भारत में कई नदियां पाई जाती हैं। जिनके स्रोत क्षेत्र या तो हिमालय पर्वतीय क्षेत्र है या प्रायद्वीपीय पठार के पहाड़ी एवं पठारी क्षेत्र है। सामान्यता हिमालय प्रदेश से निकलने वाली नदियों का स्रोत हिमानी है। अतः यहां की नदियां सदावाहनी है। जबकि प्रायद्वीपीय पठार की नदियों का स्रोत वर्षा का जल या फिर पहाड़ी झील है। इस कारण पठार की नदियों में ग्रीष्म ऋतु में सामान्यतः जल का अभाव हो जाता है, क्योंकि देश की विभिन्न नदियों का स्त्रोत उद्गम स्थान भिन्न-भिन्न है।
इसी अनुरूप नदियों के अपवाह तंत्र, प्रतिरूप तथा अपवाह प्रदेश में भी विशिष्टता उत्पन्न हुई है। सामान्यतः भारत की नदियों को हिमालय प्रदेश की नदियां एवं प्रायद्वीपीय पठार की नदियों में विभाजित किया जाता है। लेकिन प्रादेशिक नियोजन की दृष्टि से नदियों के अपवाह क्षेत्र का निर्धारण आवश्यक है। इसी कारण अपवाह प्रदेश एवं जल विभाजक प्रबंधन की नीति अपनाई गई है।
अपवाह प्रदेश के अध्ययन में नदियों की प्रवृत्ति, जल-विभाजक की स्थिति एवं नदियों के अपवाह तंत्र के अध्ययन पर बल दिया जाता है। इसके साथ ही किसी भी अपवाह प्रदेश में नदियों के पड़ने वाले प्रभावों की भी विवेचना की जाती है। अतः कहा जाता है कि अपवाह प्रदेश न केवल नदियों की भौतिक अवस्थाओं का अध्ययन है, बल्कि प्रादेशिक नियोजन का भी एक प्रमुख आधार है। वर्तमान में नदी बेसिन नियोजन, जल विभाजक प्रबंध कार्यक्रम, जल अधिग्रहण क्षेत्र कार्यक्रम के द्वारा नदियों के विकास के साथ ही पर्यावरणीय विकास का कार्य भी किया जा रहा है।
जल प्रबंधन, बाढ़ नियंत्रण, सूखा प्रबंधन, मृदा अपरदन पर नियंत्रण, वानिकी कार्यक्रम, कई रोजगार उन्मुख कार्यक्रम अंतर संबंधित है। भारत में इन आधारों पर नियोजन की प्रक्रिया अपनाई जा रही हैं।
अपवाह प्रदेश एवं जल विभाजक
अपवाह प्रदेश एक प्राकृतिक भौगोलिक प्रदेश है, जिसमें एक निश्चित दिशा में अपवाह प्रतिरूप का विकास होता है। इसमें एक मुख्य नदी एवं उसकी सहायक नदियां निश्चित दिशा में अपवाहित होती हैं। इस प्रकार अपवाह प्रदेश के अंतर्गत मुख्य नदी एवं उसकी सहायक नदियों के समस्त अपवाह क्षेत्र को संबोधित किया जाता है। कोई अपवाह प्रदेश विशिष्ट एवं दूसरे अपवाह प्रदेश से भिन्न होता है। सामान्यतः दो अपवाह प्रदेश का सीमांकन उच्च पर्वतीय, पठारी क्षेत्र या उच्चभूमि से होता है। दो अपवाह प्रदेशों को अलग करने वाला उच्च क्षेत्र को जल विभाजक कहते हैं। अर्थात जल विभाजक वह उच्च भूमि है जिसके दोनों ओर दो अपवाह प्रदेश पाए जाते हैं। इस तरह जल विभाजक दो विपरीत दिशाओं में अपवाह प्रतिरूप को निर्धारित करता है।
भारत में 4 मुख्य जलविभाजक प्रदेश पाए जाते हैं।
- उत्तरी पर्वतीय जल विभाजक प्रदेश
- अरावली जल विभाजक प्रदेश
- सतपुड़ा, महादेव व मैकाल जल विभाजक प्रदेश
- पश्चिमी घाट पर्वतीय जल विभाजक प्रदेश
