भारत में वनों का प्रतिशत क्षेत्रफल 24.39 प्रतिशत (2021 के अनुसार) है। भारत में विश्व के कुल वन का 1.85 प्रतिशत वन पाया जाता है, जबकि विश्व के समस्त क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत एवं जनसंख्या का 17 प्रतिशत भारत में पाया जाता है। इस तथ्य से स्पष्ट है कि जनसंख्या के अनुसार, भारत में वनों का संतुलन नहीं पाया जाता है। पुनः भारत में प्रति व्यक्ति वन की उपलब्धता 1981 में 0.11 हेक्टेयर थी, जो 1997 में 0.07 हो गई है। वन मंत्रालय के नवीनतम रिपोर्ट (2021) के अनुसार, देश के कुल क्षेत्रफल का 24.39 प्रतिशत भाग वन के अंतर्गत आता है। जबकि सघन वन का क्षेत्रफल मात्र 12.37 प्रतिशत है।
राष्ट्रीय वन नीति 1952 के अनुसार भारत के 33 प्रतिशत क्षेत्रफल में वन होना आवश्यक है। वन नीति के अनुसार भारत के पर्वतीय एवं पठारी क्षेत्र के 7 प्रतिशत एवं मैदानी क्षेत्र के 20 प्रतिशत भाग पर वन होना आवश्यक है। लेकिन वर्तमान समय में कुछ ही राज्यों में यह संतुलन पाया जाता है। अनेक ऐसे मैदानी राज्य है, जो लगभग वन विहीन है।
भारत में वनों के वितरण की दृष्टि से 3 प्रदेश में बांट सकते हैं।
- 60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में बंद रहने रखने वाले राज्य
- 20 से 60 प्रतिशत के मध्य बंद रखने वाले राज्य
- 10 से 20 प्रतिशत तक वन रखने वाले राज्य
60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में वन रखने वाले राज्य
भारत के 6 राज्य एवं 1 केंद्र शासित प्रदेश ऐसा है जहां पर 60 प्रतिशत से अधिक वन पाए जाते हैं, जैसे –
- अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह – 81.75 प्रतिशत
- मिजोरम – 84.53 प्रतिशत
- नागालैंड – 73.90 प्रतिशत
- अरुणाचल प्रदेश – 79.33 प्रतिशत
- मणिपुर – 74.34 प्रतिशत
- मेघालय – 76.10 प्रतिशत
- त्रिपुरा – 73.64 प्रतिशत
ये सभी पर्वतीय राज्य हैं। ये उष्ण वर्षा वन प्रदेश में पाए जाते हैं, जिसके कारण सघन वनों का विकास हुआ है।
20-60 प्रतिशत क्षेत्र पर वन रखने वाले राज्य – ये वे राज्य हैं, जहां राष्ट्रीय औसत से अधिक किंतु 60 प्रतिशत से कम वन पाए जाते हैं। यह 9 राज्य एवं 3 केंद्र शासित प्रदेश हैं।
- सिक्किम – 47.08 प्रतिशत
- दादर एवं नागर हवेली – 37.83 प्रतिशत
- गोवा, दमन दीव – 32.6 प्रतिशत
- असम – 35.83 प्रतिशत
- मध्य प्रदेश – 25.14 प्रतिशत
- उड़ीसा – 33.50 प्रतिशत
- केरल – 54.70 प्रतिशत
- हिमाचल प्रदेश – 27.73 प्रतिशत
- तमिलनाडु – 20.31 प्रतिशत
- कर्नाटक – 20.19 प्रतिशत
- जम्मू एवं कश्मीर – 39.15 प्रतिशत
10-20 प्रतिशत वन रखने वाले राज्य – 5 राज्य/संघ शासित प्रदेश ऐसे हैं, जहां राष्ट्रीय औसत से कम वन क्षेत्र पाए जाते हैं। ये राज्य निम्नलिखित हैं।
- आंध्र प्रदेश – 18.28 प्रतिशत
- बिहार – 7.84 प्रतिशत
- महाराष्ट्र – 16.51 प्रतिशत
- उत्तर प्रदेश – 6.15 प्रतिशत
- लद्दाख – 1.15 प्रतिशत
अन्य राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में 10 प्रतिशत से भी कम वन क्षेत्र पाए जाते हैं। ऐसे राज्य एवं केंद्र शासित प्रदेशों के अंतर्गत पश्चिम बंगाल, लद्दाख, गुजरात, चंडीगढ़, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली व हरियाणा आदि है। जहां 5 प्रतिशत से भी कम वन पाए जाते हैं।
