मानसून का अर्थ
मानसून शब्द की उत्पत्ति अरब भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है, जिसका तात्पर्य ऋतु परिवर्तन है। मानसून मौसमी पवन है, जो वर्ष में 2 बार दिशा परिवर्तन करता है। यह 6 महीने दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर तथा अगले 6 महीने उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रवाहित होता है। पहले को दक्षिण-पश्चिम मानसून तथा दूसरे को उत्तर-पूर्वी मानसून कहते हैं। मानसूनी पवनें भारतीय प्रायद्वीप की जलवायु को सर्वाधिक प्रभावित करती है। भारत की कृषि अर्थव्यवस्था मानसूनी वर्षा पर ही निर्भर करती है। भारतीय उपमहाद्वीप में ही मानसून परिभाषित रूप में पाया जाता है। यहां क्रमशः ग्रीष्मकालीन मानसून तथा शीतकालीन मानसून का प्रभाव रहता है।
इस प्रकार ‘मानसून मौसमी हवाओं की दोहरी प्रणाली है। चूंकि यें हवाएं समुद्री आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं, अतः इससे प्रभावित क्षेत्रों में वर्षा होती है।
मानसून की उत्पत्ति और प्रक्रिया
एडमंड हैली ने 1686 ई. में कहा कि मानसून हवाओं में उत्क्रमण धरातलीय – तापीय प्रक्रिया का परिणाम है। वस्तुतः सूर्य के उत्तरायण होने से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का स्थलीय भाग, हिंद महासागर के जलीय भाग की तुलना में अत्यधिक गर्म हो जाता है, जिससे समुद्री उच्च वायु भार क्षेत्र से स्थलीय निम्न वायु भार भारत की ओर नमीयुक्त हवाएं चलने लगती है। इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायन होने के साथ भारत में स्थिति बदल जाती है तथा अब स्थलीय शुष्क हवाएं उच्च वायु भार से समुद्रीय निम्न वायु भार की ओर चलने लगती है। इस प्रकार हैली महोदय के अनुसार, मानसून बड़े पैमाने पर स्थानीय एवं सामुद्रिक वायु का परिचालक है जो 6 महीने के लिए दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व और अगले 6 महीने के लिए उसके विपरीत दिशा में प्रवाहित होता है। पहले को ‘दक्षिण-पश्चिम मानसून’ और दूसरे को ‘उत्तर-पूर्वी मानसून’ कहते हैं। उपरोक्त विश्लेषकों के पश्चात हम कह सकते हैं कि भारतीय मानसून वस्तुतः हिंद महासागर से नि:सृत ऊर्जा है।
मानसून सम्पूर्ण भारत की वनस्पति, कृषि प्रकारिकी और सामाजिक तथा सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ी हुई है। भारतीय जन-जीवन पर इतना व्यापक प्रभाव डालने वाला यह मानसूनी हवा स्वभाव से ही अत्यंत अनिश्चित है। इसी अनिश्चितता के कारण इसे भारतीय किसान के साथ जुआ कहा जाता है। मानसून की उत्पत्ति आज भी मौसम वैज्ञानिक के लिए एक जटिल एवं अनसुलझा प्रश्न बना हुआ है। इसी संदर्भ में मानसून की उत्पत्ति से संबंधित कई विचार एवं सिद्धांत भी दिए गए हैं। मानसून का सर्वप्रथम अध्ययन अरब भूगोलवेत्ता ‘अलमसूदी’ द्वारा किया गया था, जबकि मानसून शब्द ‘हिप्पोलस’ ने दिया था। अब तक के मानसून उत्पत्ति संबंधी सिद्धांतों को चार महत्वपूर्ण भागों में बांटा गया है –
- चिर सम्मतकालीन या तापीय संकल्पना
- विषुवतीय पछुआ हवा या ITCZ संकल्पना
- जेट-स्ट्रीम विचारधारा
- एलीनीनो संकल्पना
चिरसम्मत कालीन संकल्पना
