भारत विश्व के कुछ उन देशों में है, जहां मृदा क्षरण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। मृदा क्षरण को ‘रेंगती हुई मृत्यु’ कहा जाता है। मृदा क्षरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत अपरदन के दूत मृदा कणों को स्रोत से दूर ले जाते हैं, जिससे मृदा के मौलिक संरचनात्मक गुणों का हृास होता है और इसका प्रतिकूल प्रभाव पारिस्थितिकी एवं मृदा की उर्वरता पर पड़ता है। इसी प्रक्रिया से भारत में बंजर भूमि का विकास हुआ है।
ICAR के अनुसार, भारत का 60 प्रतिशत मृदा रोगग्रस्त है, ब्रिटिश भूगर्भशास्त्री ग्लोवर एवं रसेल के अनुसार, 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि मृदा की चरण से प्रभावित है। रसेल के अनुसार, प्रतिवर्ष भारत के स्थलीय भूपटल का 1/8 भाग अपरदित हो जाता है, जिसके कारण कुल भारतीय मृदा का प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत का क्षण हो रहा है। राष्ट्रीय कृषि आयोग (NCA) के अनुसार, राष्ट्र का कुल क्षेत्रफल 32 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर में से 14.2 करोड़ हेक्टर मृदा अपरदन से प्रभावित है। जिसमें –
- 3 करोड़ हेक्टेयर – वायु अपरदन द्वारा
- 40 लाख हेक्टेयर – गली अपरदन द्वारा
- 30 लाख हेक्टेयर – झूम कृषि द्वारा प्रभावित है।
राष्ट्रीय भू-परती भूमि विकास बोर्ड के अनुसार, भारत में 17.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि परती या बंजर भूमि है, जिसका मूल कारण मृदा क्षरण है। अतः स्पष्ट है कि मृदा क्षरण एक राष्ट्रीय चुनौती है।
वितरण
मृदा क्षरण एक राष्ट्रव्यापी समस्या है और इसका प्रभाव प्राय: सभी राज्यों में हैं, लेकिन सर्वाधिक प्रभाव मध्य-प्रदेश में है। मृदा अपरदन विशेष प्रभावित क्षेत्र निम्नलिखित हैं।
- उत्खात भूमि क्षेत्र
- शिवालिक क्षेत्र
- उत्तर पूर्वी भारत
- मध्यवर्ती मैदानी भारत
- छोटा नागपुर पठारी प्रदेश
- राजस्थान का मरुस्थल
- हिमालय का ढाल वाला क्षेत्र
- केरल का तटवर्ती क्षेत्र
मृदा क्षरण के कारण
मृदा क्षरण कई कारकों के अंतरक्रिया का परिणाम है। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं, जैसे:
- प्राकृतिक कारक
- मानवीय कारक
(1) प्राकृतिक कारकों के अंतर्गत :
- नदियों का बहता हुआ जल
- मूसलाधार बारिश
- ज्वार भाटा एवं समुद्री लहरें
- तीव्र वायु प्रवाह
(2) मानवीय कारकों के अंतर्गत :
- वन हृास
- खेतों की अवैज्ञानिक जुताई
- भूमि उपयोग का अवैज्ञानिक ढंग
- अवैज्ञानिक चराई
- तीव्र औद्योगीकरण एवं नगरीकरण
(A) नदियों का बहता हुआ जल (नदी तटीय भू-क्षरण) :
नदी जल के प्रभाव से मृदा क्षरण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। अधिकांशतः बाढ़ के मैदानों में यह एक गंभीर समस्या है। बहते हुए जल द्वारा मृदा क्षरण की समस्या मुख्यत: पश्चिम बंगाल के उत्तरी मैदानी भाग, बिहार के मैदान एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में पायी जाती है। इन क्षेत्रों में अनेक नदियों द्वारा मार्ग परिवर्तन की प्रवृत्ति होती है, चूंकि यहां नदियां प्रौढ़ावस्था के अंतिम चरण में होती हैं, अतः नदी विसर्प बनाती हुई प्रभावित होती है। बाढ़ के समय अधिक जलजमाव से यह कमजोर किनारों की उपजाऊ मृदा को तेजी से काटती है और वहां बालु का ढेर लगा देती है। अतः उपजाऊ भूमि का अपरदन हो जाता है। नवीन क्षेत्र जो बनते हैं, उनमें बालु की अधिकता होती है, जो फसलों के लिए अनुकूल नहीं होती।