वस्तुतः वनों की राज्यस्तरीय एवं प्रादेशिक विभिन्नता एवं विषमता तो पाई ही जाती है, अनेक राज्यों में आंतरिक वितरण में भी भारी विषमता है। जैसे आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पठारी अथवा पर्वतीय क्षेत्रों में ही अधिक वन पाए जाते हैं। उत्तरी बिहार के मैदान में 10 प्रतिशत से भी कम वन क्षेत्र है, जबकि छोटा नागपुर पठार से संलग्न क्षेत्रों पर यह 20 प्रतिशत से अधिक है। आंध्र प्रदेश में भी पूर्वी मैदानी भाग कृषि क्षेत्र होने के कारण वन विहीन है। उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल का अधिकतर वनीय क्षेत्र हिमालय प्रदेश में अवस्थित है। अतः स्पष्ट है कि वनों के वितरण की विषमता अंतर प्रादेशिक एवं अतः प्रादेशिक इस स्तरों पर पाया जाता है। क्षेत्रफल के अनुसार सर्वाधिक वन क्षेत्र पर रहने वाले राज्य हैं – मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़।
वन विनाश के कारण
यद्यपि भारत में विविध प्रकार के वन पाए जाते हैं, लेकिन राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार जितना वन होना चाहिए उतने नहीं होने के कारण पारिस्थितिक असंतुलन की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। वनों का प्रतिशत न केवल राष्ट्रीय औसत से कम है, वरन अभी औसतन प्रतिवर्ष 50 से 55000 हेक्टेयर क्षेत्र में वनों का विनाश हो रहा है। वनों के विनाश की यह गति यदि कायम रही तो इस शताब्दी के अंत तक सघन वनों का प्रतिशत मात्र 11 प्रतिशत ही रह जाएगा, जो पारिस्थितिक असंतुलन को और तीव्र करेगा, जिसका दुष्प्रभाव कई रूपों में देखा जा सकेगा, जिसमें बाढ़, सूखा, भू-अपरदन, जैव विविधता का हास, ग्रीन हाउस प्रभाव व अम्ल वर्षा आदि प्रमुख है।
भारत में वनों के विनाश के कई कारण हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं।
(1) कृषि कार्य का दबाव
वन्य क्षेत्रों में मुख्यतः जनजातीय लोग रहते हैं। हाल के वर्षों में उनकी जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। अतः अपनी खाद आवश्यकता के लिए वे वनों को काटकर कृषि कार्य करते हैं। ऐसे कृषि अवैज्ञानिक एवं पर्यावरण के प्रतिकूल होते हैं, उत्तरी-पूर्वी भारत में होने वाली भू-कृषि तथा सीड़ीनुमा कृषि वनों को काटकर की ही जाती है। इससे वनीय क्षेत्र में भारी गिरावट आई है। एक अध्ययन के अनुसार भारत के हिमालय प्रदेश में 1952 से 77 के बीच कृषि कार्य हेतु 25.07 लाख हेक्टेयर को क्षेत्र वनों में कटाई की गई है। वर्तमान समय झूम कृषि एवं स्थानांतरण शील कृषि ही उत्तर पूर्व एवं अन्य हिमालय क्षेत्र में वनों के विनाश के लिए महत्वपूर्ण कारण है। इसके अलावा छोटानागपुर प्रदेश, दक्कन लावा प्रदेश, त्रिपुरा एवं मणिपुर के मैदानी क्षेत्र में तथा देश के और कई भागों में स्वतंत्रता के बाद कृषि कार्य हेतु वनों की अंधाधुंध कटाई की गई है।
(2) जलावन हेतु कटाई