इस विचारधारा का विकास किसी एक वैज्ञानिक द्वारा न होकर अनेक ब्रिटिश विज्ञानशास्त्रियोंं, जलवायु वैज्ञानिकों और भूगोलवेत्ताओं के द्वारा हुआ है। लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य डडले स्टाम्प तथा बेकर ने किया था। इस विचारधारा के अनुसार, मौसमी हवाओं की उत्पत्ति का मुख्य कारण तापीय प्रभाव हैै। अतः इसे तापीय प्रभाव सिद्धांत कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, जब सूर्य की किरणें उत्तरी गोलार्ध में लंबित होती हैं तो भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर तापीय प्रभाव के कारण एक वृृृहत निम्न भार का निर्माण होता हैै। जबकि इस समय हिंद महासागर पर कर्क रेखा (उत्तरी गोलार्ध) की अपेक्षा निम्न ताप होता है, जिसका मुख्य कारण है –
- सूर्य की किरणों का तिरछा पड़ना व
- जल राशि का होना
हिंद महासागर पर अपेक्षाकृत निम्न ताप होने के कारण उच्च वायुदाब पाया जाता है, जिसके कारण ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप से आने वाली वाणिज्य हवाएं विषुवत रेखीय क्षेत्र में फेरल नियम का अनुसरण करते हुए विश्वत रेखा को पार करने के बाद अपने से दाहिने मुड़ जाती हैं और वही हवाएं दक्षिण-पश्चिम मानसून के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप की तरफ प्रवाहित होती है जहां अपेक्षाकृत निम्न वायुदाब होता है। यह हवा करीब 6000 किमी तक समुद्र की दूरी तय करती है। इसलिए इसमें पर्याप्त जल वाष्प होता है और भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर यह दो शाखाओं में बंटकर वर्षा ऋतु लाती हैं।
वर्षा का वितरण सभी जगह एक समान नहीं है, उसका प्रमुख कारण पर्वतीय प्रभाव है। अरब सागर के मानसून से पश्चिमी घाट पर्वत के पश्चिमी तट पर भारी वर्षा होती है। बंगाल की खाड़ी के मानसून प्रवाह से अंडमान निकोबार द्वीप और उत्तर-पूर्वी भारत में भारी वर्षा होती है। ज्यों-ज्यों बंगाल की खाड़ी की मानसून हवाएं पश्चिम तथा उत्तर पश्चिम की तरफ जाती है, त्यों-त्यों वर्षा की मात्रा में कमी होने लगती है क्योंकि इसका जलवाष्प क्रमश समाप्त होने लगता है। जैसे चेरापूंजी में वार्षिक वर्षा 1085 सेंमी है, जबकि पटना में 105 सेंमी, इलाहाबाद में 76 सेंमी और रामगढ़ में 12 सेंमी है। दार्जिलिंग में 250 सेमी मसूरी में 206 सेंमी, शिमला में 122 सेंमी वर्षा होती है।
इस सिद्धांत को अगर आधार माना जाए तो मानसून की उत्पत्ति अत्यंत सरल है। इसकी अनिश्चितता का भी कोई प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायन स्थिति एक निश्चित तिथि की होती है। अतः मानसून वर्षा को निश्चित होना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के कैलेंडर का अभाव है, इसलिए अधिकतर वैज्ञानिक इस सिद्धांत को स्वीकार करते हैं।
विषुवतीय पछुआ हवा की संकल्पना
इस सिद्धांत का प्रतिपादन ‘फ्लोन’ नामक वैज्ञानिक ने किया है। फ्लोन महोदय के अनुसार मानसून हवा सही अर्थों में विषुवतीय पछुआ हवा है। विषुवतीय पछुआ हवा की उत्पत्ति अंतः अभिसरण के कारण होती है। फ्लोन के अनुसार अरब सागर की सतह पर इस अभिसरण से जो पछुआ हवा उत्पन्न होती है, वह सीधे पूर्व की तरफ न जाकर भारतीय उपमहाद्वीप की तरह प्रवाहित होने लगती है। इसका प्रमुख कारण भारतीय उपमहाद्वीप का तापीय प्रभाव है। गर्मी ऋतु में भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर वृहत् निम्न भार का निर्माण हो जाता है, क्योंकि तापीय विषुवत रेखा कभी-कभी शिवालिक पर्वत पाद क्षेत्र तक पहुंच जाती है। ऐसी स्थिति में भारतीय उपमहाद्वीप के नीचे विषुवतीय क्षेत्रों में अंतः उष्ण अभिसरण कार्य संभव नहीं है और हवाएं अपनी दिशा बदलकर दक्षिण-पश्चिम मानसून का रूप ले लेती है।
