मृदा का अर्थ | मृदा के प्रकार | भारत की मिट्टियाँ

मृदा का अर्थ


स्थलीय भूपटल की वह ऊपरी सतह मृदा है, जिसमें ऋतुक्षरित चट्टानों के महीन कण, हूमस, खनिज, जल, वायु और सूक्ष्म जीवाणु असंगठित अवस्था में पाए जाते हैं। मृदा विज्ञान का पिता दुकाचेव महोदय के अनुसार, मृदा पांच प्रमुख तत्व – जलवायु, पैठित चट्टाने, भूस्थलाकृति, वनस्पति एवं समय का गत्यात्मक मिश्रण है, जो जैविक परिस्थितियों को बनाए रखने की क्षमता रखता है। मृदा भूगोल के अध्ययन को ‘पैडोलोजी’ कहते हैं। भारतीय मृदा के अध्ययन में अनेक भूगोलवेत्ताओ का योगदान है, इनमें बालेकर, लैदर, चेकोस्लावया, वाडिया, कृष्णन एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) का प्रमुख स्थान है।

मृदा के प्रकार


भारत जैसे वृहद आकार के देश में अनेक प्रकार की मृदा पायी जाती हैं। ICAR ने 1956 में मृदा की संरचनात्मक विशेषताओं, रंग एवं संसाधनात्मक महत्व को ध्यान में रखकर भारतीय मृदा को 8 भागों में विभाजित किया एवं पुणे इसके 27 उपवाक्य किये है, मृदा का आकार घटते क्रम में –

  • जलोढ़ मृदा
  • लाल मृदा
  • काली मृदा
  • वनीय मृदा
  • लेटेराइट मृदा
  • लवणीय मृदा
  • मरुस्थलीय मृदा
  • पीठ दलदली या जैविक मृदा

(1) जलोढ़ मिट्टी


भारत के करीब 7.7 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है, जो भारत का कुल क्षेत्रफल का लगभग 24 प्रतिशत है। इसका विस्तार मध्यवर्ती मैदानी भाग, तटीय मैदान में नदी निक्षेपण की क्रिया से विकसित हुआ है। इसमें नाइट्रोजन एवं हूमस की मात्रा कम होती है, किंतु पोटाश एवं चूने की मात्रा पर्याप्त होती है। यह एक ऐसी मृदा है जो किसी भी फसल के लिए अनुकूल है। संरचनात्मक विशेषताओं के आधार पर हम इसे तीन भागों में बांटते हैं।

भांवर : यह तराई भारत की मृदा है, जिसमें ऋतुक्षरित चट्टानी कण अनेक आकार में पायी जाती हैं। पुनः यहां तुलनात्मक दृष्टि से वर्षा अधिक होती है, इसलिए मृदा में नमी की मात्रा पर्याप्त होती है। यह मृदा लगभग संपूर्ण तराई भारत में अरुणाचल प्रदेश से लेकर जम्मू एवं कश्मीर तक पायी जाती है। इस मृदा का निर्माण निम्न प्लीस्टोसीन काल में हुआ है।

बांगर : यह पुरानी जलोढ़ मृदा है। यह मुख्यत: पश्चिम भारत के मैदानी भागों में पाई जाती है। यह पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिम उत्तर प्रदेश में विस्तृत है। इसका निर्माण प्लीस्टोसीन काल में हुआ है।

खादर : यह नवीन जलोढ़ मृदा है, जो प्रतिवर्ष बाढ़ के प्रभाव में आती है। अतः इसमें मृदा के गुणों की नवीनता बनी रहती है। यह उपजाऊ एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है। वस्तुतः यह सभी फसलों के लिए अनुकूल है। इसका निर्माण प्लीस्टोसीन से होलोसीन काल तक हुआ है। भारत में जलोढ़ मृदा पर मुख्यतः चावल की खेती होती है। यह मृदा सभी प्रकार की फसलों के लिए उपयुक्त है। यहां चावल, गेहूं, दलहन व तिलहन जैसी विभिन्न फसलों की खेती की जाती है। गंगा – ब्रह्मपुत्र के डेटाई भागों में जूट की कृषि अमुखता से की जाती है। उत्तर भारत के अतिरिक्त दक्षिण भारत के तटीय भागों में भी जलोढ़ मृदा पाई जाती है।

