अन्तर्जात बल | बहिर्जात बल | भ्रंश के प्रकार

भू-आकृतियों के विकास के नियंत्रण कारक

(अन्तर्जात एवं बहिर्जात बल)

पृथ्वी की सतह पर विभिन्न स्थलाकृतियों का विकास कुछ विशेष शक्तियों के प्रभाव के कारण होता है। इन शक्तियों में आंतरिक एवं बाह्य शक्तियां आती हैं। इन दोनों शक्तियों के प्रभाव से ही भू-पटल के स्वरूप में परिवर्तन आता है, तथा भू-पटल पर दृष्टिगोचर होने वाले विभिन्न स्थलाकृतियों का विकास होता है। इन स्थलाकृतियों को धरातल का उच्चावच लक्षण कहा जाता है।

बाह्य कारकों द्वारा अनावृतिक्रमण का कार्य होता है, जबकि आंतरिक शक्तियों द्वारा भू-पटल के मौलिक रूप में विरूपण होता है। इसी विरूपण से महाद्वीप, पर्वत, पठार, मैदान तथा भ्रंश जैसी मौलिक स्थलाकृतियों का विकास होता है। विरूपण की प्रक्रिया को ही भू-संचलन कहते हैं। इस प्रकार भू-आकृतियों के विकास को नियंत्रित करने वाले दो कारक हैं।

  1. अंतर्जात बल या भू-संचलन
  2. बहिर्जात बल या अनाच्छादन
पृथ्वी का संचलन (भू-संतुलन) एवं स्थलाकृतियां

भू-संचलन वह अन्तर्जात शक्ति है जो भू-पटल में हलचल लाकर उसके स्वरूप में परिवर्तन ला देती हैं। भू-संचलन की उत्पत्ति के संबंध में अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं। जिनमें तीन प्रमुख हैं।

कोबर का दबाव शक्ति सिद्धांत

कोबर के अनुसार भू-संचलन का कारण भू-सन्नति में निक्षेप और धसान है। निक्षेप एवं धसान से भू-पटल के समीपवर्ती चट्टानों में एक प्रकार की संकुचन शक्ति उत्पन्न होती है, जो भू-सन्नति के किनारों के चट्टानों को एक दूसरे के नजदीक ले आता है। इस प्रक्रिया से दबाव शक्ति अथवा भू-संचलन उत्पन्न होती है, और भूपटल का विरूपण होता है। मोड़ और भ्रंश ही विरूपण की प्रमुख स्थलाकृतियां हैं।
             लेकिन भूगर्भ शास्त्रियों ने इस सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया है। इनके अनुसार दबाव शक्ति उतनी प्रभावकारी नहीं हो सकती है कि हिमालय जैसे विशाल पर्वत श्रृंखला का निर्माण कर सके। अतः अमेरिकी भूगर्भशास्त्री होम्स ने 1928-29 में एक वैकल्पिक सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसे संवहन तरंग सिद्धांत कहते हैं।

होम्स का संवहन तरंग सिद्धांत

होम्स ने पृथ्वी की आंतरिक संरचना को दो परतों में बांटा।

  • भूपटल 
  • अध:स्तर

होम के अनुसार,भूपटल के नीचे अध:स्तर में ऊर्जा का प्रवाह उत्पन्न होता है। यह चक्रीय होता है तथा भूपटल को लंबवत और क्षैतिज रूप से प्रभावित करता है। इसी प्रभाव से भूपटल में विरूपण होता है और कई प्रमुख स्थल आकृतियों का विकास होता है। ऊर्जा तरंग सिर्फ नीचे के क्षेत्रों में उत्पन्न होती है। जहां भूपटल की मोटाई अधिक होगी अर्थात महाद्वीपीय और विषुवत रेखीय भूपटल के नीचे ही इनकी उत्पत्ति होती है। यह तरंगे दो प्रकार की होती हैं।

  • लंबवत तरंगें
  • क्षैतिज तरंगें

लंबवत तरंगे पुनः दो प्रकार की होती हैं।

  • उठती तरंगे 
  • गिरती तरंगे

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत प्लेटो की गतिशीलता को भू-संचलन का कारण मानता है। प्लेटो की गति का मुख्य कारण संवाहनिक तरंगे ही हैं जो प्लास्टिक दुर्बल मंडल से उत्पन्न होती है। प्लेटो के सीमांत क्षेत्र में प्लेटो की गतिशीलता के कारण अभिसरण,अपसरण एवं संरक्षी क्रियाएं होती है, जो भू-संचलन का कारण है।