फ्लोन द्वारा दिए गए तथ्यों से स्पष्ट है कि यह सिद्धांत भी तापीय प्रभाव पर ही आधारित है। वस्तुत: अनेक विद्वानों ने प्रथम तथा इस सिद्धांत में कोई विशेष अंतर नहीं बताया है, लेकिन एक मौलिक अंतर यह है कि इसमें अंतः उष्ण अभिसरण को आधार माना गया है, जबकि प्रथम सिद्धांत में यह माना जाता है कि यह एक सामान्य क्रिया है। दक्षिण पूर्व की वाणिज्य हवा ही दक्षिण-पश्चिम की मानसूनी हवा में बदल जाता है।
लेकिन इस सिद्धांत की भी वही समस्याएं हैं जो प्रथम सिद्धांत में हैं, अर्थात तापीय प्रभाव में इतनी अनिश्चितता क्यों होती है। जबकि सूर्य एक निश्चित समय में उत्तरायण और दक्षिणायन की स्थिति में आ जाता है। तापीय विश्वत रेखा स्वयं अनिश्चित होती है। तभी तो इसका प्रभाव शिवालिक तक होता है। और कभी वह 12 डिग्री से 17 डिग्री उत्तरी अक्षांश के मध्य रह जाती है तापीय विषुवत रेखा के इस अनिश्चितता के कारण बाढ़ और सूखे की स्थिति हो जाती है। जब तापीय विषुवत रेखा, कर्क रेखा के दक्षिण में रहती है तो मध्य भारत में वृहत् निम्न भार का निर्माण नहीं हो पाता है और वहां सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसके विपरीत अगर तापीय विषुवत रेखा शिवालिक क्षेत्र में होती है तो न केवल वृहत् निम्न भार का निर्माण होता है, बल्कि उत्तर भारत में वर्षा और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। तापीय विश्वत रेखा की अनिश्चितता की कोई व्याख्या नहीं होने के इस सिद्धांत को अधिक विश्वसनीयता प्राप्त नहीं है।
जेट स्ट्रीम सिद्धांत/आधुनिक संकल्पना
इस सिद्धांत का प्रतिपादन मानसून के संदर्भ में मौसम वैज्ञानिक येस्ट द्वारा किया गया है। बाद के वर्षों में भारतीय मौसम वैज्ञानिक कोटेश्वरम् ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया है। इस सिद्धांत के अनुसार ऊपरी वायुमंडल में 6 से 9 किमी की ऊंचाई के मध्य अत्यंत ही तीव्र गति से चलने वाली हवाएं प्रभावित होती है उसे ही ‘जेट स्ट्रीम’ कहा गया हैै। मध्य में इसकी अधिकतम गति होती है जो 340 किमी प्रति घंटा है। ये हवाएं एक आवरण के रूप में कार्य करती है जो निम्न वायुदाब के ताप, दबाव और अन्य प्रकार के परिवर्तनों को नियंत्रित करती हैै। ऊपरी वायुमंडल में सभी जगह तीव्र हवा चलती हैं, किंतु 4 ऐसे प्रदेश में जहां वे परिभाषित मार्ग का अनुसरण करती हैं और वहां हवाएं उन्हीं नामों से जानी जाती हैं –
- ध्रुवीय रात्रि जेट : 60 डिग्री
- ध्रुवीय सीमांत जेट : 30-60 डिग्री
- उपोष्ण पछुआ जेट : 20-35 डिग्री
- पूर्वी जेट : 8-35 डिग्री
इन 4 जेट हवाओं में से अंतिम 2 जेट हवाओं का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप पर पड़ता है और ये हवाएं भारत में मानसून को नियंत्रित करती हैं। जाड़े की ऋतु में भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर उपोषण जेट हवाएं चलती हैं, जिसकी दिशा पश्चिम से पूर्व की तरफ होती है। यह ठंडी हवा का स्तंभ है जो सतह पर हवाओं को ढकेलती है। इससे सतह पर उच्च भार का निर्माण होता है। इसी उच्च भार से हवाएं बंगाल की खाड़ी की तरफ प्रभावित होती है। जाड़े की ऋतु में यें हवाएं बंगाल और बिहार में ठंडे मौसम को लाती हैं। क्योंकि ये हवा महाद्वीप से समुद्र की तरफ चलती हैं।
अतः जाड़े की ऋतु में देश के अधिकतर भागों में शुष्क वातावरण होता है। ये हवाएं जब बंगाल की खाड़ी में आती हैं तो फेरल के नियम का अनुसरण करते हुए उत्तर पूर्व मानसून का रूप ले लेती हैं और समुद्री सतह से गुजरने के कारण तमिलनाडु के तटीय