जलावन के लिए लकड़ी का उपयोग भारत के ग्रामीण जीवन ईधन का प्रमुख साधन है। भारत के ग्रामीण क्षेत्र का करीब 60% ईंधन वन्य क्षेत्रों से ही प्राप्त होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन उद्योग के विकास तथा नगरीय जनसंख्या की वृद्धि के कारण होटल उद्योग का तीव्र विकास हुआ और जलावन की लकड़ी की मांग में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप वनीय और पर्वतीय क्षेत्र की प्रमुख बस्तियों के आसपास के क्षेत्रों में वनों का लगभग सफाया हो गया है। हिमालय का कुमाऊं क्षेत्र तथा हिमाचल प्रदेश के वनीय क्षेत्र में भी जलावन की लकड़ी के लिए प्रतिदिन वनों की कटाई की जाती है।
(3) वनीय संसाधनों का दोहन एवं संसाधनात्मक विकास
विभिन्न वनीय संसाधनों के अति दोहन के कारण ही वनों की तीव्र कटाई हो रही है। कागज उद्योग, निर्माण उद्योग तथा लकड़ी की बढ़ती मांग का सीधा प्रभाव वन्य संसाधन पर ही पड़ता है। कई ऐसे संसाधनों का विकास वनीय क्षेत्र में किया गया है जो वनीय विनाश का प्रमुख करना है। जैसे हिमालय प्रदेश के अंतर्गत सड़कों की लंबाई 44000 किमी है जो वनीय क्षेत्रों में ही है। इसमें से अधिकतर सड़कों का निर्माण चीन युद्ध के बाद हुआ है। इस निर्माण कार्य में 57000 हेक्टेयर भूमि के वनों का विनाश 1952-1977 के बीच हुआ। पुुुनः उसी समय के बीच नदी घाटी परियोजनाओं के विकास के लिए 127000 हेक्टेयर भूमि में वनों का विनाश किया गया। अतः स्पष्ट है कि विकास के नाम पर वनों का विनाश वृहद में हुआ है। खनन क्रिया के कारण उत्तराखंड के गढ़वाल एवं झारखंड के छोटा नागपुर में वनों का विनाश किया गया है।
(4) जंगल की आग
वनीय क्षेत्र में प्रतिवर्ष लगभग आग लग जाती है। यह आग वृहत क्षेत्र में लगती है और हजारों हेक्टेयर भूमि का विनाश हो जाता है। भारत में आग लगने से वनों का विनाश महाराष्ट्र, उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में हुआ है। प्रारंभ में वनीय आग का प्रभाव छोटा नागपुर के राजमहल क्षेत्र तथा झारखंड, उड़ीसा की सीमा पर अवस्थित पर्वतीय क्षेत्रों में भी हुआ है। वर्तमान समय में आग के ही कारण वनों का इतना अधिक विनाश हो चुका है कि आग लगने की संभावना ही क्षीण हो जाती है। आग लगने का प्रमुख कारणों में –
- तापमान में वृद्धि
- वृक्षों की ज्वलनशीलता में वृद्धि
- पुराने वृक्षों का आपस में टकराना
- जनजातियों की अनभिज्ञता
- पर्यटक
- प्रशासक का ज्वलन पदार्थों के प्रति कठोर नियमों का सख्ती से लागू नहीं करना
- जम्मू कश्मीर में उग्रवादियों द्वारा भी जंगलों में आग लगाए जाने की संभावना व्यक्त की जाती है।
(5) अति पशु चारण
पशु चारण के कारण भी वनों का तेजी से विनाश होता है। पश्चिमी हिमालय प्रदेश में पशु चारण के कारण मृदा का क्षरण होता है और पौधे असंतुलित होकर गिर जाते हैं। पशुचारण के कारण लोग चारा की आपूर्ति के लिए तथा साथ ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों पर ही निर्भर हो जाते हैं और वनों की कटाई एवं दोहन करते हैं।
(6) वनों की गैर-कानूनी कटाई
वनों की गैरकानूनी ढंग से कटाई एक गंभीर समस्या है। जिसके प्रभाव में कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल राज्य के वन क्षेत्र है, चूंकि इन राज्यों में कीमती लकड़ी पाई जाती है और यहां अन्य प्रकार की लकड़ियों की कटाई के नाम पर महंगे वृक्षों की कटाई की जाती है। चंदन की लकड़ी, बांस, सागवान और ऊंचाई पर देवदार और चीड़ जैसे वृक्षों की गैर-कानूनी से कटाई की जाती है।
(7) जनजातियों द्वारा वृक्षों की कटाई