उपरोक्त जल विभाजकों के द्वारा चार प्रमुख अपवाह प्रदेशों का निर्धारण हुआ है।
- गंगा ब्रह्मपुत्र अपवाह प्रदेश
- सिंधु अपवाह प्रदेश
- प्रायद्वीपीय पठार का पूर्वी अपवाह प्रदेश
- प्रायद्वीपीय पठार का पश्चिमी अपवाह प्रदेश
जल विभाजक प्रदेश :
(1) उत्तरी पर्वतीय प्रदेश जल विभाजक :
पश्चिम से पूर्व की ओर लगभग 2400 किमी की लंबाई में विस्तृत, जो मुख्यतः हिमालय से निर्धारित होता है। इसकी औसत ऊंचाई 6000 मीटर है। और यह हिमालय के उत्तर चीन के अपवाह प्रदेश और दक्षिण गंगा ब्रह्मपुत्र एवं सिंधु अपवाह प्रदेश को अलग करती है। यहां हिमालय के उत्तर से निकलने वाली सिंधु, सतलज, कोसी (अरुण), ब्रह्मपुत्र व तीस्ता आदि नदियां हिमालय को काटकर गहरी घाटियों से होकर दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। ये नदियां पूर्वगामी नदियां हैं।
इसके अतिरिक्त अन्य नदियां, हिमालय के दक्षिण से निकलती है। इस जल विभाजक से निकलने वाली नदियां सिंधु अपवाह प्रदेश एवं गंगा ब्रह्मपुत्र प्रदेश के अंग है। इस जल विभाजक का पूर्वी विस्तार पटकोई, नागा, मणिपुर पहाड़ी मिजो पहाड़ी के रूप में लगभग 500 किमी की लंबाई में है। यह भारत के उत्तरी पूर्वी अपवाह प्रदेश को म्यांमार के अपवाह प्रदेश से अलग करता है।
(2) अरावली जल विभाजक :
भारत के उत्तरी पश्चिम भाग में अरावली पर्वत और उच्च भूमि के रूप में लगभग 1100 किमी की लंबाई में गुजरात से दिल्ली तक विस्तृत है, जिसकी औसत ऊंचाई लगभग 500 से 700 मीटर है। इसके पश्चिम में सिंधु अपवाह प्रदेश और पूर्व में गंगा ब्रह्मपुत्र अपवाह प्रदेश स्थित है।
अवशिष्ट पर्वत के रूप में यह जल विभाजक सिंधु के मैदान को गंगा के मैदान से पृथक करती है। इसके पश्चिम में लूनी, जोजरी, सूकरी, बांडी, रूपनारायण, माही, साबरमती तथा पूर्व में बनास नदी निकलती है। बनास चंबल की सहायक नदी है जबकि पश्चिम की ओर से निकलने वाली नदियों में साबरमती को छोड़कर सभी अंत:प्रवाह नदियां हैं। लूनी कच्छ के रण में विलुप्त हो जाती है।
(3) सतपुड़ा, महादेव, मैकल, कैमूर, जलविभाजक :
पश्चिम से पूर्व की ओर लगभग 1900 किमी की लंबाई में विस्तृत है। इसकी औसत ऊंचाई 900 से 1100 मीटर है। यह जल विभाजक गंगा ब्रह्मपुत्र अपवाह प्रदेश और प्रायद्वीपीय पठार के अपवाद प्रदेश को पृथक करती है। इस जल विभाजक के उत्तर से निकलने वाली नदियों का ढाल उत्तर की ओर है और गंगा एवं यमुना की सहायक है।
इसके दक्षिण से निकलने वाली नदियां पूर्वी अपवाह प्रदेश का अंग है, नर्मदा एवं ताप्ती अपवाद है, जो पश्चिम घाट को काटकर भ्रंश घाटी से होती हुई अरब सागर में गिरती है। उत्तर की ओर से निकलने वाली नदियों में चंबल, सोन, केन, बेतवा, सिंधु, फलगू, अजय एवं पुनपुन इत्यादि है। दक्षिण की और नर्मदा, ताप्ती, महानदी मुख्य नदी है। स्वर्णरेखा एवं दामोदर पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। सामान्यतः इस जल विभाजक प्रदेश को उत्तर के मैदानी भाग एवं दक्षिण के प्रायद्वीपीय पठार विभाजक क्षेत्र माना जाता है।