(2) लाल मिट्टी


भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से जलोढ़ मृदा के बाद सर्वाधिक क्षेत्रफल लाल मिट्टी का है। यह करीब 5.18 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है। इसकी उत्पत्ति धारवाड़ या आर्कियन क्रम की चट्टानों से हुई है। शुष्क एवं तर जलवायु में परिवर्तन होने से प्राचीन चट्टानों के विखंडन से लाल मिट्टी का निर्माण हुआ है। इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं जीवाश्म की कमी होती है, जबकि लौह, एलुमिनिया एवं कैल्शियम की उचित मात्रा पाई जाती है। मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में कुमारी अंतरीप तथा पूर्व में असम के पठार तक इसका विस्तार पाया जाता है। लाल मिट्टी का सर्वाधिक क्षेत्र तमिलनाडु में हैं। इसके अलावा केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्र तथा छोटानागपुर एवं असम के पठार में भी लाल मृदा पाई जाती है। सामान्यतः: यह मृदा मात्र 2 से 3 वर्ष के लिए उपजाऊ होती है, इसके बाद अधिक उपयोग हेतु निवेश आवश्यक है। इसमें मोटा अनाज, दलहन व तिलहन की कृषि की जा सकती है। हरित क्रांति के द्वितीय चरण में इस मृदा क्षेत्र को ही प्राथमिकता दी गई थी।

(3) काली मिट्टी


यह मुद्दा 5.16 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है। यह भारत की सर्वाधिक उपजाऊ मृदा में से एक है। इस मृदा का निर्माण के क्रिटेशस से ट्रियासिक काल तक हुआ है। इसकी उत्पत्ति ज्वालामुखी उद्गार के निकलने वाला लावा के जम जाने से हुई है। इस मृदा की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि यह सतह पर रूखड़ा होती है, लेकिन नीचे महीन क्ले होते हैं और गहराई में क्ले की उपस्थिति के कारण इसमें नमी रखने की क्षमता अधिक है। महाराष्ट्र एवं गुजरात में ऐसी मिट्टी को कपासी मृदा या रेगुर मिट्टी कहा जाता है। इस मृदा में नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की मात्रा कम होती है। जैविक पदार्थों की मात्रा भी कमी होती है। लेकिन चुना, पोटाश, एलुमिनिया की मात्रा पर्याप्त मात्रा होती है। अतः यह मृदा खनिज की दृष्टि से संतुलित है। भौगोलिक वितरण की दृष्टि से काली मृदा को तीन भागों में बांटा जाता है।

  1. गहरी काली मृदा : यह तेलंगाना क्षेत्र में पाई जाती है।
  2. मध्यम काली मृदा : यह मुख्यतः मध्यवर्ती महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग में पाई जाती है।
  3. हल्की काली मृदा : यह मृदा मालवा प्रदेश, गुजरात के तटवर्ती मैदानी क्षेत्र तमिल उच्च भूमि और कर्नाटक का वह क्षेत्र जो मैसूर एवं बेंगलुरु के बीच अवस्थित है।

यह मृदा भारत के 1.60 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है। इस मृदा का निर्माण लेटेराइटिक शैलों के विखंडन से मानसून जलवायु की विशिष्ट स्थितियों के कारण होता है। यह प्रक्रिया लीचिंग प्रोसेस कहलाती है। इस प्रक्रिया में मानसूनी जलवायु के अंतर्गत क्रमश शुष्क एवं आर्द्र जलवायु के कारण लैटेराइट चट्टानों का ऋतुक्षरण होता है, जिससे इस मृदा की उत्पत्ति एवं निर्माण होता है, इसमें एलुमिनियम एवं लोहे के पर्याप्त अंश होते हैं, लेकिन नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, चूना लाइम एवं मैग्नीशियम की भारी कमी होती है। इसमें हूमस की पर्याप्त मात्रा नहीं होती है, लेकिन सूक्ष्म जीवाणु बहुलता से पाए जाते हैं। सामान्यतः यह उपजाऊ मृदा नहीं होती है। मृदा की संरचना में रूखापन होता है। इसमें ऑक्सीकृत लौह पिंड के रूप में पाए जाते हैं।

