प्राकृतिक वनस्पति का अर्थ
प्राकृतिक वनस्पति पेड़-पौधों का पारिस्थितिक तंत्र है, जो समस्त विश्व को प्रकृति का उपहार है, अतः इसे हरा सोना कहा जाता है। ये पर्वत, वर्षा, पवनों, तापमान, नदियों एवं अनाच्छादन के कारकों को नियंत्रित व अनुशासित करती है, अतः इसे किसी प्रदेश की जलवायु का वास्तविक सूचक माना जाता है।
भारत में विविध प्रकार की वनस्पति पायी जाती हैं। यहां विषुवतीय वर्षा वन से लेकर ध्रुवीय अल्पाइन वन तक पाए जाते हैं। वनस्पतिशास्त्री के अनुसार, यहां देशी और विदेशी दोनों ही मूल की वनस्पति पायी जाती हैं। भारत में पाए जाने वाले पौधों का 40% विदेशी है, जो साइनों तिब्बती क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। इस वनस्पति को बोरियल वनस्पति जात कहते हैं। प्रायद्वीपीय भारत में स्थानीय मूल के वनस्पति पाए जाते हैं, जबकि विशाल मैदान, राजस्थान के रेगिस्तान एवं उत्तर पूर्वी भारत में विदेशी जात की वनस्पति पाई जाती है। अतः भारतीय वनस्पति में पर्याप्त विविधता पाई जाती है। पारिस्थितिकी वैज्ञानिक के अनुसार भारत में 75000 प्रकार की वनस्पतियों का विकास हुआ है। अतः भारत वनस्पति संसाधन में संपन्न है।
प्राकृतिक वनस्पति को प्रभावित करने वाले कारक
प्राकृतिक वनस्पति को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्न हैं।
- मृदा प्रकार : भारत में विविध प्रकार की मृदाएं पायी जाती है, जो विविध वनस्पति के लिए अनुकूल होती है। यहां लगभग विश्व की सभी मृदाएं पाई जाती है।
- तापमान : यहां विभिन्न प्रदेशों के तापमान में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। कुछ प्रदेश में तापमान 0 डिग्री सेल्सियस से कम तथा कुछ प्रदेश में तापमान 40 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर रहता है। तापमान में इस विभिन्नता का वनस्पतियों पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है।
- वर्षा : यहां होने वाली मानसूनी वर्षा में पर्याप्त प्रादेशिक भिन्नता पायी जाती है। 200 सेंमी, 100 सेंमी, 50 सेंमी एवं 10 सेंमी की वर्षा रेखा भारत को वनस्पति प्रदेशों में भी विभाजित करती है।
- अक्षांशीय स्थिति : भारत का अक्षांशीय विस्तार विषुवत रेखा के नजदीक से उपोषण प्रदेश तक है। यह उत्तर से दक्षिण 3214 किमी एवं पूर्व से पश्चिम 2933 किमी विस्तृत है। स्थलीय सीमा 15,200 किमी एवं मुख्य स्थल की समुद्री सीमा 6100 किमी है। अतः यहां की जलवायु महाद्वीपीय एवं समुद्री दोनों से प्रभावित है। वैसे यहां की वनस्पति पर महाद्वीपीय परिस्थितियों का अधिक प्रभाव है, क्योंकि आंतरिक भाग की दूरी समुद्र से अधिक है, जबकि तटीय क्षेत्रों की वनस्पति पर समुद्री वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा –
- वाष्पीकरण की मात्रा
- ऊंचाई एवं
- ढलान की अभिमुख्ता का भी वनस्पतियों की विविधता पर प्रभाव पड़ा है।
वनस्पति का वर्गीकरण
ऊपर वर्णित कारकों के आधार पर भारतीय वनस्पतियों का वर्गीकरण कई आधार पर किया जा सकता है।
(A) वृक्षों की पत्तियों के आधार पर :
- उष्णकटिबंधीय वन : यह कुल वनों का 93 प्रतिशत है। उसमें मानसूनी वन 80 प्रतिशत, सदाबहार वन 12 प्रतिशत एवं अन्य वन 1 प्रतिशत है।
