलों के विस्तार को रोकने के लिए रक्षात्मक वृक्षों की पट्टियां लगाई जाती हैं, ताकि अपवाहित बालु वृक्षों के अवरोध से रुक जाए। तटवर्ती क्षेत्रों में भी मैनग्रोव जैसे वृक्षों को तटीय मृदा संरक्षण के लिए लगाया जा रहा है।
  10. जल प्रबंधन :   इसके अंतर्गत मुख्यतः बाढ़ ग्रसित क्षेत्रों में बाढ़ को नियंत्रित करने वाले उपाय किए जाते हैं, ताकि जल प्रवाह से होने वाले अपरदन को रोका जा सके। इसके अंतर्गत जल विभाजक प्रबंध (Watershed management) जल अधिग्रहण क्षेत्र प्रबंध (Catchment Area Management) कंक्रीट के तटबंधों का निर्माण जैसे कार्य महत्वपूर्ण रूप से किए जाते हैं।

मृदा संरक्षण के लिए किए जाने वाले वैश्विक कार्य

1970 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में सामाजिक वनिकी तथा कृषि वानिकी जैसे कार्यक्रम प्रारंभ किए गए थे। ऐसे कार्यक्रम अन्य विकसित व विकासशील देशों में भी चल रहे हैं। भारत में यह कार्यक्रम 1980 से लागू है। सामाजिक वानिकी के अंतर्गत ही कृषि वानिकी, ग्रामीण वनिकी व नगरीय वनिकी जैसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। जिसका एक प्रमुख उद्देश्य मृदा अपरदन को रोकना तथा मृदा संरक्षण है। क्षतिपूर्ति वनिकी कार्यक्रम एवं वन नीति के अंतर्गत वनीकरण का कार्यक्रम किया जा रहा है।

इस तरह वन विनाश की समस्या जो मृदा अपरदन का प्रमुख कारण है। इसे वनिकी कार्यक्रम से दूर किया जा जा रहा है। 

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