प्रदेशों में भारी वर्षा करती हैं। लेकिन गर्मी की ऋतु में परिस्थिति भिन्न हो जाती है। भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर उष्ण पूर्व जेट हवाएं चलने लगती है और उपोष्ण जेट हवाएं उत्तर की तरफ खिसक जाती हैं।
उष्ण पूर्वी जेट एक मौसमी हवा है। इसकी उत्पत्ति का संबंध मध्य एशिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया के पर्वतीय और पठारी भाग पर पड़ने वाले सूर्यतप का परिणाम है। यहां की गर्म हवाएं लंबवत रूप से ऊपर उठने लगती हैं। ऊपर उठती ये हवाएं उत्तर तथा दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती हैं। दक्षिण की तरफ चलने वाली हवा की दक्षिण-पश्चिम दिशा का अनुसरण करती हैं और वही पूर्वी जेट हवा होती है। अरब सागर के सतह पर पहुंचते-पहुंचते ये हवाएं भी गिरने लगती हैं और उनके गिरने से अरब सागर के सतह पर एक बार फिर वृहद उच्च भार का निर्माण हो जाता है। इसके विपरीत भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर जब यह गर्म हवा पहुंचती है तो सतह के निम्न की हवाओं को ऊपर खिंचने लगती है। इसके ताप के प्रभाव से उपोषण पछुआ जेट हवाएं उत्तर की तरफ खिसक जाती हैं। इस वायु के आगमन होते ही सतह की हवाएं गर्म होकर ऊपर उठने लगती हैं सारे भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर एक वृहत निम्न भार का निर्माण हो जाता है। इसके विपरीत सागर की सतह पर उच्च भार का निर्माण होता है। इस निम्न भार और उच्च भार निर्माण प्रक्रिया के फल स्वरुप अरब सागर से हवाएं भारतीय उपमहाद्वीप की ओर चलने लगती हैं, जिसे मानसूनी हवाएं कहते हैं।
सन् 1973 ईस्वी में भारत और तत्कालीन सोवियत रूस के मौसम वैज्ञानिकों ने मिलकर एक शोध कार्य किया जिसका आधार मोनेक्स उपग्रह था, जो मौसम अध्ययन के लिए ही संयुक्त रूप से छोड़ा गया था। इस उपग्रह ने भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा ऋतु के अचानक भारी वर्षा और अचानक सूखे की स्थिति को स्पष्ट किया। इसके अनुसार पूर्वी जेट हवा का प्रभाव न केवल मौसमी है, वरन अनियमित भी है। इसकी गहनता में दैनिक परिवर्तन होता है। जब ये हवाएं भारत के वृहद क्षेत्र पर लंबी अवधि तक चलती है तो भारत के बड़े क्षेत्र में निम्न भार का निर्माण होता है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, लेकिन जब में हवाएं कमजोर होती है तो उत्तर में चलने वाली उपोषण जेट हवा इसे दक्षिण की तरफ ढकेल देती है, और मैदानी भाग के ऊपर प्रवाहित होने लगती है। अतः निम्न भार के बदले उच्च भार का निर्माण होता है और उसी के साथ सूखे की स्थिति का आगमन हो जाता है। पुनः जब पूर्वी जेट का आगमन होता है, तो नवीन निम्न भार बनता है और मानसूनी हवा पुनः प्रवाहित होने लगती है।
अलनीनो एक गर्म समुद्री जलधारा
अलनीनो एक प्रकार की उपसतही गर्म समुद्री जलधारा है। जो पेरू के तट पर सम्मान्यत: उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। यह गर्म जलधारा विश्वव्यापी मौसमी प्रभाव डालती है। मानसून की उत्पत्ति और उसका प्रभाव को इस सिद्धांत से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। अलनीनों का अध्ययन सर्वप्रथम गिलबर्ट वाल्कर (अमेरिका) द्वारा किया गया था।