जनजातियों की अर्थव्यवस्था की विभिन्न आवश्यकता के लिए वनीय संसाधनों पर ही निर्भरता है। अतः यह वनों को काटते हैं उससे उस क्षेत्र में जनजातियों एवं गैर जनजातियों के बीच तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह अधिकतर जनजातीय प्रदेशों के लिए गंभीर चुनौती है।
(8) बढ़ती जनसंख्या की मांग
जनसंख्या दबाव के कारण ही देश के अनेक क्षेत्रों में वनों का विकास संभव नहीं हो पाया है। मानवीय आदिवासो, उद्योग, पर्यटन, परिवहन, कृषि कार्य व खनन आदि कार्यों एवं आवश्यकता के लिए वनों की कटाई एवं विनाश किया जाता है। साथ ही विभिन्न वानिकी कार्यक्रमों में बाधाएं उत्पन्न होती हैं, चूंकि बहुदेशीय परियोजनाएं जहां वनों के विनाश का प्रमुख कारण हैं, वही यह मानवीय आवश्यकताएं जैसे बिजली, पानी, सिंचाई के लिए आवश्यक है।
अतः मानवीय आवश्यकताओं, विकास एवं वन्य विकास के बीच एक विरोधाभास का भी सामना करना पड़ता है। टिहरी बांध परियोजना, सरदार सरोवर परियोजना, कृष्णा परियोजना, नर्मदा घाटी परियोजना का विरोध हो रहा है, लेकिन सरकार उसके पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है। वर्तमान में नदी जोड़ो परियोजना तथा सेज के विकास के लिए भी वनीय क्षेत्र के विनाश की संभावना है। इसी तरह उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं कई मैदानी राज्यों के वानिकी कार्यक्रमों में बाधाएं भी उत्पन्न हो रही हैं।
(9) सरकार की दोषपूर्ण वन नीति
सरकार की दोषपूर्ण वन नीति की वन्य विनाश का एक कारण है। भारत वैसा देश है, जहां 1894 से ही वन नीति है। 1952, 1980, 1988 में वन नीति बनी एवं वनों की गैरकानूनी कटाई के लिए सजा का भी प्रावधान है, लेकिन नीति को प्रतिबद्धता से लागू करना आवश्यक है।
भारत में वनीय संसाधन
प्राकृतिक संसाधन में वन्य संसाधन का विशेष महत्व है। यह वनस्पति के आर्थिक विशेषताओं से जुड़ा हुआ संसाधन है। भारत उन कुछ महत्वपूर्ण देशों में है, जहां सभी प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती हैं। भारत में वनस्पतियों के 75000 प्रकार पाए जाते हैं। इनमें 5000 वनस्पतियां संसाधन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन इनमें से 450 वनस्पतियों का ही आर्थिक उपयोग हो रहा है। अतः स्पष्ट है कि वन्य संसाधन की बहुलता है, लेकिन आर्थिक उपयोग बढ़ाने की आवश्यकता है। वन संसाधनों का आर्थिक उपयोग अभी पिछड़ी अवस्था में है।
भारत में 24 प्रतिशत भाग पर वन पाए जाते हैं, लेकिन सकल घरेलू उत्पादन में वनों का योगदान मात्र 4 प्रतिशत ही है, जो इसके आर्थिक पिछड़ेपन का द्योतक है। फिर भी स्वतंत्रता के बाद वन संसाधन के उपयोग की प्रक्रिया तीव्र हुई है। वन उत्पादों का कुल मूल्य 1951 में 19 करोड़ रुपए था, जो 1980 में 280 करोड़ तथा 1999 में ₹3800 करोड़ मूल्य हो गया। वर्तमान में सामाजिक वानिकी व संयुक्त वन प्रबंधक जैसे कार्यक्रमों के कारण व केवल वन क्षेत्रों में वृद्धि हो रही है, बल्कि आर्थिक लाभ भी बढ़ा है। भारत में वन आधारित उद्योग का तेज गति से विकास हो रहा है। कागज उद्योग, लाह उद्योग व काष्ठ शिल्प उद्योग में तीव्रता आई है।