अतःस्तर में उर्जा प्रवाह के दो प्रमुख कारण हैं।

  1. जैसे-जैसे पृथ्वी के नीचे जाते हैं प्रति 32 मीटर की गहराई पर तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है, इससे अंततः एक ऐसे स्तर का निर्माण होता है, जहां चट्टाने पिघली अथवा गर्म अवस्था में है।
  2. रेडियो सक्रिय खनिजों का विखंडन होता है, इससे ऊर्जा की उत्पत्ति होती है। क्योंकि रेडियो सक्रिय खनिज सभी क्षेत्रों में समान नहीं है। अतः सभी जगह संवहन तरंगें एक समान विकसित नहीं होती है। संवहन तरंगे वहीं उत्पन्न होती हैं, जहां दबाव से उर्जा वृद्धि और रेडियो सक्रिय विखंडन से ऊर्जा का जमाव होता है। यह सिद्धांत व्यापक मान्यता रखता है। इसी सिद्धांत के आधार पर प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया गया है। प्लेटों की गतिशीलता का कारण संवहनिक तरंगे ही हैं।

होम्स के विचार को भूकंपीय तरंगों के विचार के सिद्धांत का भी समर्थन मिला,जिससे यह साबित हुआ कि भू-संचलन तरंग उर्जा पर कार्य करती है। अतः वर्तमान समय में संवहन तरंग की क्रिया को ही सामान्यतः भू-संचलन का प्रमुख कारण माना जाता है।

भू संचलन के प्रकार

भू-संचलन को समान्यत: दो भागों में बांटा गया है।

  • आकस्मिक भू-संचलन 
  • दीर्घकालिक भू-संचलन

आकस्मिक भू-संचलन

वह क्रिया है जिसका प्रभाव क्षणिक होता है। यह भू-संचलन कुछ सेकेंड से लेकर कुछ घंटों के लिए होते हैं। इसका प्रत्यक्ष संबंध संबंध तरंगों से न होकर उससे उत्पन्न जटिलताओं से है। स्थलाकृतियों के निर्माण में इसका विशेष महत्व नहीं है। यह दो प्रकार के होते हैं।

  • भूकंपीय भू-संचलन 
  • ज्वालामुखी भू-संचलन

भूकंपीय भू-संचलन : इस भू-संचलन से कंपन्न होते हैं, विरूपण नहीं होता है। अधिक तीव्र भूकंप की स्थिति में भूपटल में दरार पड़ती है।

ज्वालामुखी भू-संचलन : कहीं-कहीं इसके प्रभाव से चट्टानों में दरार पड़ जाते हैं और इससे जल और बालु बाहर निकल आते हैं। जब ये दरार अधिक गहराई तक जाते हैं, तब लावा भी बाहर निकल आता हैं। इससे निरूपण होता है और स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। तीव्र ज्वालामुखी विस्फोट के कारण ज्वालामुखी पर्वतों की उत्पत्ति होती है। लेकिन सभी प्रकार के ज्वालामुखी विरूपण आकस्मिक भू-संचलन के अंग नहीं होते, बल्कि वे ही ज्वालामुखी आते हैं, जो कुछ घंटों में समाप्त हो जाते हैं।

दीर्घकालिक भू-संचलन

इसमें विरूपण के व्यापक कार्य होते हैं। यह क्रिया लाखों, करोड़ों वर्षों तक अपना प्रभाव डालती है। इसके विरूपण से महत्वपूर्ण स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इसे दो भागों में बांटा जाता है। 

  • पठार एवं महाद्वीप निर्माणक 
  • पर्वत निर्माणक
पठार एवं महाद्वीप निर्माणक

इस भू-संचालन का कार्य लम्बवत तरंगों द्वारा होता है। जब संवहन तरंगे लंबवत रूप से ऊपर उठते हैं, तो पठार अथवा महाद्वीप का निर्माण होता है। इसके विपरीत अगर तरंग छोटे क्षेत्र पर सीधा प्रभाव डालती है तो तीव्र ढाल वाले पठार का निर्माण होता है। लंबवत तरंगो द्वारा महाद्वीपों, महासागरों के तटवर्ती क्षेत्र में स्थल खंड के ऊपर उठने या धंसने की क्रिया व्यापक रूप से होती है। ऊपर उठती तरंगों के कारण उत्थान एवं उन्मज्जन की क्रिया तथा नीचे गिरती तरंगों द्वारा अवतलन एवं निमज्जन की क्रिया होती है।