(4) पश्चिमी घाट जल विभाजक :
पश्चिमी तटवर्ती मैदान से संलग्न समानांतर उत्तर से दक्षिण लगभग 1600 किमी की लंबाई में विस्तृत है। इसकी औसत ऊंचाई 900 से 1100 मीटर है। यह प्रायद्वीपीय पठार के पूर्वी अपवाह प्रदेश और पश्चिमी अपवाह प्रदेश को पृथक करती है। इस जल विभाजक का पश्चिमी घाट तीव्र और खड़ा है। फलस्वरुप इसके पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियां तीव्र वेग वाली है, जो जलप्रपात की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
यहां पश्चिमी की ओर प्रवाहित होने वाली प्रमुख नदियां मांडवी, ज्वारी, भरतपूजा, पंपा व पेरियार है। पूर्व की ओर निकलने वाली नदियों में गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, बेगई तथा पेनेरू प्रमुख है। तट से संलग्न होने के कारण इस जल विभाजक से पश्चिम की ओर निकलने वाली नदियां की लंबाई कम है जबकि पूर्व से निकलने वाली नदियां अधिक लंबी और अपेक्षाकृत मंद ढाल से अपवाहित होती है अतः तटवर्ती क्षेत्र में डेल्टा के निर्माण के कारण चौड़े मैदान को विकसित करती है।
भारत का अपवाह प्रदेश :
भारत में हालांकि 4 मुख्य अपवाह प्रदेश पाये जाते हैैं, लेकिन कई स्वतंत्र और छोटे अपवाह प्रदेश का भी विकास हुआ है। मुख्य रूप से मणिपुर और मिजोरम की नदियां भारत के मुख्य अपवाह प्रदेश का अंग नहीं है, बल्कि म्यांमार के चिन्दबीन अपवाह प्रदेश के अंग है। मणिपुर की लोकतक बेसिन की नदियां चिन्दबीन की सहायक नदियां हैं। इसमें मणिपुरी, लोभांग, दलेश्वरी मुख्य हैं। मिजो की नदियां स्वतंत्र रूप से बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। राजस्थान की कई छोटी नदियां अंत: प्रवाह का विकास करती हैं। ऐसी नदियां या तो झील में गिरती हैं या फिर मरुस्थल में विलुप्त हो जाती है।
सांभर झील में गिरने वाली महत्वपूर्ण नदी रूपनारायण हैं। लूनी एवं सहायक नदियां जोजड़ी, सुकरी, बाण्डी कच्छ के रन में विलुप्त हो जाती हैं। अतः प्रवाह का विकास कश्मीर एवं लद्दाख के क्षेत्रों में भी हुआ है। इस तरह भारत के मुख्य अपवाह प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य छोटे व स्वतंत्र अपवाह का भी विकास हुआ है। लेकिन सभी महत्वपूर्ण नदियां मुख्य रूप से अपवाह प्रदेश के ही अंग है। मुख्य अपवाह प्रदेश निम्न हैं –
(1) गंगा ब्रह्मपुत्र अपवाह प्रदेश :
गंगा ब्रह्मपुत्र अपवाह प्रदेश का निर्धारण गंगा (2525 किमी) ब्रह्मापुत्र (2580 किमी) व सहायक नदियों द्वारा हुआ है। गंगा व ब्रह्मपुत्र सम्मिलित रूप से डेल्टा का निर्माण करते हैं। इस अपवाह प्रदेश का निर्धारण उत्तर में हिमालय जल विभाजक पश्चिम में अरावली जल विभाजक दक्षिण में सतपुड़ा, महादेव, मैकाल जलविभाजक एवं पूर्व में पटकोई व नागा जलविभाजक के द्वारा हुआ है।