पुनः लकड़ी के कटाई उद्योग में तेजी से वृद्धि हुई है, जिसका परिणाम यह है कि 1997 में लकड़ी उत्पादन की दृष्टि से भारत विश्व में चौथे स्थान पर था।
भारत में मुख्यतः 7 प्रकार के वन पाए जाते हैं और सभी वन संसाधन रखते हैं।
- उष्ण सदाबहार वन
- उष्ण मानसूनी वन
- उष्ण झाड़ीनुमा वन
- उष्ण शुष्क कंटीली वन
- उपोष्ण पर्वतीय वन
- तटीय वन
- हिमालय वनीय प्रदेश
उपर्युक्त वन प्रदेश में पाए जाने वाले विभिन्न वृक्षों एवं वनस्पतियों में साल, सागवान, बांस, देवदार, सवाई घास चीड़, चंदन आदि भारत के अति महत्वपूर्ण संसाधन हैं। साल के अंतर्गत 1.70 लाख वर्ग किमी –
- सागवान के अंतर्गत 57000 वर्ग किमी
- चीड़ के अंतर्गत 7500 वर्ग किमी
- देवदार के अंतर्गत 5500 वर्ग किमी भूमि पाई जाती है। साल और सागवान के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल मध्यप्रदेश में
- चीड़ एवं देवदार का जम्मू कश्मीर
- बांस का सर्वाधिक क्षेत्र कर्नाटक में
- नारियल वृक्ष का सर्वाधिक क्षेत्रफल केरल में है।
केन्दु वृक्ष की प्रधानता मध्य प्रदेश में है। वस्तुतः भारत का हिमालय प्रदेश कई ऐसे वृक्षों का विशाल क्षेत्र है, जो कागज उद्योग के लिए महत्वपूर्ण है। ऐसे वृक्षों में नीला पाइन, स्प्रूस, सिल्वर पाइन व यूकेलिप्टस विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
वन संसाधन पर आधारित अर्थव्यवस्था को हम तीन प्रमुख भागों में बांट सकते हैं।
- वृहद उद्योग
- लघु उद्योग
- जीवन निर्वाह अर्थव्यवस्था
वृहद उद्योग को 2 वर्ग में बांटते हैं।
- प्रत्यक्ष उद्योग
- अप्रत्यक्ष उद्योग
प्रत्यक्ष उद्योग में कागज उद्योग व लकड़ी उद्योग प्रमुख है। अप्रत्यक्ष उद्योग में लाख उद्योग एवं रेशम उद्योग महत्वपूर्ण है। लघु उद्योग के अंतर्गत बीड़ी उद्योग, नारियल की जटाओं से संबंधित उद्योग, काष्ठशिल्प उद्योग व लघु उद्योग प्रमुख है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
जीवन निर्वाह उद्योग के अंतर्गत जनजातियों के विभिन्न उद्योग आते हैं, जो उनके जीवन की आवश्यकता एवं जीवन निर्वाह से जुड़े हुए हैं। गृह निर्माण, जलावन के लिए खाद संग्रह के लिए पूर्णत वन पर ही निर्भर रहते हैं। जंगली जानवरों का शिकार व फल आदि प्राप्त करते हैं। सहकारिता द्वारा वनीय संसाधनों का उपयोग द्वारा जनजातियों की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास किया जा रहा है। इस संदर्भ में त्रिपुरा में रबड़ की बागवानी कृषि महत्वपूर्ण है। संयुक्त वन प्रबंधन का उद्देश्य वन क्षेत्र में वृद्धि के साथ ही वनों पर निर्भर जनसंख्या को आर्थिक लाभ पहुंचाना है।
अतः भारत में वन संसाधनों की कमी तो नहीं है लेकिन इसका विकास सीमित हो चुका है। हिमालय प्रदेश में विविध वनीय संसाधन है, लेकिन भौगोलिक जटिलताओं के कारण उपयोग सीमित है। अतः भारत जैसे देश के लिए यह आवश्यक है कि वन संसाधनों के उपयोग के लिए एक दीर्घकालीन राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जाए, ऐसी नीति में वातावरणीय संतुलन एवं पर्यावरण की आवश्यकता भी जुड़ी हुई है। भारतीय वनों की उत्पादकता 0.5 घन मीटर प्रति हेक्टेयर है जो अंतर्राष्ट्रीय औसत 2.1 घन मीटर प्रति हेक्टेयर के मुकाबले बहुत ही कम है। अतः वन क्षेत्रों के विकास के द्वारा वनों से आर्थिक लाभ की प्राप्ति की जा सकती है।