गिलबर्ट वाल्कर के अनुसार इसके गर्म जल के प्रभाव से पहले दक्षिणी विषुवतीय गर्म जलधारा का तापमान बढ़ जाता है, क्योंकि यह जलधारा पूर्व से पश्चिम की ओर जाती है। इसलिए संपूर्ण मध्य प्रशांत का जल गर्म हो जाता है और एक वृहद निम्न भार का निर्माण होता है। लेकिन कभी-कभी उस निम्न भार का विस्तार हिंद महासागर के पूर्वी मध्यवर्ती क्षेत्र तक हो जाता है। ऐसी स्थिति में निम्न यह निम्न भार मानसून की दिशा को संशोधित कर देती है। इस निम्न भार के संदर्भ में भारतीय उपमहाद्वीप, बंगाली खाड़ी, अरब सागर और हिंद महासागर के अधिकतर क्षेत्र उच्च भार का निर्माण करने लगते हैं।
इसके अतिरिक्त हेडली चक्र तथा वाकर चक्र भी मानसून को प्रभावित करता है। हेडली चक्र के मजबूत होने की स्थिति में मानसून अच्छा होता है, जबकि वाकर चक्र के मजबूत होने की स्थिति में मानसून खराब होता है।
अतः उपरोक्त तथ्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानसून उत्पत्ति संबंधित सिद्धांतों में जेट स्ट्रीम सर्वाधिक विश्वसनीय है। लेकिन मानसून की उत्पत्ति का कोई विशेष कारण नहीं है, बल्कि इसकी उत्पति और प्रवृतियां कई कारकों के सम्मिलित प्रभावों का प्रतिफल है। वर्तमान में कई कार्य मानसून से संबंधित किए गए हैं, हालांकि मानसून की उत्पत्ति एवं प्रभाव की पूर्ण व्याख्या अभी भी पूर्णतः नहीं हो पायी है। अतः विशेष अनुसंधान की आवश्यकता है।
बाढ़ के कारण, परिणाम एवं उसके नियंत्रण
बाढ़ तथा सूखा मानसूनी जलवायु की विशेषता है। अतिवृष्टि – बाढ़ तथा अनावृष्टि – सूखे को जन्म देती है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार जब नदी का जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर प्रवाहित होने लगता है, तो बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है।
भौगोलिक वितरण की दृष्टि से भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र को चार भागों में बांटा गया है।
- उत्तर-पूर्वी भारत : इस क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र एवं उसकी सहायक नदियों के जलस्तर में प्रतिवर्ष भारी उछाल आता है। इस क्षेत्र में बाढ़ की सर्वाधिक गहनता असम में होती है।
- पूर्वी भारत : इसके अंतर्गत पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल की नदियों में आने वाली बाढ़ को रखा गया है। इस क्षेत्र में बाढ़ के लिए मुख्य उत्तरदायी नदियां हैं – गंगा, कोसी, दामोदर, गंडक, घागरा, सोन, पुनपुन, कमला एवं बलान नदी आदि।
- पूर्वी तटीय प्रदेश : पूर्वी तट पर स्थित आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु का तट चक्रवाती वर्षा के कारण बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त ज्वारीय तरंग तथा गोदावरी एवं कृष्णा नदी के जल स्तर में वृद्धि भी बाढ़ की समस्या उत्पन्न करती है।
- पश्चिमी भारत : यहां बाढ़ की बारंबारता बहुत कम होती है। बाढ़ का मुख्य कारण अच्छे मानसून से भारी वर्षा का होना है। पंजाब में रावी, चिनाब और सतलज में बाढ़ की संभावना रहती है। नर्मदा तथा ताप्ती का प्रभाव गुजरात में अनुभव किया जाता है।
बाढ़ के कारण/Reasons of Flood
- वैज्ञानिक नियोजन भी बाढ़ का एक प्रमुख कारण है। कई बाढ़ ग्रस्त नदियों पर बांध बनाकर एक क्षेत्र को तो बचा लिया जाता है, पर दूसरे क्षेत्र में यह जल अपना प्रभाव दिखाता है।
- नदी के बांध का टूट जाना,
- गर्मियों के मौसम में बर्फ का पिघलना,
- नदी की तली में अपरदित पदार्थों का जमा होना जिसकी वजह से नदी की जल धारण करने की क्षमता कम हो जाती है और अतिरिक्त पानी बाहर चला जाता है।
- नदी स्रोत क्षेत्र में वनों की कटाई जल बहाव को तीव्र करता है, जो मैदानी भाग में आकर फैल जाता है।
