सतत विकास की अवधारणा को वैश्विक स्तर पर 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में विकास हेतु एजेंडा-21 में स्वीकार किया गया तथा विश्व के देशों को विकास के नए तरीके से देखने एवं नियोजित करने की सलाह दी गई थी। हालांकि इसके पूर्व ही बर्टलैण्ड कमीशन ने सतत विकास की अवधारणा स्पष्ट कर दी थी।
बर्टलैण्ड कमीशन द्वारा 1987 में दी गई परिभाषा के अनुसार, सतत विकास विकास की ऐसी प्रक्रिया है जो वर्तमान की आवश्यकताओं को भविष्य या आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा कर सकने की क्षमता व संभावना रखती है।
दूसरे शब्दों में, यह भी कहा जा सकता है कि सतत विकास प्राकृतिक संसाधनों के सामंजस्य के साथ इस तरह का विकास है जो आज की पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करने के अलावा बगैर किसी समझौते के आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं को भी पूरा कर सकें।
बर्टलैण्ड के इस कथन में दो बातों पर विशेष रूप से जोर दिया गया है या उन्हें केंद्रीय मुद्दा बनाया गया। सतत्ता की किसी भी संकल्पना को वर्तमान पीढ़ी की भविष्य की पीढ़ी के प्रति जिम्मेदारी से जोड़ा गया साथ ही प्राकृतिक पूंजी व सामाजिक पूंजी, भौतिक निवेश व ज्ञान निवेश आदि को भी मानव पूंजी का दर्जा दिया गया।
इस पूंजी का निवेश वर्तमान के साथ भविष्य की पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा कर सकने के दृष्टिकोण पर बल दिया गया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सतत विकास, विकास की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें विकास आने वाली पीढ़ियों तक भी अनवरत जारी रहेगा। अगर विकास सिर्फ वर्तमान पीढ़ी के लिए किया जाए तो आने वाली पीढ़ी को फिर उसी स्तर से विकास कार्य की शुरुआत करनी होगी, जहां से वर्तमान पीढ़ी ने किया। अर्थात बार-बार एक ही स्तर पर कार्य में ऊर्जा खर्च होगी। इससे बचने का एकमात्र तरीका यही है कि विकास की ऐसी प्रक्रिया अपनाई जाए, जिसमें निरंतरता हो। इस कारण सतत विकास के अंतर्गत प्राकृतिक संसाधनों के साथ उपयोग संतुलन करने पर बल दिया जाता है।
सतत विकास की संकल्पना
सतत् विकास की संकल्पना या अवधारणा को सर्वप्रथम लोकप्रिय बनाने का श्रेय बर्टलैण्ड कमीशन को जाता है। हालांकि यह एक विवादित मुद्दा है कि विकास की दिशा क्या होनी चाहिए। इस संदर्भ में, इन दिनों यही अवधारणा बहस का केंद्रीय मुद्दा है। सतत विकास की अवधारणा का जन्म पर्यावरण नीति कार्यक्रम परियोजनाओं पर चल रहे बहस तथा इस अध्ययन के बाद तय हुआ कि आर्थिक विकास, गरीबी और पर्यावरण इन सभी के बीच बहुत गहरा रिश्ता है। सही अर्थ में गरीबी और पर्यावरण तथा निम्न आर्थिक प्रदर्शन के साथ गरीबी में वृद्धि, गरीबी में वृद्धि के कारण पर्यावरण क्षरण इत्यादि के अध्ययन से सतत विकास का जन्म हुआ।
बर्टलैण्ड की रिपोर्ट में आर्थिक विकास के उस मॉडल पर जोर दिया गया जो विकासशील देशों की मूल आवश्यकताओं को पूरा कर सकें, साथ ही इस क्रम में उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों को भविष्य की पीढ़ी के प्रयोग के लिए भी सुरक्षित व सुनिश्चित करा सके।
उल्लेखनीय है कि सतत् विकास, विकास की ऐसी प्रक्रिया है जो न सिर्फ हमारे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने पर बल देती है, बल्कि उसकी बर्बादी पर भी रोक लगाती है। साथ ही यह विकास की ऐसी अवधारणा है जो सिर्फ कुछ लोगों को ही नहीं, बल्कि सभी के विकास को एक समान महत्वपूर्ण मानती है।
सतत विकास नीतियों के व्यवहारिक क्रियान्वयन में निम्न बातों पर विशेष बल दिया जाता है।
- संसाधनों के कम या बगैर प्रयोग के विकास की नीति
- संसाधनों की कम से कम बर्बादी या नुकसान पर बल
- ऐसी विकास नीतियों का निर्माण जिनसे संसाधनों का संरक्षण संभव हो सके।