- शीतोष्ण वन : कुल वनों का 7 प्रतिशत है। उसमें कोणधारी वन 3 प्रतिशत एवं चौड़ी पत्ती वाले वन 4 प्रतिशत है।
(B) वर्षा के आधार पर :
- 200 सेंमी से अधिक वर्षा – सदाबहार वन
- 100-200 सेंमी वर्षा – मानसूनी वन
- 50-100 सेंमी वर्षा – शुष्क पतझड़ वन
- 50 सेंमी से कम वर्षा – आर्द्र मरुस्थलीय वन
(C) भौगोलिक आधार पर :
भौगोलिक आधार (जलवायु एवं भौतिक दशाओं) पर भारतीय वनस्पति को निम्न 7 वनस्पति प्रकारों में विभाजित करते हैं।
- उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन
- ऊष्ण मानसूनी या पतझड़ वन
- ऊष्ण झाड़ीनुमा एवं स्टेपी वन
- ऊष्ण शुष्क कटीली वन
- उपोष्ण पर्वतीय वन
- तटीय बन
- हिमालय प्रदेश के वन
(1) उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन :
इस प्रकार के वन उस प्रदेश में पाए जाते हैं, जहां वार्षिक औसत वर्षा 200 सेंमी या अधिक, तापमान औसतन 24 डिग्री सेल्सियस से अधिक तथा वार्षिक आर्द्रता 70 प्रतिशत से अधिक रहती है। इसके 4 प्रमुख क्षेत्र है।
- पश्चिमी घाट एवं मालाबार प्रदेश (जहां 500 से 1400 मीटर की ऊंचाई के मध्य)
- अंडमान निकोबार एवं लक्ष्यद्वीप
- उत्तर-पूर्वी भारत में 200 सेंमी के वर्षा के क्षेत्र एवं अधिक से अधिक 1100 मीटर की ऊंचाई तक
- हिमालय की तराई क्षेत्र में कुमायूं तक (हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर के तराई को छोड़कर)
यहां वृक्षों की औसत ऊंचाई 30-60 मीटर तक होती है। वृक्ष समानांतर, लंबे, चौड़ी पत्ती वाले एवं सघन वन होते हैं। लकड़ी कड़ी होती है। वृक्षों में प्रतिस्पर्धा के कारण सतह पर छोटी वनस्पतियों का विकास नहीं के बराबर होता है। यहां लताएं पाई जाती हैं, जो ऊपर उठने की प्रवृत्ति रखती है। अबोनी, आयरन वुड, रबर, महोगनी एवं नारियल जैसे वृक्षों की बहुलता होती है। तेलताड़ के वृक्ष भी अंडमान निकोबार द्वीप समूह एवं उत्तर पूर्व भारत में जंगली केले के वृक्ष देखने को मिलते हैं। औपनिवेशिक काल के समय से ही उस प्रदेश में रबर की बागानी कृषि की गई है।
हाल के वर्षों में रबड़ के अंतर्गत बागानी कृषि की वृहद क्षेत्रफल हो गया है। रबड़ की कृषि मुख्यत: अंडमान निकोबार, उत्तर पूर्व भारत में मुख्यतः त्रिपुरा एवं मालाबार प्रदेश में केरल में विस्तृत है। इस वन प्रदेश की अधिकतर लकड़ियां आर्थिक दृष्टि से विशेष महत्व नहीं रखती है। उसका एक प्रमुख कारण वृक्षों के परस्पर मिले रूप होने अर्थात एक विशेष क्षेत्र में विविध प्रकार के वृक्ष की बहुलता होने से उन्हें काटने में असुविधा का सामना करना पड़ता है। अतः आर्थिक दोहन नहीं के बराबर होती है। जबकि जनजातियों के लिए जलावन का प्रमुख साधन है। आर्थिक दृष्टि से रबर एवं तेलताड़ के वृक्ष महत्वपूर्ण है। हालांकि वर्तमान में वन प्रदेश अधिक आर्थिक महत्व नहीं रखता, लेकिन यह संसधनात्मक संभावनाओं का क्षेत्र है। वर्तमान समय में भारत विश्व का प्रमुख रबर उत्पादक देश है। अतः आने वाले वर्षों में इसके उत्पादन में वृद्धि की संभावना है।
(2) उष्ण मानसूनी पतझड़ वन :