(B) मूसलाधार वर्षा :
वर्षा के बहते हुए जल द्वारा परत अपरदन, रील अपरदन, अवनालिका अपरदन एवं बूंद अपरदन के रूप में मृदा क्षरण की समस्या उत्पन्न होती है।
- परत अपरदन की समस्या मुख्यतः राजस्थान में पायी जाती है, जहां आकस्मिक भारी वर्षा के बाद ढ़लवा भूमि पर वृहद स्तर पर मृदा क्षरण होता है।
- रिल और अवनालिका अपरदन तीव्र ढाल वाली छोटी सरिताओं का परिणाम है। रिल अपरदन में पतली नलिकाएं बनती है, जब यह वृहद स्तर पर होती है और शाखाएं विकसित हो जाती है तो उसे अवनालिका अपरदन कहते हैं। रिल एवं अवनालिका का सर्वाधिक प्रभाव उत्तर प्रदेश के ट्रांस यमुना क्षेत्र, मध्य प्रदेश के चंबल, बेतवा एवं केन क्षेत्र में (बीहड़ के रूप में) है। यह अपरदन वर्षा एवं नदी जल दोनों का संयुक्त परिणाम होता है। रिल और अवनालिका अपरदन के परिणाम स्वरुप मध्य-प्रदेश में उत्खात भूमि का विकास हुआ है। रिल और अवनालिका अपरदन का प्रभाव उत्तर-पूर्वी भारत एवं छोटा नागपुर के पठारी क्षेत्र में भी गंभीर रूप से है।
- बूंद अपरदन : यदि वर्षा की बूंदे बड़ी हो और हल्की मृदा पर गिरती हो तो हूमस युक्त मृदा कणों को अपने स्थान से विस्थापित कर देती हैं, जिससे वहां गड्ढे बन जाते हैं। पुनः भारी वर्षा होने पर विस्थापित कण बहते जल के साथ अपवाहित हो जाता है, जिससे उबड़-खाबड़ भूमि का निर्माण हो जाता है। यह समस्या उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी भारत, तमिलनाडु और केरल में विशेष रूप से देखने को मिलती है।
(C) ज्वार एवं समुद्री तरंगे :
तटीय मृदा का अपरदन समुद्री तरंगों द्वारा होता है। सामान्यतः समुद्री तरंगों द्वारा तटवर्ती स्थान का विकास होता है, लेकिन यदि तीव्र वायु और तूफान का प्रभाव हो और उच्च ज्वार की स्थिति हो तो समुद्री तरंगों में जल की गति एवं अपरदन क्षमता में वृद्धि हो जाती है और तटवर्ती मृदा का प्रदान करने लगती है। केरल राज्य में यह एक गंभीर समस्या है। कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के तटवर्ती प्रदेश में भी यह समस्या है।
(D) तीव्र वायु प्रवाह :
तीव्र वायु भी मृदा अपरदन का प्रमुख कारण होता है। यह मुख्यत: वैसे क्षेत्रों की समस्या है, जहां बलुई एवं मुलायम मिट्टी पायी जाती है। ऋतुक्षरण के प्रभाव से परती भूमि की मृदा कमजोर एवं ढीली हो जाती है, जिसे तीव्र वायु उड़ा कर ले जाती है। राजस्थान एवं कच्छ क्षेत्र में बालु की बहुलता के कारण वायु द्वारा मृदा का तीव्र क्षरण हो रहा है।
एक आकलन के अनुसार, राजस्थान का मरुस्थल 0.8 किमी प्रति वर्ष की दर से दिल्ली की ओर बढ़ रहा है। वायु द्वारा भू-क्षरण का वह भयावह उदाहरण है। राजस्थान एवं कच्छ के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिम उत्तर प्रदेश, पश्चिमी मध्य प्रदेश में भी यह समस्या है।
मानवीय कारक
भारत में मृदा क्षरण के लिए मानवीय कारक सर्वाधिक उत्तरदायी है। मानव अपने विभिन्न आर्थिक उद्देश्य के लिए भूमि का अत्यधिक दोहन कर रहा है, जो अंततः मृदा अपरदन के रूप में विकराल समस्या बन गई है। विभिन्न मानवीय कारक निम्न है –
- वनों का हृास
- खेतों की अवैज्ञानिक जुताई
- भूमि उपयोग का अवैज्ञानिक ढंग
- अवैज्ञानिक पशुचारण
- तीव्र औद्योगीकरण एवं नगरीकरण
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