भू-पटल पर स्थित सभी आकृतियों एवं स्तंभों के बीच गहराई एवं घनत्व में भिन्नता के बावजूद स्थिरता एवं संतुलन बना रहता है। इस स्थिति को भू-संतुलन या समस्थिति कहते हैं। स्तंभों में पर्वत, पठार, मैदान, महासागरीय बेसिन आदि आते हैं।
भू-संतुलन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम डटन महोदय ने 1889 में किया था, लेकिन इस प्रकार की अवधारणा का विकास 1850 के दशक में ही ऐयरी एवं प्राट भूगोलवेत्ताओं द्वारा किया गया।
ब्रिटिश भूगर्भ शास्त्रीयों द्वारा भूगर्भिक संतुलन की संकल्पना हिमालय के संदर्भ में दी गई। समस्थिति सिद्धांत की खोज 1869 में गंगा, सिंधु मैदान में अक्षांशों के निर्धारण के लिए भूगणितीय सर्वेक्षण के दौरान हुई थी। इस सर्वेक्षण के लिए त्रिभुजीकरण एवं खगोलीय विधि का प्रयोग किया गया। प्राट के ही संरक्षण में भारत के मध्यवर्ती मैदान क्षेत्र में कल्याण नामक स्थान का अक्षांश खगोलीय एवं त्रिभुजीकरण दोनों ही विधियों से निकाले गए तो भिन्न परिणाम निकले एवं दोनों के बीच 5.236 का अंतर आया। इससे एक नई जटिलता उत्पन्न हो गई और यही अंतर भू-संतुलन का जनक बन गया।
इस अंतर का अध्ययन प्राट एवं ऐयरी जैसे भूगोलवेत्ताओं ने किया। कल्याण शिवालिक हिमालय से 60 मील अर्थात 96 किमी दक्षिण में स्थित है। आरंभ में यह अवधारणा विकसित की गई कि हिमालय क्षेत्र में अधिक घनत्व के पदार्थ होने के कारण ही ये पेंडुलम को अपनी ओर खींचता है, जिसके कारण यह अक्षांश अंतर आया, लेकिन हिमालय प्रदेश की चट्टानों के अध्ययन के बाद अधिकतर विद्वानों ने इस अवधारणा को गलत बताया। एयरी ने कहा कि हिमालय की संरचना कम घनत्व की चट्टानों से हुई है, अतः इसके द्वारा पेंडुलम के आकर्षण का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह मानवीय गलती से हो सकता है।
लेकिन, इस विवाद ने एक बहस की शुरुआत की, जिसका केंद्र रॉयल ज्योग्राफिकल और लंदन बना। इसके सभागार में ही सर्वप्रथम प्रेयरी और प्राट ने भूपटलीय संरचना से संबंधित विचार दिए, जिसका आधार हिमालय के प्रभाव का परिणाम था।
प्राट का विचार
इन्होंने यह विचार प्रस्तुत किया कि स्थल मंडल के सभी स्तंभ विभिन्न घनत्व की चट्टानों के बने हैं। जिन स्तंभों का घनत्व कम है, वह अधिक मोटाई के हैं और जिनका घनत्व अधिक है, वह कम मोटाई के हैं। उन्होंने कहा कि हिमालय कम घनत्व का है, अतः पेंडुलम को आकर्षित करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
प्राट के अनुसार, स्थलमण्डलीय स्तंभ ठोस स्थलमंडल के नीचे एक क्षतिपूर्ति रेखा का निर्माण करता है, इसके ऊपरी घनत्व में भिन्नता पायी जाती है, जबकि रेखा के नीचे अधिक घनत्व की सीमा में इसकी पहचान नहीं हो पाती। सीमा का घनत्व सामान्यतः 3 से 3.1 माना गया है। यह भिन्न घनत्व एवं समान गहराई की अवधारणा कहलाती है।
प्राट की इस अवधारणा की आलोचना एयरी के द्वारा की गई।