- किसी भी प्रकार की आर्थिक या विकास की गतिविधियों के परिणामस्वरूप पर्यावरण को होने वाले नुकसान व प्रदूषण पर रोक लगाने वाली विकास नीतियों का निर्माण।
- नीति एवं कार्यक्रम बनाने के उद्देश्य हेतु विकास की अवधारणा ने तीन अंतर संबंध घटकों में विभाजित किया है।
- स्वास्थ्य वृद्धि मूलक अर्थव्यवस्था
- सामाजिक समानता के प्रति वचनबद्धता
- पर्यावरण का संरक्षण
सतत विकास की अवधारणा का पारितंत्र की वहन क्षमता के साथ बहुत गहरा व नजदीकी संबंध है। इसके अनुसार जनसंख्या, गरीबी और प्रदूषण जैसे मुद्दों का विश्लेषण पारितंत्र के विकास में सहयोग करने पर वहन क्षमता के संदर्भ में किया जाना चाहिए, ताकि पर्यावरण की गुणवत्ता को बनाए रखा जा सके।
सतत विकास के लक्ष्यों का उद्देश्य
विकास का सबसे बड़ा उद्देश्य मानवीय आवश्यकताओं की आकांक्षाओं की पूर्ति है। विकासशील देशों की बहुत बड़ी जनसंख्या को भोजन, वस्त्र, आवास व रोजगार आदि उपलब्ध कराने में आर्थिक-सामाजिक विकास कार्यों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। वैसे भी हर व्यक्ति को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा यह भी आकांक्षा रखने का वैध अधिकार है कि उसे भी बेहतर जीवन स्तर मिले। गरीबी और असमानता वाला विश्व हमेशा जैविक व अन्य संकटों से ग्रस्त रहेगा। सतत् विकास मानव की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ उसके बेहतर जीवन स्तर की आकांक्षा को भी साकार करने की अवधारणा है।
विश्व की संपूर्ण जनसंख्या को बेहतर जीवन स्तर तभी प्रदान किया जा सकता है, जब संसाधनों का उपभोग स्तर सभी जगह भविष्य को ध्यान में रखकर किया जाए। जबकि हममें से बहुत से लोग प्राकृतिक दायरे से बाहर होकर संसाधनों का उपभोग करने लगते हैं। सतत एक स्थिर अवधारणा नहीं, बल्कि चलायमान या गतिशील संकल्पना है, मानव की बदलती आवश्यकताओं के साथ निरंतर इस अवधारणा में भी बदलाव संभव है। सतत विकास का क्षेत्र बहुत व्यापक है, जिसके दायरे में निम्न क्षेत्र स्रोत है – भूमि प्रयोग, वन उपयोग, कृषि प्रबंधन, वायु एवं प्रदूषण नियंत्रण, ऊर्जा एवं मानव संसाधन प्रबंधन, औद्योगिक विकास, जल प्रबंधन, नगरीकरण तथा अधिवास प्रबंधन आदि।
सतत विकास का लक्ष्य सिर्फ पर्यावरण सुरक्षा नहीं है, बल्कि यह विकास की एक नई अवधारणा है। जिसके तहत इस तरह के आर्थिक विकास एवं वृद्धि पर बल दिया जाता है, जिसमें सभी के लिए विकास के समान अवसर उपलब्ध हो। यही नहीं सतत विकास की संकल्पना ईमानदार अवधारणा होने के साथ-साथ विकास के उन संसाधनों के अधिकाधिक उपयोग पर विवेकपूर्ण ढंग से रोक भी लगाती है, जो भविष्य में खत्म हो जाएंगे। यह अवधारणा हमें यह जैविक दृष्टि प्रदान करती है कि विकास व संसाधन पर सिर्फ वर्तमान पीढ़ी का ही हक नहीं है, बल्कि इस पर आने वाली पीढ़ी का भी अधिकार है। ठीक उसी तरह जैसे हमें हमारी पिछली पीढ़ी से मिला।
सतत विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें संसाधन दोहन, आर्थिक, ऊर्जा, कृषि और औद्योगिक नीतियों का निर्माण इस तरह के विकास के लिए किया जाता है जो आर्थिक, सामाजिक और जैविक तीनों स्तर पर सतत या अनवरत जारी रहे। यह अवधारणा यह भी सुनिश्चित करती है कि विकास हेतु ऐसे वित्तीय प्रबंधन किए जाएं, जिसे आने वाली पीढ़ी को चुकाना न पड़े, साथ ही वर्तमान पीढ़ी के स्वास्थ्य और शिक्षा पर प्रचुर मात्रा में निवेश किया जाए। संसाधनों का भी इतना अधिक दोहन न किया जाए कि जैविक व परिस्थिति की व्यवस्था ही संकट में पड़ जाए, परंतु विकास के क्रम में आर्थिक वृद्धि और पर्यावरण संरक्षण के बीच सामंजस्य होना चाहिए न कि विरोध, क्योंकि ‘आर्थिक वृद्धि’ सामाजिक विकास के लिए भी बहुत जरूरी है।
गरीबी के कारण व सीमित मानवीय चयन के कारण गरीब देशों में पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। ऐसे में आर्थिक वृद्धि के अवसर इन देशों को कई तरह के विकल्प उपलब्ध कराती है, पर निर्धन देश, धनी देशों के उत्पादन व प्रतिरोध की तरह शुरुआत तकनीकी रूप से समृद्ध होने के बावजूद नहीं कर सकते।