यह प्रदेश हिमालय से निकलने वाली नदियां एवं पठार से निकलने वाली नदियों के मिलने से बना है। गंगा में उत्तर से मिलने वाली नदियों में रामगंगा, गोमती, घाघरा, कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक व महानंदा प्रमुख हैं। गंगा की प्रमुख सहायक नदियां नदी यमुना (1375 किमी) है जो दाएं किनारे से इलाहाबाद के पास गंगा से मिलती है। यमुना एवं गंगा में पठार से मिलने वाली नदियों में चंबल, केन, सिंध, सोन, पुनपुन, बेतवा व अजय नदियां प्रमुख हैं। ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी में दिहांग, दिवांग, कपीली, तिस्ता, लोहित एवं सुबरनसिरी प्रमुख हैं।
यह अपवाह प्रदेश उर्वर जलोढ़ मिट्टी का क्षेत्र है और मध्यवर्ती मैदान का वृहद क्षेत्र इसके अंतर्गत आता है। यहां की नदियां सदावाहनी है अतः इस क्षेत्र को वर्षभर जल की प्राप्ति होती है लेकिन वर्षा के दिनों में यह क्षेत्र बाढ़ ग्रसित हो जाता है। इसका कारण मध्यवर्ती क्षेत्रों में नदियों का मार्ग परिवर्तन करना भी है। इस अपवाह प्रदेश की नदियां भिन्न-भिन्न अपवाह प्रतिरूप का विकास करती हैं। हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्षाकार अपवाह तथा उत्तर मैदानी क्षेत्रों में समानांतर अपवाह तथा मध्य मैदानी क्षेत्र में विसर्पाकार अपवाह तंत्र जबकि मुहाने के पास डेल्टाई अपवाह का विकास करती हैं। इस प्रदेश की नदियां उर्वर मैदान एवं कृषि के लिए विशेष महत्व रखती हैं।
भारत के कृषि अर्थव्यवस्था का इसे आधार कहा जा सकता है लेकिन यह क्षेत्र बाढ़ की समस्या के साथ ही सूखा से भी प्रभावित हो जाता है। अतः उचित जल प्रबंधन आवश्यक है। पर्वतीय क्षेत्रों में एवं दक्षिण के संलग्न पठारी क्षेत्रों में नदियां जलप्रपात का निर्माण करती हैं। जहां जल विद्युत का विकास किया जा सकता है। मध्यवर्ती क्षेत्र में मैदानी भाग होने के कारण जलाशय का निर्माण संभव नहीं है।
इस क्षेत्र में कई नदी घाटी परियोजनाएं प्रारंभ की गई है। इनमें कोसी परियोजना, गंडक परियोजना व रिहंद परियोजना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन परियोजनाओं से जल विद्युत व सिंचाई की जाती है। इस क्षेत्र में हरित क्रांति का विस्तार व्यापक रूप से नहीं हो पाया है लेकिन सोन कमांड क्षेत्र, कोसी कमांड व गंडक कमांड क्षेत्र में नेहरू के विकास के कारण हरित क्रांति सफल रही है। लेकिन अन्य क्षेत्र तुलनात्मक रूप से कृषि में पिछड़े हैं।
(2) सिंधु अपवाह प्रदेश :
यह सिंधु (2800 किमी) एवं सहायक नदियों से निर्मित अपवाह प्रदेश है। जिसका निर्धारण उत्तर एवं उत्तर पूर्व में हिमालय पर्वतीय जल विभाजक द्वारा दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व में अरावली जल विभाजक द्वारा हुआ है। सिंधु की प्रमुख सहायक नदियां सतलज, व्यास, रावी, चिनाव एवं झेलम है। इस अपवाह प्रदेश का अधिकांश भाग पाकिस्तान में है। भारत में सतलज, व्यास, एवं रावी नदियों का अपवाह क्षेत्र आता है। यह प्रदेश समानांतर अपवाह का क्षेत्र है, जिसमें सिंधु की सभी सहायक नदियां लगभग समानांतर रूप में अपवाहित होती हैं।