पर्वत निर्माणक

ये क्षैतिज भू-संचलन का परिणाम है। इससे विरूपण का वृहद कार्य होता है। क्षैतिज क्रिया के परिणामस्वरुप भू-पटल में दबाव तथा तनाव दोनों होते हैं।

दबाव से भूपटल में मोड़ पड़ते हैं जबकि तनाव से भ्रंश की उत्पत्ति होती है। अतः भूपटल में यह दोनों क्षेत्र विरूपित हो जाते हैं। प्रथम स्थिति में मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति होती है, जबकि दूसरी स्थिति में भ्रंश स्थलाकृतियों की उत्पत्ति होती है।

दबाव अथवा संपीडन से उत्पन्न वलित स्थलाकृतियां

संपीडन से महत्वपूर्ण स्थलाकृतियों का विकास होता है,यह मोड़दार स्थलाकृतियों के नाम से जाने जाते हैं। इस प्रक्रिया से भूपटलीय लचीली चट्टानें लहरदार रुप में संपीडित होती हैं, जिससे भूपटल के कुछ भाग ऊपर उठते हैं जबकि कुछ भाग नीचे धंस जाते हैं। वलन की क्रिया जब लंबवत क्षेत्रों में होती है, तो उसे वृहत संवलन कहते हैं, जबकि अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रों में वलन कहते हैं। वृहत् संवलन की स्थिति में ऊपर उठे भाग को भूअपनति तथा नीचे धंसे भाग को भू-अभिनति कहते हैं, इस प्रक्रिया से विश्व की प्रमुख पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण हुआ।

वलन के अंतर्गत कई प्रकार के मोड़ बनते हैं, जो दबाव शक्ति पर निर्भर करते हैैं। प्रत्येक मोड़ का एक अक्ष एवं दो पार्श्व होते हैं। पार्श्व के ढाल ही पर्वत के ढाल होते हैं। पार्श्व की ढाल दबाव शक्ति की गहनता एवं चट्टानों की संरचनात्मक विशेषताओं पर निर्भर करते हैं। संकुचन अथवा दबाव के क्रिया तीव्र होने पर ढाल तीव्र होगा, कम दबाव की स्थिति में मंद ढाल का विकास होता है।
दबाव की अनियमितता के कारण मोड़ के अंतर्गत कई विशिष्ठ स्थलाकृतियों का विकास होता है, जिसमें मुख्य हैं।

  1. सममित मोड़ : सममित मोड़ वह है, जिसमें दबाव शक्ति दोनों ही दिशाओं में एक समान होती है। अतः अक्ष के सहारे दोनों ही दिशाओं में ढाल एक समान होता हैं। स्विजरलैंड का जुरा पर्वत इस प्रकार का पर्वत है।
  2. असममित मोड़ : वह मोड़ जिसमें एक दिशा में दबाव शक्ति अधिक होती है। अधिक दबाव शक्ति की ओर पर्वत की ढाल तीव्र हो जाती है। इंग्लैंड का दक्षिण पेनाइन पर्वत इसका उदाहरण है।
  3. एक दिग्नत मोड़ : एक पार्श्व बार लंबवत होता है। वस्तुत अक्ष के सहारे एक ही पार्श्व का विकास होता है। उसे संरचनात्मक झुकाव भी कहते हैं। मध्यवर्ती ऑस्ट्रेलिया के पर्वत इस प्रकार के हैं।
  4. प्रतिवलन मोड़ : यह वह स्थिति है जिसमें दोनों ही पार्श्व एक ही दिशा में झुके नजर आते हैं। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब एक दिशा में अधिक दबाव का कार्य होता है। कश्मीर हिमालय का पीर पंजाल इस प्रकार का उदाहरण है।
  5. समनत वलन : वह स्थिति है, जिसमें दोनों पार्श्व लगभग समानांतर की स्थिति में होते हैं। दोनों का ढाल लगभग एक समान होता है। पाकिस्तान का कालाचिंता पर्वत इसका उदाहरण है।
  6. परिवलन वलन : जब किसी मोड़ के दोनों पार्श्व क्षैतिज अवस्था में होते हैं, तो उसे परिवलन कहा जाता है। यूनाइटेड किंगडम का कैरिक पर्वत इसका उदाहरण है।
  7. अतिक्षेप वलन : वह स्थिति जिसमें प्रतिवलन की एक भुजा टूटकर दूसरे में घुस जाती है। जैसे – कश्मीर की पीर पंजाल श्रंखला में ऐसे मोड़ पाए जाते हैं।
  8. ग्रीवा खण्ड : इस स्थलाकृति का विकास तब होता है जब अक्ष के सहारे चट्टानें टूट जाती हैं। इससे परिवलन का ऊपरी भाग आगे की ओर खिसक जाता हैगढ़वाल हिमालय में यह स्थिति देखने को मिलती है।
  9. समपनति एवं समभिनति : दो विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण अपनति एवं अभिनति के संयुक्त आकृति के रूप में होता है। जब किसी भौगोलिक प्रदेश में अनेक अपनति एवं अभिनति हो तथा स्थलाकृति के रूप में एक वृहत अपनति और वृहद अभिनति जैसा दिखाई देता है तो प्रथम को समापनति एवं दूसरे को समभिनति कहते हैं। इसे पंखा वलन भी कहा जाता है। दक्षिण स्कॉटलैंड का पर्वतीय प्रदेश, समपनति का एवं पाकिस्तान का पोतवार पर्वत समभिनति का उदाहरण है।
  10. खुला तथा बंद वलन : जब वलन की दोनों भुजाओं के बीच का कोण 90 डिग्री से अधिक तथा 180 डिग्री से कम हो, खुला वलन कहलाता है। यदि वलन की दो भुजाओं के बीच कोण 90 डिग्री से कम हो, तो वह बंद वलन कहलाता है।