अतः ऊपर के तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि काली मृदा का संसाधनात्मक महत्व है और यह देश के वृहद क्षेत्र में फैली हुई है। काली मिटटी का सर्वाधिक क्षेत्र महाराष्ट्र राज्य में और हल्की काली मृदा का सर्वाधिक क्षेत्रफल मध्य प्रदेश में है। हल्की काली मृदा भी उपजाऊ होती है। इसी प्रदेश में अनेक नदियों के मैदानी क्षेत्र में काली जलोढ़ मृदा पायी जाती है, जो कपास के अलावा चावल की खेती के लिए भी अनुकूल है। हाल के वर्षों में गन्ने की कृषि को भी प्राथमिकता दी गई है, वैसे यह कपास के लिए अति उपयुक्त है। यह मिट्टी कपास की कृषि का मुख्य क्षेत्र है और सूती वस्त्र का आधार है।

(4) वनीय मिट्टी


वनीय मिट्टी का भौगोलिक विस्तार 2.8 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में है। इसको पर्वतीय मिट्टी भी कहते हैं। सामान्यतः पर्वतीय ढालो पर ही वन मृदा का विकास होता है। इस मृदा की परत पतली होती है किंतु इसमें हूमस एवं जैविक अंश पर्याप्त होते हैं। यह मिट्टी मुख्यतः तराई प्रदेश, उत्तरी पूर्वी भारत के वन प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, सह्याद्रि पर्वत, पूर्वी एवं पश्चिमी घाट, तमिलनाडु व केरल के पर्वतीय क्षेत्र में बहुत बहुलता से पायी जाती है।

यह मृदा संसाधनात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। क्योंकि इसमें ही हूमस के अंश अधिक होते हैं। इस मृदा में पोटाश एवं चूना की कमी होती है। रासायनिक उर्वरकों की मदद से इसे उपजाऊ बनाने का प्रयास किया गया है। इसी मृदा पर भारत में अधिकतर बागानी फसल उगाई जाती हैं।

(5) लेटेराइट मिट्टी


यह मृदा भारत के 1.60 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है। इस मृदा का निर्माण लेटेराइटिक शैलों के विखंडन से मानसून जलवायु की विशिष्ट स्थितियों के कारण होता है। यह प्रक्रिया लीचिंग प्रोसेस कहलाती है। इस प्रक्रिया में मानसूनी जलवायु के अंतर्गत क्रमश शुष्क एवं आर्द्र जलवायु के कारण लैटेराइट चट्टानों का ऋतुक्षरण होता है, जिससे इस मृदा की उत्पत्ति एवं निर्माण होता है, इसमें एलुमिनियम एवं लोहे के पर्याप्त अंश होते हैं, लेकिन नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, चूना लाइम एवं मैग्नीशियम की भारी कमी होती है। इसमें हूमस की पर्याप्त मात्रा नहीं होती है, लेकिन सूक्ष्म जीवाणु बहुलता से पाए जाते हैं। सामान्यतः यह उपजाऊ मृदा नहीं होती है। मृदा की संरचना में रूखापन होता है। इसमें ऑक्सीकृत लौह पिंड के रूप में पाए जाते हैं।

लौह पिंड : यह स्तर में होते हैं। लैटेराइट संरचना के घाटी प्रदेश में क्ले में भी आयरन ऑक्साइड के पिंड होते हैं, जो कृषि कार्य के लिए प्रतिकूल होता है। भारत में यह मृदा सर्वाधिक केरल राज्य में है। अन्य क्षेत्र सहयाद्रि पर्वत, पूर्वी पर्वतीय क्षेत्र, अमरकंटक का पठार, सौराष्ट्र के पठारी क्षेत्र, झारखंड का पाट पठार आदि है। महाराष्ट्र का रत्नागिरी जिला, असम का कच्छ हिल प्रदेश, मेघालय का पठार और राजमहल की पठारी क्षेत्र में यह मृदा यत्र-तत्र पाई जाती है। सामान्यतः यह मृदा कृषि के लिए अनुकूल नहीं है, लेकिन भारत में मोटे अनाज, दलहन, तिलहन व मूंगफली जैसे फसल की कृषि वृहद रूप में होती है। केरल में इसी प्रदेश में कॉफी एवं रबर के बागान लगाए जाते हैं। यह मृदा काजू एवं टेपियोका के लिए उपयुक्त है। यह संसाधनात्मक दृष्टि से यह मृदा भी महत्व रखती है।