वर्तमान में उत्तर की तरह दक्षिण विश्व को भी विकसित करने में कम से कम वर्तमान से 10 गुना अधिक मात्रा में जीवाश्म ईंधन और 200 गुना अधिक खनिज संपदा की आवश्यकता होगी। अगले 40 वर्षों में यह मात्रा इसकी भी दुगनी हो जाएगी। क्योंकि विश्व की जनसंख्या भी दुगनी हो जाएगी। भारत, चीन जैसे देशों को तीव्र विकास दर बनाए रखने के लिए अधिक ऊर्जा एवं संसाधनों की आवश्यकता है।
सतत विकास एवं पर्यावरण
पर्यावरण, अर्थव्यवस्था के लिए ऊर्जा एवं पदार्थ मुहैया कराता है, साथ ही इंद्रियों को प्रसन्नता करने वाला प्राकृतिक सौंदर्य भी। सम्मिलित रूप में इसे जैव तंत्र या ईको सिस्टम भी कहा जाता है। विकास एवं वृद्धि पर पर्यावरण की दशाओं का बहुत अधिक असर होता है। दरअसल, पृथ्वी पर निवास करने वाले जैविक तथा अजैविक घटक, जल, हवा तथा मिट्टी के बीच गहरा संबंध होता है, यही इन जीवो का निवास है। सतत् विकास से आज विकासशील देशों का संबंध ज्यादा है, क्योंकि विकास एक गतिशील प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक रूप से तटस्थ और स्वचालित प्रक्रिया है, अतः सतत आर्थिक विकास हेतु पर्यावरण संरक्षण आवश्यक है। पर्यावरण को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है – आर्थिक विकास की ऐसी प्रक्रिया का विकास जिसके तहत कचरे या अवशिष्ट पदार्थों में कमी आ सके। पर्यावरण में इस तरह के अवशेष कम से कम मात्रा में जमा हो सके, जबकि अधिकतम लोगों का कल्याण हो सके।
पर्यावरण समस्या के रूप में जो कारण सामने आते हैं, वे हैं – जनसंख्या वृद्धि, आधुनिकीकरण, औद्योगिकरण, नगरीकरण सैन्यीकरण, आय और उपभोग में वृद्धि, गरीबी और बेरोजगारी। वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी क्रांति ने मनुष्य को भू-भौतिक बल के रूप में बदल दिया जो पर्यावरण को प्रभावित करने लगा है। अन्य किसी भी जीव की तुलना में मनुष्य के पास पर्यावरण को अपनी आवश्यकता के अनुसार प्रयोग करने की क्षमता बहुत अधिक है। अतः उसकी इस क्षमता का सकारात्मक प्रयोग होना चाहिए न कि नकारात्मक। इसमें कोई संदेह नहीं कि पर्यावरण भी हमेशा विकासशील होता है और कुछ हद तक पर्यावरण मनुष्य की आवश्यकताओं को समायोजित भी करता है। परंतु मनुष्य की अतिरिक्त गतिविधियां संतुलन को तहस-नहस कर डालती है। जिसके अंतर्गत प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दोहन उनका दुरुपयोग जैसी क्रियाओं को शामिल किया जा सकता है।
इन सभी क्रियाओं का पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है। अतः जिसका परिणाम विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएं, संसाधनों का नुकसान, प्राकृतिक आपदाएं आदि होती हैं। दरअसल, इन सभी क्रियाओं से प्राकृतिक व्यवस्था पर दबाव पड़ता है, क्योंकि वे गतिविधियां पर्यावरण की वहन क्षमता के दायरे से बाहर होती है। अतः पर्यावरण की वहन क्षमता पर इन गतिविधियों के अतिरिक्त बोझ पड़ने लगता है। जिससे पृथ्वी की जीवन वहन व सहयोग क्षमता प्रभावित होने लगती है।
पृथ्वी शिखर सम्मेलन 1992 में एजेंडा-21 के प्रावधानों के अनुरूप विश्व की विकास नीतियां निर्धारित की जा रही है। क्योटो संधि का 2005 में लागू होना, पर्यावरणीय मुद्दे पर वैश्विक जागरूकता एवं बढ़ती हुई सहभागिता सतत विकास की दिशा में ही सराहनीय प्रयास है, जिसे अभी और तीव्र करना होगा ताकि विश्व का विकास बिना बाधित हुए अनवरत बना रहे।
सतत विकास क्यों आवश्यक?
- गरीबी के उन्मूलन के लिए
- जनसंख्या वृद्धि पर रोक के लिए
- संसाधनों के समान वितरण के लिए
- अधिक स्वास्थ्य, सक्षम व प्रशिक्षित मानव संसाधनों के लिए
- केंद्रीकृत एवं अधिक प्रशिक्षित मानव संसाधनों के लिए
- जब तंत्र की विभिन्नता की बेहतर हेतु