यह वन 100-200 सेंमी वर्षा वाले प्रदेशों में पाए जाते हैं। औसत वार्षिक तापमान 26-27 डिग्री सेल्सियस एवं औसत वार्षिक आर्द्रता 60-80 प्रतिशत होती है। इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक के वृहद क्षेत्र आते हैं। इस प्रदेश में वृक्षों की औसत ऊंचाई 20-40 मीटर के मध्य होती है। यह चौड़े पत्ते वाले वृक्षों का वन है, लेकिन ग्रीष्म काल में अधिक ताप एवं शुष्कता के कारण मृदा की नमी में गिरावट आ जाती है। अतः आधिक वाष्पोत्सर्जन एवं शुष्कता से बचने के लिए वृक्षों की पत्तियां गिरने लगती हैं। ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में पतझड़ का आगमन होता है, लेकिन मानसूनी वर्षा के आते ही पत्तियां निकलने लगती हैं, और हरे भरे वातावरण का निर्माण हो जाता है। यहां विविध प्रकार के वृक्ष पाए जाते हैं, जो भारतीय वनों में आर्थिक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं। यहां पायी जाने वाले वृक्षों को दो भागों वर्गों में रखते हैं।
- प्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण वृक्ष
- अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण वृक्ष
- प्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण वृक्ष : प्रत्यक्ष महत्व के वृक्षों में साल, सागवान, शीशम, चंदन, महुआ, खैर, केंदु, बांस और सवाई घास को रखा जाता है। भारत में सर्वाधिक लकड़ी कटाई इसी वन प्रदेश में होती है। लकड़ी काटने वाले देशों में भारत का स्थान विश्व में चौथा है। ब्राजील का पहला स्थान है। इस प्रदेश की लकड़ी की मांग निर्माण उद्योग में अधिक है। सागवान सर्वाधिक मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं। पतझड़ वनों में पाए जाने वाले वृक्षों में चंदन सर्वाधिक कीमती है। कर्नाटक में चंदन के वृक्ष सबसे ज्यादा पाए जाते हैं। चंदन की लकड़ी का उपयोग धार्मिक कार्यों, सौंदर्य प्रसाधन एवं सजावट सामग्री के निर्माण में होता है। कर्नाटक में चंदन लकड़ी पर आधारित काष्ठ शिल्प उद्योग वृहद स्तर पर विकसित है। यहां पाए जाने वाले महुआ के फलों का उपयोग जनजातियों द्वारा देशी शराब के निर्माण में किया जाता है।
खैर का उपयोग औषधि, रसायन एवं पान के साथ खाने में किया जाता है। केन्दु के पत्तों पर बीड़ी उद्योग आधारित है। केन्दु का सर्वाधिक क्षेत्रफल मध्य प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड में है।बांस एवं सवई घास का उपयोग कागज उद्योग में किया जाता है। भारतीय कागज उद्योग को 80 प्रतिशत कच्चा माल इन्हें दो स्रोतों से प्राप्त होता है। बांस का सर्वाधिक क्षेत्रफल कर्नाटक राज्य में, उसके बाद असम एवं मेघालय राज्य में है। सवाई घास का सर्वाधिक क्षेत्रफल मध्य प्रदेश में है। तराई भारत के वृहद क्षेत्र में भी सवई घास पायी जाती है।
- अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण वृक्ष : यहां पाए जाने वाले वृक्षों का अप्रत्यक्ष संसाधनात्मक महत्व भी है। यहां पाए जाने वाले कुछ विशेष वृक्ष रेशम के कीड़े एवं लाह या लाख के कीड़े के पालने के लिए उपयोगी हैं। रेशम के कीड़ों का पालन मुख्यतः मलवरी के वृक्षों पर होता है। लाख के कीड़ों का पालन पलाश, बबूल, पीपल एवं बरगद के वृक्ष पर होता है। अतः कच्चा रेशम एवं लाख उद्योग इस वन प्रदेश पर ही निर्भर है। भारत कच्चे रेशम के उत्पादन में विश्व में दूसरे स्थान पर है। कच्चे रेशम का सर्वाधिक उत्पादन कर्नाटक में और लाख का झारखंड में होता है। इन वृक्षों के अतिरिक्त बेर, कटहल, जामुन एवं आम जैसे वृक्ष पाए जाते हैं जो फल प्रदान करते हैं। अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि पतझड़ वनीय प्रदेश में अनेक वृक्षों की विविधता तो है ही, साथ ही संसाधनात्मक दृष्टि से भी वे महत्वपूर्ण है।