(6) मरुस्थलीय मिट्टी


यह भारत के करीब 1.42 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत है। इसके अंतर्गत राजस्थान मरुस्थल, अरावली पर्वतीय क्षेत्र, दक्षिणी हरियाणा, पंजाब एवं कच्छ के रन को सम्मिलित करते हैं। इस मृदा में लवण एवं बालु की प्रधानता होती है। हूमस, नमी एवं नाइट्रोजन की भारी कमी होती है। इस प्रकार की मृदा के उपयोग के लिए सिंचाई संसाधनों के विकास की आवश्यकता होती है। भारत के राजस्थान मरुस्थल में जलोढ़ मृदा में पाई जाती है जिसमें फास्फेट के पर्याप्त अंश होते हैं। अतः वैज्ञानिक कृषि तकनीक का प्रयोग करके फसल को कृषि योग्य बनाया जा सकता है। मरुस्थलीय मृदा को उपजाऊ मृदा भी बनाया जा सकता है, जिसके लिए ड्रिप सिंचाई स्प्रींकल सिंचाई का विकास इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य है।

(7) पीट या दलदली मृदा


यह करीब 1 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में पाई जाती है। यह आर्द्र प्रदेशों की मिट्टी है। यह मुख्यत: डेल्टाई क्षेत्रों में पाई जाती है। इसमें क्ले की प्रधानता होती है। इसके अंतर्गत वे क्षेत्र आते हैं जो उच्च ज्वार के समय जलमग्न हो जाते हैं। अतः इस मृदा में नमी एवं लवण की मात्रा अधिक होती है, जो कृषि कार्य के लिए अनुकूल नहीं है। पुनः इसमें सूक्ष्म जीवाणु का अभाव होता है। अतः हूमस का निर्माण नहीं हो पाता है और ह्यूमस के अभाव में यह कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। सूक्ष्म जीवाणु के अभाव के कारण वनस्पति के टुकड़े अभी भी यथास्थिति में है। आर्थिक महत्व की दृष्टि से यह मृदा सुंदरी वन, बेंत, ताड़, केन व नारियल के वृक्षों के लिए अनुकूल है, जो पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। अन्य फसलों के लिए यह मृदा उपयुक्त नहीं है।

(8) लवणीय मिट्टी


भारत के करीब 1.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में यह मिट्टी पाई जाती है। इस रेह या उसर मृदा भी कहते हैं। यह मृदा मुख्यतः अंत: प्रवाह क्षेत्रों में पायी जाती है। इसे पलाया मृदा भी कहते हैं। यह जलोढ़ मृदा ही है, लेकिन वह वाष्पोत्सर्जन के कारण इसमें लवण का अंश अधिक होता है। इसमें सोडियम, कैल्शियम एवं मैग्नीशियम की सतह होती है, जो मृदा को अधिक अनुर्वर बनाती है। भारी वर्षा के समय पलाया तथा बालसन के क्षेत्र में जल जमाव हो जाता है। जिससे तत्कालिक रूप में लवण घुल जाते हैं और नीचे चले जाते हैं, लेकिन ज्यों ही वाष्पोत्सर्जन का प्रभाव गहन होता है, तो सतह पर सोडियम एवं कैल्शियम, मैग्नीशियम की स्तरें बिछ जाती है। यह मृदा मुख्यतः सांभर झील प्रदेश एवं राजस्थान के कई अन्य छोटे-छोटे क्षेत्रों एवं कच्छ के रन प्रदेश में विकसित हुई है।

इस मृदा को आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वाह्य अपवाह तंत्र विकसित किए जाएं, जिससे मृदा पर वाष्पोत्सर्जन का प्रभाव कम किया जा सकेगा और परिणामत: लवणता में कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति में इस मृदा का आर्थिक उपयोग किया जा सकता है।

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