भारत में यह अपवाह प्रदेश हरित क्रांति का प्रमुख क्षेत्र है। यह प्रदेश उर्वर मिट्टी का क्षेत्र है, लेकिन यहां हरित क्रांति की सफलता का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र में संस्थागत सुधार एवं संरचनात्मक सुविधाओं का उपयोग है। यह अपवाह प्रदेश नदियों के दोआब के लिए जाना जाता है। यहां सतलज व व्यास के मध्य विस्त दोआब, व्यास व रावी के मध्य वारी दोआब, रावी और चिनाव के मध्य रचना दोआब, चिनाव और झेलम के मध्य चाज दोआब है। इनमें विस्त व वारी दोआब की स्थिति भारत में है। इस प्रदेश के विकास का एक प्रमुख कारण भाखड़ा नांगल परियोजना भी है। इसके अतिरिक्त कई नदी घाटी परियोजनाएं भी कार्यरत है।
(3) पूर्वी अपवाह प्रदेश :
प्रायद्वीपीय भारत का पूर्वी अपवाह प्रदेश का निर्धारण उत्तर में सतपुड़ा, महादेव व मैकाल जलविभाजक द्वारा तथा पश्चिम में पश्चिमी घाट पर्वतीय जल विभाजक द्वारा होता है। इस प्रदेश को एक वृहद अपवाह प्रदेश के अंतर्गत रखा गया है, लेकिन यहां कई नदियों द्वारा स्वतंत्र अपवाह प्रदेश का विकास किया गया है। इनमें महानदी अपवाह प्रदेश, गोदावरी अपवाह प्रदेश कृष्णा अपवाह प्रदेश व कावेरी अपवाह प्रदेश प्रमुख हैं। गोदावरी यहां की सबसे बड़ी नदी है। जिसकी लंबाई 1465 किमी है। इसके बाद क्रमस: कृष्णा 1400 किमी, महानदी 857 किमी व कावेरी 805 किमी प्रमुख है। इस प्रदेश की नदियों का स्त्रोत वर्षा का जल या पहाड़ी झील है।
अतः सामान्य रूप से ग्रीष्म काल में पानी का अभाव पाया जाता हैै। इस प्रदेश की कई छोटी नदियां ग्रीष्म काल में लगभग शुष्क हो जाती है। इस कारण यह प्रदेश ग्रीष्म काल में जल अभाव से ग्रसित हो जाता है। इसका प्रभाव नदी विवाद जैसे राजनीतिक समस्या के रूप में सामने आता है। इस प्रदेश की नदियों का सामान्य ढाल दक्षिण पूर्व की ओर है, यहां की प्राय: सभी नदियां ढाल का अनुसरण करती हैं अर्थात अनुगामी नदियां हैं। इस प्रदेश की नदियां वृक्षाकार, डेल्टाई अपवाह प्रतिरूप का विकास करती हैं।
हालांकि अपवाह प्रतिरूप की दृष्टि से यह प्रदेश पर्याप्त विविधता का क्षेत्र है। यहां अरीय अपवाह, आयताकार अपवाह का भी विकास हुआ है। लेकिन उच्च क्षेत्रों में या उद्गम के क्षेत्रों में सभी नदियां अनुगामी प्रकार की है, जबकि मुहाने के पास डेल्टाई अपवाह प्रतिरूप का विकास करती है। इस अपवाह प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र में जलप्रपात पाया जाता है। जिस पर कई जल विद्युत परियोजनाएं प्रारंभ की गई हैं।