(3) उष्ण झाड़ीनुमा एवं स्टेपी वन :
ट्रिवार्था के अनुसार इस प्रकार की वनस्पति का विकास 50 से 100 सेंमी वर्षा वाले प्रदेशों के मध्य हुआ है। उसके अंतर्गत मुख्य रूप से पश्चिमी मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, हरियाणा, गुजरात एवं दक्षिणी पठार के मध्यवर्ती भाग और तमिलनाडु के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र आते हैं। यद्यपि इन प्रदेशों में वर्षा की मात्रा कम है, फिर भी पतझड़ जैसी स्थिति उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि वृक्ष की जड़ों में वृद्धि की प्रवृत्ति होती है, जो गहरी जमीन से नमी ग्रहण करती है। ये वृक्ष वाष्पोत्सर्जन को रोकने की प्रवृत्ति रखता है, जिसके कारण पत्ते नुकीले हो जाते हैं, तथा कभी-कभी कंटीली वनस्पति वृक्ष भी विकसित हो जाते हैं। इस प्रदेश में वृक्षों की लंबाई 6 से 9 मीटर के मध्य होती है। यहां नम एवं कठोर घास के गहन वन पाए जाते हैं। इसे ही ट्रिवार्था ने स्कटेपी वन कहा है। यह पूर्वी राजस्थान की विशेषता है। पुनः इस प्रदेश में बबूल और खजूर के वृक्ष की बहुलता होती है।
वर्तमान समय में, ये वनीय प्रदेश अत्यंत ही फैले हुए हैं, लेकिन इनका आर्थिक उपयोग नहीं के बराबर हो रहा है। लेकिन आने वाले वर्षों में इस प्रदेश की आर्थिक उपयोगिता में वृद्धि संभव है। जैसे बबूल के वृक्ष लाह के कीड़ों को पालने में सहायक हो सकते हैं। अतः यहां एक राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है।
(4) उष्ण शुष्क कटीली वन प्रदेश :
इस प्रकार के वन प्रदेश वैसे क्षेत्रों में है, जहां वार्षिक वर्षा 50 सेंमी है। यहां वृक्ष की ऊंचाई 6 से 9 मीटर होती है। यह वृक्ष जेरोफाइट (Xerophyte) समूह के हैं। यहां पाए जाने वाले वृक्षों में खजूर, बबूल व नागफनी जैसे वनस्पति के विविध प्रकारों की प्रधानता रहती है। यह पश्चिमी राजस्थान, उत्तर पूर्व गुजरात, लद्दाख के पठार तथा प्रायद्वीपीय पठार के वृष्टि छाया प्रदेश में पायी जाती है।
वर्तमान समय में ये वनीय प्रदेश लगभग वन विहीन है और कोई आर्थिक महत्व नहीं है। लेकिन आने वाले वर्षों में बबूल, खजूर व नागफनी से विविध प्रकार का आर्थिक उपयोग संभव हो सकेगा। बबूल पर लाख के कीड़ों का पालन, खजूर से गुड़ या चीनी तथा नागफनी का उपयोग औषधि, सजावट एवं सौंदर्यकरण के क्षेत्र में हो सकता है। अतः यह वनस्पति प्रदेश भी आर्थिक संभावनाओं को संजोए रखता है।
(5) उपोषण पर्वतीय वनस्पति :
यह वनस्पति पठारी भारत की उच्च भूमि की विशेषता है। ऊंचाई के कारण उष्ण कटिबंध में ही उपोषण वनस्पति का विकास हो गया है। उसे दो वर्गों में बांटा गया है।
- आर्द्र उपोषण पर्वतीय वनस्पति
- आर्द्र शीतोष्ण पर्वतीय वनस्पति