तनाव अथवा खिंचाव से उत्पन्न भ्रंश स्थलाकृतियां

तनाव क्रिया से भी कई महत्वपूर्ण स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। ये भ्रंश स्थलाकृतियों के नाम से जाना जाता है। भ्रंश भू-संचलन की वह प्रक्रिया है, जिसमें तनाव के कारण चट्टानों में दरार, खिंचाव एवं विस्थापन की प्रवृत्ति होती है। यह विस्थापन क्षैतिज और लंबवत दोनों ही प्रकार का होता है। इस प्रक्रिया से उत्पन्न दरार रेखा को भ्रंश रेखा कहते हैं। भ्रंश रेखा का वह भाग जो अपरदन से प्रभावित होता है, भ्रंश कगार कहते हैं। यह एक प्रकार का स्थलाकृति है। भ्रंश रेखा के सहारे ही भ्रंश स्थलाकृतियों का विकास, तनाव एवं संपीड़न दोनों ही शक्तियों द्वारा होता है।

भ्रंश के प्रकार

क्षैतिज संचलन की दिशा एवं शक्ति की भिन्नता के आधार पर भ्रंश निम्न प्रकार के होते हैं।

  1. सामान्य भ्रंश : इसके अर्न्तगत विपरीत दिशा में तनाव बल के कारण चट्टानें विपरीत दिशा में खींची जाती है। यह भूपटल का विस्तार करता है। इसमें भ्रंश तल लम्बवत् तथा खड़ा ढ़ाल वाला होता है।
  2. उत्क्रम भ्रंश : इसकी उत्पत्ति अधिक संपीडन क्रिया के कारण होती है। अधिक संपीडन के कारण चट्टानें टूटकर एक-दूसरे के ऊपर चढ़ जाती हैं। इनमें भ्रंश तल के सहारे दरार रेखा की ओर दोनों भूखण्ड सरकते हैं।
  3. प्रतिअतिक्षेप वलन या अतिउत्क्रम भ्रंश : चट्टानें वृहद मात्रा में संपीडन के कारण एक-दूसरे के ऊपर चढ़े नजर आते हैं। अतिसंकुचन की स्थिति में न केवल चट्टानें टूटती है, वरण टूटने के बाद संतुलन समाप्त हो जाता है, इससे नवीन स्थलाकृतियों का विकास होता है। इसे संपीडन भ्रंश भी कहते हैं।
  4. ट्रांस करेंट भ्रंश : यह संरक्षक प्लेट की सीमा के सहारे निर्मित होता है। यहां भूपटल की चट्टानें केवल रगड़ खाती हैं। यहां नवीन स्थलाकृति का विकास नहीं होता है। यह मुख्यतः समुद्र की सतह पर उत्पन्न होते हैं। यह भ्रंश प्लेट की संरक्षी गतिक क्रिया से संबंधित है।
  5. सोपानी भ्रंश : जब किसी भूखंड में कई भ्रंशों का निर्माण इस तरह होता है कि सभी भ्रंश तल के ढ़ाल एक ही दिशा में हो, तो यह सोपानाकार हो जाता है, इसे सोपानी भ्रंश कहते हैं।