- स्रोत क्षेत्र में तीव्र ढाल का होना जिसकी वजह से पानी की गति तेज होती है।
- नदियों के टेढ़े-मेढ़े मार्ग होना तथा उनका मार्ग परिवर्तन भी बाढ़ लाता है।
- मैदानी भारत में नदी घाटी के उथले तथा विस्तृत होने से तेजी से जल का फैलाव।
- चक्रवात एवं तीव्र समुद्री तूफान,
- अनिश्चित तथा भारी वर्षा
बाढ़ के प्रभाव/Effects of flood
- मानव तथा पशु संपत्ति का ह्रास होना
- खाद्य एवं चारे की कमी तथा फसल बर्बादी
- मृदा अपरदन
- कंकड़-पत्थर का उपजाऊ भूमि पर आ जाना
- यातायात तथा दूरसंचार व्यवस्था भंग होना
- रहने या आवास की समस्या
- जल-भराव की समस्या
- महामारी फैलने का डर
- जल प्रदूषण की समस्या एवं पीने योग्य पानी की कमी होना
- संपत्ति की बर्बादी
- बेरोजगारी की समस्या
बाढ़ नियंत्रण के उपाय/Flood control measures
बाढ़ नियंत्रण को रोकने के लिए दो उपाय किए गए हैं।
(1) संरचनात्मक नीतियां (Structural policies) :
- 1954 में राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की गई।
- बहुउद्देश्य परियोजनाओं का निर्माण किया गया। जैसे – दामोदर घाटी परियोजना, भाखड़ा नांगल परियोजना, कोसी परियोजना तथा हीराकुंड परियोजना आदि।
- वनों की कटाई पर रोक लगाई गई तथा वृक्षारोपण किया जाना।
- सिंचाई करने के नए तरीके अपनाए जाए।
- पशुओं को ठहरने की व्यवस्था की जाए।
- बाढ़ प्रतिरोधी फसल उगाई जाए।
- छोटे-छोटे बांध बनाए जाएं।
- जल को इकट्ठा करने के लिए जलाशय बनाए जाए।
- बाढ़ में मत्स्य पालन, सिंघाड़ा एवं कमल की खेती की जाए।
(2) गैर-संरचनात्मक नीतियां (Non-structural policies) :
- आपदा से रक्षा के लिए कानून बनाए जाएं,
- बीमा योजना एवं फसल बीमा योजना अपनाई जाए,
- सरकार द्वारा सस्ते ऋण की योजना की जाए,
- बाढ़ चेतावनी प्रणाली का प्रयोग किया जाए।
इस प्रकार भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने आपदा तैयारी के संबंध में ‘सामूहिक जागरूकता’ नामक परियोजना शुरू की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वतंत्रता के बाद से ही बाढ़ नियंत्रण की दिशा में काफी प्रयास किए गए। इसके बावजूद इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो पाया है। बाढ़ को नियंत्रित करने के प्रयास के साथ-साथ, बाढ़ को एक अनिवार्य पारिस्थितिकी के रूप में देखने की आवश्यकता है। भारतीय किसान बाढ़ की आपदाओं को झेलने के लिए तैयार रहता है, क्योंकि बदले में उसे हर साल उपजाऊ मिट्टी मिलती है। जिस पर वह कम से कम उर्वरक का उपयोग करके अच्छी फसल उगा लेता है।
मानसूनी अनिश्चितता तथा अनियमितता के साथ-साथ वर्षा का असमान वितरण भारत में सूखे का मूल कारण है। भारत के संपूर्ण क्षेत्रफल के लगभग 12% में औसत वर्षा 60 सेंमी से भी कम होती है और केवल 8% भाग में ही औसत वर्षा 250 सेंमी से अधिक होती है। स्वभाविक है कम वर्षा तथा अनियमित वर्षा वाले क्षेत्र प्रायः सूखा प्रभावित होते हैं। भारत का दो तिहाई कृषि क्षेत्र शुष्क कृषि क्षेत्र है, जहां वर्षा का औसत 110 सेंमी से कम है। यहां नहर सिंचित क्षेत्र को छोड़कर शेष क्षेत्र सूखे के प्रभाव में रहता है।
सूखा का अर्थ
सिंचाई आयोग (1962) के अनुसार, ऐसे क्षेत्र को सूखाग्रस्त माना गया है। जहां वर्षा की मात्रा 75 सेंमी या उससे कम होती है। जबकि भारत के मौसम विभाग (IMD – Indian Meteorological Department) ने ‘सूखा’ उस मौसम स्थिति को बताया है जिसमें मध्य मई से मध्य अक्टूबर के बीच लगातार किसी 4 सप्ताह के बीच वर्षा की मात्रा 5 सेंमी से कम हो, ऐसा होना मानसून की असफलता का धोतक भी होता है।