इस तरह इस वनस्पति प्रदेश की दोनों ही वनस्पति आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी समस्या उसकी अधिक ऊंचाई पर अवस्थित होना है। अतः आर्थिक दोहन में कठिनाई आ रही है। इसलिए पर्याप्त आर्थिक दोहन नहीं हो पा रहा है।
(6) तटीय वन :
भारत की तट रखा करीब 7500 किलोमीटर लंबी है जिस पर समुद्री वातावरण का व्यापक प्रभाव पड़ा है। परिणाम तो उस तटीय प्रदेश में विशिष्ट प्रकार की वनस्पतियों का विकास हुआ है तटीय वनस्पतियों को 3 वर्गों में बांटा जा सकता है।
- मैंग्रोव वन या सुन्दरी वन
- ताड़ का वन
- नारियल के वन
- मैंग्रोव वन या सुंदर वन : इसे ज्वारीय वन वे कहते हैं। इनका विकास गंगा ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी व कृष्णा नदियों के डेल्टा प्रदेश में हुआ है। उच्च ज्वार के समय ये प्रदेश जलमग्न हो जाते हैं और वृहद क्षेत्र में दलदली और अधिक नमी युक्त वातावरण का निर्माण हो जाता है। ये परिस्थितियां मैनग्रोव या सुंदरी वृक्षों के लिए अनुकूल होती हैं, क्योंकि यहां सुंदरी वालों की ही प्रधानता है। अतः इसे सुंदरी वन कहते हैं। यहां दूसरा प्रमुख वृक्ष बेत है। वृक्षों की औसत ऊंचाई 30 मीटर तक होती है। मैंग्रोव के वृक्ष तटीय परिस्थितिक तंत्र है, ये तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण को संतुलित बनाए रखते है। तटीय क्षेत्र में मिट्टी कटाव को रोकते हैं तथा जैवविविधता के क्षेत्र हैं। इसका उपयोग औषधि निर्माण, सौंदर्य प्रसाधन के निर्माण तथा मछलियों के चारे के रूप में होता है। सुनामी के प्रभाव को कम करने के लिए भी मैंग्रोव लगाया जा रहा है।
- ताड़ के वन : ये तमिलनाडु के तटवर्ती प्रदेश में पाए जाते हैं। तमिलनाडु के तटवर्ती प्रदेश में वर्षा कम होती है, जिससे नारियल या सुंदरी वृक्ष विकसित नहीं हो पाते जबकि ताड़ के लिए यह अनुकूल वातावरण का क्षेत्र है।
- नारियल वन : पश्चिम तटवर्ती प्रदेश में नारियल के वृक्षों की प्रधानता है। इसके लिए अधिक वर्षा और लंबी अवधि तक वर्षा की आवश्यकता है। पश्चिम तटवर्ती प्रदेश में केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के तटवर्ती प्रदेश में अनुकूल परिस्थितियों के कारण नारियल के वृक्षों का सघन विकास हुआ है। दक्षिणी केरल के लगभग 25 प्रतिशत भूमि पर नारियल के वन पाए जाते हैं।
(7) हिमालय वनीय प्रदेश :
- पूर्वी हिमालय प्रदेश की वनस्पति
- पश्चिमी हिमालय प्रदेश की वनस्पति
पूर्वी हिमालय के वन : उत्तर-पूर्वी राज्यों के पर्वतीय ढालो पर विस्तृत है। यहां वार्षिक औसत वर्षा 200 सेंमी से अधिक होती है, लेकिन यहां भी ऊंचाई के अनुसार वनस्पति के प्रकार में भिन्नता बनती है।
- 6000 मीटर – हिमाच्छादित वन
- 4500 मीटर – अल्पाइन वन (सिल्वरफर)
- 3500 मीटर – टैगा (देवदार, चीड़)
- 1070 मीटर – शीतोष्ण वन (ओक, देवदार)
- 1070 मीटर से नीचे – उष्ण सदाबहार एवं पतझड़ वन का मिश्रण (साल, सागवान, रोजवुड, महोगनी)
- 6000 मीटर – हिमाच्छादित क्षेत्र
- 4500 मीटर – अल्पाइन वन (सिल्वरफर)
- 3000 मीटर – टैगा वन (देवदार, चीड़)
- 1800 मीटर – समशीतोष्ण कोणधारी वन (चीड़, देवदार)
- 900 मीटर – चीड़ एवं पर्णपाती वन (साल, सागवान)
- 900 मीटर से नीचे – अर्ध मरुस्थलीय शुष्क वन (झाड़ियां, छोटे वृक्ष)
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