भ्रंश स्थलाकृतियां

जब किसी प्रदेश में एक से अधिक भ्रंश रेखा का प्रभाव पड़ता है, तो चार विशेष प्रकार की स्थलाकृतियां विकसित होती है। यह निम्न है।

  1. दरार घाटी : इसका विकास तब होता है, जब दो भ्रंश रेखा के मध्य का चट्टानी स्तंभ नीचे धंस जाता है। किनारों का चट्टानी स्तंभ यथावत रहता है। जैसे – राइन की घाटी, नर्मदा, ताप्ती, दामोदर घाटी भ्रंश घाटी है। इसे ग्राबेन भी कहा जाता है।
  2. रेम्प घाटी : वह है, जिसमें बीच का स्तंभ स्थिर रहता है तथा किनारे के दोनों स्तम्भ ऊपर उठ जाते हैं। जैसे भारत की ब्रह्मपुत्र नदी घाटी (असम की घाटी)
  3. ब्लॉक पर्वत : इसमें बीच का स्तंभ स्थिर रहता है, किनारे के स्तंभ धंस जाते हैं। जैसे – सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लॉक पर्वत, यूएसए का वासाच रेंज एवं सियरानेवादा आदि है।
  4. हार्स्ट पर्वत : इसमें किनारें के स्तंभ यथावत रहते हैं, बीच का स्तंभ उठ जाता है। जैसे यूरोप का हार्ज पर्वत।

वस्तुत: दरार घाटी और रेम्प घाटी देखने में एक जैसे होते हैं, इसी प्रकार ब्लॉक पर्वत एवं हार्स्ट एक जैसे होते हैं, लेकिन भू-संचलन की दृष्टि से अलग-अलग परिस्थितियों का परिणाम है। अतः भू-संचलन से संबंधित अनेक विशिष्ट स्थलाकृतियों का विकास होता है।

महत्वपूर्ण तथ्य

  1. भारत में कच्छ की खाड़ी के निकट लगभग 24 किमी उत्थित भूमि है, जिसे अल्ला का बांध कहा जाता है।
  2. मुंबई के डॉक यार्ड क्षेत्र के जलमग्न वन आदि अधोमुखी संचलन के उदहारण है।
  3. स्विट्ज़रलैंड का जरा पर्वत, सममित वलन का उदाहरण है।
  4. ब्रिटैन का दक्षिण पेनाइन पर्वत असममित वलन का उदाहरण है।
  5. ऑस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज एकदिगनत वलन का उदाहरण है।
  6. कश्मीर हिमालय की पीर पंजाल श्रेणी अधिवलन का उदाहरण है।
  7. पाकिस्तान का काल चिट्टा पर्वत समनत वलन का उदाहरण है।
  8. ब्रिटैन का कैरिक कैसल पर्वत परिवलन का उदाहरण है।
  9. यूरोप की राइन घाटी सोपानी भ्रंशों पर स्थित है।
  10. जॉर्डन की प्रसिद्व भ्रंश घाटी में मृत सागर स्थित है।
  11. अफ्रीका में न्यासा, रुडोल्फ, टांगानिका, अल्बर्ट और एडवर्ड झीलें भू-भ्रंश घाटी में स्थित है।
  12. कैलिफोर्निया क्षेत्र में स्थित मृत घाटी या डेड वैली, ऑस्ट्रेलिया की स्पेंसर खाड़ी, भारत की नर्मदा, ताप्ती और ऊपरी दामोदर नदी घाटियां भी भू-भ्रंश घाटी में स्थित है।
  13. असम की ब्रह्मपुत्र घाटी रैम्प घाटी का उदाहरण है।
  14. भारत का सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लैक फारेस्ट व वोस्जेज पर्वत, USA का वासाच रेंज, सिएरा नेवादा तथा पाकिस्तान का साल्ट रेंज ब्लॉक पर्वतों के उदाहरण है।
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