सूखा कई प्रकार के होते हैं। इनमें प्रमुख हैं।
- वायुमंडलीय
- कृषिगत
- स्थायी
- अल्पकालिक/मौसम
उपरोक्त सभी प्रकार में सामान्य तौर पर यहां कृषि गत सूखा पाया जाता है। क्योंकि वर्षा की कमी से मृदा में नमी की मात्रा घटती है, जिसका कृषि उत्पादन पर तुरंत दुष्प्रभाव नजर आता है।
भारत को हाल ही के वर्षों में सूखा का सामना 1965 से 2000 के बीच कई बार करना पड़ा। भारत में प्रत्येक 4 वर्ष के बाद पांचवें वर्ष सूखा पड़ता है तथा 20वें वर्ष भयंकर सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और वैज्ञानिक विश्लेषण उसकी पुष्टि नहीं करता है। स्वतंत्रता के बाद 1966-67 के बाद 1987-88 में बहुत सूखा पड़ा था। सन् 2000 का सूखा भीषण सूखों में से एक था। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव राजस्थान तथा गुजरात राज्यों पर पड़ा।
भारत में लगभग प्रति वर्ष किसी न किसी क्षेत्र में उच्च ताप और न्यूनतम वर्षा की स्थिति होती है और वहां सूखा पड़ता है। गुजरात और राजस्थान में लगातार 4 वर्षों 1984 से 1987 तक सूखे की स्थिति रही। इससे वहां की आर्थिक स्थिति पर भी बुरा प्रभाव पड़ा, यहां तक कि काफी संख्या में लोगों ने चारे के अभाव में पशुओं को भेज दिया, कुछ तो वहां से चले भी गए।
भारत का लगभग दो तिहाई क्षेत्र सूखे के प्रभाव में रहता है। कृषि मंत्रालय के अनुसार 13 राज्यों के 67 जिलों जिले इस समस्या से सर्वाधिक ग्रस्त हैं। वर्षा की तीव्रता (Intensity), वर्षा की आवर्तन (Periodicity), संभाव्य अंतर्भोम जल (Ground water potential) तथा कृषि उत्पाद के आधार पर सूखे की तीव्रता की पहचान तीन स्तर पर की गई है।
- अत्यंत सूखा क्षेत्र : भारत के सूखाग्रस्त कुल क्षेत्रों का 12% इसके अंतर्गत आता है। इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा 50 सेंमी से कम होती है तथा पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उत्तर-पश्चिमी मध्य प्रदेश के क्षेत्र में आते हैं।
- प्रबल सूखा क्षेत्र : इसके अंतर्गत कुल सूखा क्षेत्र का 42% क्षेत्र आता है। सामान्यतः यहां 50 से 100 सेंमी वर्षा होती है। इसके अंदर पठार का वृष्टि छाया प्रदेश, आंध्र प्रदेश का रायलसीमा, तेलंगाना प्रदेश, महाराष्ट्र मराठवाड़ा एवं विदर्भ प्रदेश आते हैं।
- मध्य सूखा क्षेत्र : इसके अंतर्गत सर्वाधिक सूखा क्षेत्र, कुल सूखा क्षेत्र का 46% आता है। यहां औसत वार्षिक वर्षा 100 से 200 सेंमी होती है। इसमें जम्मू कश्मीर, झारखंड का छोटानागपुर पठार, उड़ीसा राज्य, छत्तीसगढ़ का बघेल खंड क्षेत्र तथा मध्य-पूर्व का तमिलनाडु क्षेत्र आता है।
200 सेंमी से अधिक औसत वार्षिक वर्षा के क्षेत्र में सूखे की संभावना कम होती है। भारत में कुल 1.07 मिलियन वर्ग किमी क्षेत्र सूखाग्रस्त है। इसकी पहचान भारत के 2 मुख्य क्षेत्रों, दो लघु क्षेत्रों तथा 6 यत्र-तत्र बिखरे जिलों के रूप में मुख्यत: की जा सकती है।
- उत्तर-पश्चिम भारत का क्षेत्र
- पश्चिमी घाट का वृष्टि छाया प्रदेश
- गुजरात का कच्छ एवं सौराष्ट्र क्षेत्र
- आंध्र प्रदेश का रायलसीमा क्षेत्र
- शुष्क ग्रस्त जिला
उपरोक्त क्षेत्र के अतिरिक्त 6 निम्नलिखित शुष्क-ग्रस्त जिले हैं जो यत्र-तत्र बिखरे हैं।
- उत्तर-प्रदेश का मिर्जापुर
- झारखंड का पलामू
- पश्चिम बंगाल का पुरुलिया
- उड़ीसा का कालाहांडी