विभिन्न नदी घाटी परियोजनाओं के विकास के कारण कृष्णा, कावेरी, गोदावरी व महानदी कमांड क्षेत्र में हरित क्रांति के चरों का विस्तार हुआ है। उत्तर-पश्चिम भारत के अतिरिक्त हरित क्रांति को इन्हींं क्षेत्रों में सर्वाधिक सफलता मिली है। यह क्षेत्र भारत का वृृृहद प्रदेश हैै। अतः इस क्षेत्र की प्रमुख समस्याएं जलाभाव एवं सूखा, नदी जल विवाद, विद्युत ऊर्जा की कमी को दूर करना आवश्यक है। इसके लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता व राज्यों की आपसी सहमति आवश्यक है।
(4) पश्चिमी अपवाह प्रदेश :
यह भारत का सबसे छोटा अपवाह प्रदेश है। जिसमें सैकड़ों नदियां स्वतंत्र रूप से अपवाहित होती है। इस अपवाह प्रदेश का निर्धारण पूर्व में पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर-पूर्व में सतपुड़ा, महादेव, एवं मैकाल पर्वतीय क्षेत्र से होता है। यहां की अधिकांश नदियां 30 से 40 किमी लंबी है, और यह सभी नदियां पश्चिमी घाट से पश्चिम ढाल से निकलती है। और समानांतर रूप से प्रभावित होते हुए स्वतंत्र रूप से अरब सागर में गिरती है। यहां की सभी नदियां सामानांतर अपवाह बनाती हैं और मुहाने पर एस्चुरी (ज्वारदनमुख) का निर्माण करते हैं।
नर्मदा और ताप्ती 2 बड़ी नदियां अपवाद है, जो पश्चिम घाट के पूर्वी क्षेत्र से महादेव एवं मैकाल जल विभाजक से निकलती है और भ्रंशघाटी से प्रभावित होती हुई, पश्चिमी घाट पर्वत को काटकर अरब सागर में गिरती है। लेकिन ये भी एस्चुरी का निर्माण करती हैं। इसमें नर्मदा की लंबाई 1300 किमी और ताप्ती की लंबाई 725 किमी है। इस प्रदेश की नदियां तीव्र वेग से तीव्र ढाल से प्रवाहित होती है।
अतः यहां जलप्रपातों की अधिकता है, जिसका उपयोग जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में किया गया है। इस प्रदेश में ही भारत का सर्वाधिक जल विद्युत का उत्पादन होता है। देश की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना महात्मागांधी जल विद्युत परियोजना सारावती या श्रावस्ती नदी पर कर्नाटक में है। कर्नाटक वर्तमान में जलविद्युत उत्पादन में प्रथम स्थान पर है। इस प्रदेश की प्रमुख नदियों में गोवा की मांडवी, जुवारी तथा केरल की भरतपूजा, फम्पि एवं पेरियार इत्यादि।
स्पष्टत: विभिन्न अपवाह प्रदेशों का निर्धारण जल विभाजकों द्वारा हुआ है और नदियों के उद्गम स्रोत एवं अपवाह क्षेत्र की विशेषताएं नदियों के आर्थिक महत्व को निर्धारित करती हैं। यह भी स्पष्ट होता है कि अपवाह प्रदेश एक भौगोलिक प्राकृतिक प्रदेश होता है। अतः क्षेत्रीय या प्रादेशिक नियोजन के दृष्टि से भी यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रादेशिक विकास के लिए बड़े एवं छोटे अपवाह प्रदेशों का निर्धारण करना आवश्यक है, ताकि नदी बेसिन प्रदेश को नियोजित नियोजन की इकाई के रूप में उपयोग किया जा सके।
मुख्य अपवाह के क्षेत्र :
- गंगा अपवाह क्षेत्र
- सिंधु अपवाह क्षेत्र
- कृष्णा अपवाह क्षेत्र
- नर्मदा अपवाह क्षेत्र
- ब्रह्मापुत्र अपवाह क्षेत्र
- गोदावरी अपवाह क्षेत्र एवं
- महानदी अपवाह क्षेत्र इत्यादि।