राजा राममोहन राय को धार्मिक सुधार आंदोलन का जनक माना जाता है। इन्हें भारतीय पुनर्जागरण का जनक तथा आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है।
- राजा राममोहन राय का जन्म – 22 मई, 1772
- राजा राममोहन राय की मृत्यु – 27 सितंबर, 1835
- पिता का नाम – रमाकांत (बंगाली पंडित)
- माता का नाम – तारिणी देवी
- जन्म स्थान – कलकत्ता
भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत राजा राममोहन राय का भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज (ब्रह्मा सभा) के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह के नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने प्रारंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी (1600) में 1803-14 तक नौकरी की, मगर 1814 में कंपनी से इस्तीफा देने के बाद, सबसे पहले आत्मीय सभा का गठन किया तथा 1815 में इस संगठन ने काम करना प्रारंभ किया। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की। उनके आन्दोलनों ने जहाँ पत्रकारिता को चमक दी, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया।
1817 में हिंदू कॉलेज की स्थापना कोलकाता में डेविड हेयर द्वारा राजा राममोहन राय की सहायता से की गई। 1820 में प्रिंसेस ऑफ जीसस नाम की पुस्तक लिखी। इन्होंने बाइबल की रचनाएं टेस्टामेंट का प्रचार किया तथा उसकी अच्छाइयों के साथ बुराइयों को भी समाज के सामने प्रकाशित किया। 1828 में ब्रह्मा समाज (ब्रह्मा सभा) की स्थापना की। यह आत्मीय सभा के स्थान पर की गई थी। राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि अकबर द्वितीय द्वारा (पेंशन संबंधित मामलों में) दी गई थी।
राजा राममोहन राय ने 1829 में सती प्रथा का अंत विलियम बैटिंग के प्रयासों से सबसे पहले बंगाल में किया गया। तथा 1930 में मुंबई तथा मद्रास में सती प्रथा का अंत किया गया। 27 सितंबर 1835 में इनकी मृत्यु हो गई। इनकी समाधि ब्रिस्टल इंग्लैंड में बनी हुई है। राजा राममोहन राय के समकालीन राधाकांत देव ने 1830 धर्म सभा की स्थापना की थी।
भारतीय पत्रकारिता के जनक के रूप में राजा राममोहन राय को जाना जाता है, इनका पत्र संवाद कौमुदी जो बंगाली भाषा में लिखा गया एक साप्ताहिक पत्र था तथा दूसरा पत्र मीरात उल अखबार फारसी भाषा में लिखा गया साप्ताहिक पत्र था, का उन्होंने विमोचन किया। राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता और वैचारिकता के सैकड़ों उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। हिन्दी के प्रति उनका बहुत लगाव था। वे रूढ़िवाद और कुरीतियों के विरोधी थे, लेकिन संस्कार, परंपरा और राष्ट्र गौरव उनके दिल के करीब थे। वे स्वतंत्रता चाहते थे लेकिन चाहते थे कि इस देश के नागरिक उसकी कीमत पहचानें।
राजा राम की मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज को चलाने का श्रेय देवेंद्र नाथ टैगोर को जाता है। ब्रह्मा समाज के सदस्यों में अश्वनी कुमार दत्त, ईश्वर चंद्र विद्यासागर तथा केशव चंद्र सेन प्रमुख केशव चंद्र सेन ब्रह्म समाज को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाना चाहते थे। इसी के कारण देवेंद्र नाथ टैगोर तथा केशव चंद्र सेन में मतभेद हो गया और केशव चंद्र सेन ब्रह्म समाज से (1955) अलग हो गए। सन 1966 में केशव सेन ने अलग होकर भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना की तथा बाद में 1867 में देवेंद्र नाथ टैगोर ने ब्रह्मा समाज का नाम बदलकर आदि ब्रह्म समाज रख दिया।
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा वे दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे। दूसरी लड़ाई उनकी अपने ही देश के नागरिकों से थी। जो अंधविश्वास और कुरीतियों में जकड़े थे। राजा राममोहन राय ने उन्हें झकझोरने का काम किया। बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया। धर्म प्रचार के क्षेत्र में अलेक्जेंडर डफ्फ ने उनकी काफी सहायता की। देवेंद्र नाथ टैगोर उनके सबसे प्रमुख अनुयायी थे। आधुनिक भारत के निर्माता, सबसे बड़ी सामाजिक – धार्मिक सुधार आंदोलनों के संस्थापक, ब्रह्म समाज, राजा राम मोहन राय सती प्रणाली जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह भी अंग्रेजी, आधुनिक चिकित्सा प्रौद्योगिकी और विज्ञान के अध्ययन को लोकप्रिय भारतीय समाज में विभिन्न बदलाव की वकालत की। यह कारण है कि वह “मुगल सम्राट ‘राजा के रूप में भेजा गया था।
राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन’, ‘संवाद कौमुदी’, मिरात-उल-अखबार ,(एकेश्वरवाद का उपहार) बंगदूत जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। बंगदूत एक अनोखा पत्र था। इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था। उनके जुझारू और सशक्त व्यक्तित्व का इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि सन् 1821 में अँग्रेज जज द्वारा एक भारतीय प्रतापनारायण दास को कोड़े लगाने की सजा दी गई। फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। इस बर्बरता के खिलाफ राय ने एक लेख लिखा।