- तमिलनाडु का तिरुनेलवेली तथा कोयंबटूर जिला
सूखे के कारण
- मानसून की अनिश्चितता
- वर्षा की विभिन्नता
- पर्वतों की दिशा
- अनियमित चक्रवात
- वनों का विनाश
- बंजर भूमि में वृद्धि
- मरुस्थलीकरण
- तापीय वृद्धि
- मिट्टी की संरचना
- जल का अत्यधिक उपयोग
- जल प्रबंधन पर ध्यान नहीं
- तीव्र जनसंख्या वृद्धि
- नृत्यवाही नदियों का अभाव, खासकर प्रायद्वीपीय भारत में
सूखे से उत्पन्न समस्याएं
- सिंचाई के लिए जल अभाव
- पीने के जल का संकट
- खाद्यान्न की समस्या
- पशु चारे की फसल की कमी
- कच्चे माल की कमी (जो कृषि पर आधारित है)
- मूल्य वृद्धि
- वनस्पतियों के विकास में बाधा
- पारिस्थितिकी असंतुलन
- विद्युत उत्पादन में कमी
- बेरोजगारी
- मृदा अपरदन
- बीमारियां/महामारी का आरंभ
- नैतिक पतन, जैसे – आत्महत्या तथा चोरी
- प्रवास – जैसे मारवाड़ी, पंजाबी, सिन्धी और बंगाली
सूखे से उत्पन्न समस्याओं के समाधान हेतु विभिन्न कार्य
- बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना
- लघु स्तरीय सिंचाई योजनाओं का विकास
- कृत्रिम वर्षा
- सूखाग्रस्त क्षेत्र विकास कार्यक्रम
- मरू विकास कार्यक्रम
- कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम
- राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना
- गंगा कल्याण योजना
- 10 लाख कुआं कार्यक्रम
- राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन
सूखे से संबंधित कुछ सुझाव
- जनसंख्या की तीव्र वृद्धि पर नियंत्रण
- जन सामान्य की सहभागिता एवं पंचायतों की भूमिका में गुणात्मक तथा मात्रात्मक वृद्धि
- स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करना
- आपात प्रबंधन
- आधारभूत संरचना में विदेशी निवेश
- प्रशासनिक एवं राजनीति में पारदर्शिता
- पूर्व चेतावनी के मॉडल का विकास
- वानिकी एवं सामाजिक वानिकी का विकास
- लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना
- पशुपालन एवं डेयरी उद्योग का विकास
- बंजर भूमि का विकास
- पशु चारा बैंक की स्थापना
- जल संरक्षण हेतु तालाब की मरम्मत
- नेहरू का निर्माण एवं उनका सतह पक्कीकरण
- छिड़काव विधि
- टपक सिंचाई
- कम पानी वाली फसल उगाना
- जलवायु के अनुसार कृषि करना
- समरसेबल (बोरिंग) पर प्रतिबंध एवं उनके लिए परमिशन
- पुराने सरकारी नलकूपों का पुनर्निर्माण
क्रांति से पूर्व भारत सूखा, अकाल अथवा दुर्भिक्ष का पर्याय बना हुआ था। यहां के मध्ययुगीन इतिहास को देखने से स्पष्ट होता है कि सूखाग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले मारवाड़ी, पंजाबी और सिंधी जनसंख्या का राष्ट्रव्यापी विसरण हुआ है। परंतु समय के परिवर्तन के साथ भारत का खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया। हरित क्रांति ने खाद्यान्न की कमी तथा अकाल से भारत को मुक्ति दिलाई। यदि मौसम दुष्प्रभाव अपने यथार्थ रूप में विद्यमान है। यद्यपि भारत सरकार ने इससे निजात पाने के लिए न सिर्फ कई दीर्घकालीन योजनाएं – जैसे सिंचाई साधनों का विकास, नवीन बीजों का विकास व वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के प्रोत्साहन आदि पर बल दिया, बल्कि लघु कालीन योजनाओं पर भी विशेष ध्यान दिया। इस प्रकार सुझावों के साथ-साथ प्रशासनिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता तथा केंद्र एवं राज्यों के सहयोग से सूखे की समस्या का स्थायी समाधान निकाला जा सकता है।
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