एयरी का विचार
इन्होंने एक वैकल्पिक संकल्पना प्रस्तुत की, इनके अनुसार स्थलमंडल के नीचे किसी प्रकार की क्षतिपूर्ति रेखा संभव नहीं है, बल्कि स्थलमंडल के सभी स्तंभ तैराव की स्थिति में है। इसकी तुलना हिम शिलाखंड के तैराव से की जा सकती है, जिसका एक भाग जल के ऊपर एवं 9 गुना जल के नीचे रहता है, अतः स्थलमंडल के ऊपर उठा भू-भाग अपनी ऊंचाई की अपेक्षा 9 गुना अध:स्तर में डूबा होना चाहिए। लेकिन सभी शिलाखंड समान घनत्व के होते हैं, अतः सभी स्तंभ भी समान घनत्व के होंगे, जिसकी ऊंचाई एवं गहराई में विविधता होगी। पर्वत सर्वाधिक ऊंचे स्तंभ है, अतः वे सर्वाधिक गहराई तक अवस्थित होंगे और अधिक गहराई तक अवस्थित होने के कारण ही पर्वत संतुलन की स्थिति में है। उन्होंने कहा कि पर्वतों की जड़े होती है। एयरी का विचार समान घनत्व भिन्न गहराई की अवधारणा प्रस्तुत करता है।
एयरी ने हिमालय को कम आकर्षण का कारण भी बताया। उन्होंने कहा कि साहुल रेखा का हिमालय की ओर कम झुकाव इसलिए रहा कि ऊंचे पर्वतों द्वारा अपने नीचे काफी बड़े क्षेत्र से बेसाल्ट पदार्थ को हटा दिया गया है। कम घनत्व के पर्वत की जड़े अध:स्तर में स्थित है।
एयरी के अनुसार, जितनी भी ठोस चट्टानें हैं, वे अधिक घनत्व के चिपचिपे अध:स्तर पर अवस्थित है, परंतु प्राट का सिद्धांत भी यह स्पष्ट करता है कि पर्वतों की जड़े होती है। प्राट के अनुसार, पर्वतीय स्तम्भ कम घनत्व के होते हैं और उसके दोनों और अवस्थित पठारी एवं मैदानी स्तंभ अधिक घनत्व के होने के कारण पर्वतीय स्तम्भ को जकड़े हैं और कम घनत्व का स्तंभ पर्वतीय जड़ के रूप में कार्य करता है।
प्रारंभ में, एयरी के विचार को अधिक अनुकूल माना गया, लेकिन बाद के वर्षों में जब पृथ्वी की आंतरिक तापीय स्थिति एवं लावा पदार्थों का गहन अध्ययन हुआ तो पाया गया कि 32 किमी की गहराई के बाद सभी पदार्थ अधिक तापमान के कारण गिले एवं चिपचिपे हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में पर्वत की जड़ों की पहचान करना गलत है, क्योंकि अधिक गहराई पर मैग्मा चेंबर अवस्थित है, अतः पर्वतों की गहराई अविश्वसनीय है। पुनः पर्वत, पठार, मैदान एवं चट्टानों के घनत्व में भिन्नता पायी जाती है। इस दृष्टि से एयरी की तुलना में प्राट का विचार अधिक वैज्ञानिक एवं विश्वसनीय है।
हेफोर्ड एवं बोवी के अनुसार
ये एक अमेरिकी विद्वान थे। इन्होंने प्राट एवं एयरी के कार्यों का अध्ययन किया और उसकी विश्वसनीयता में वृद्धि हेतु महत्वपूर्ण संशोधन किए। उन्होंने क्षतिपूर्ति तल के विचार को अधिक उपयोगी बताया। इन्होंने इसकी आंतरिक स्थिति 100 किमी की गहराई तक बताया। इसके नीचे समान घनत्व की शैलें स्थित होंगी। उन्होंने बताया कि ऊंचाई एवं घनत्व में व्युत्क्रमानुपाती संबंध होता है। यह प्राट के विचार से मेल खाता है। इन्होंने प्राट के विचारों की पुष्टि के लिए विविध धातुओं के 8 टुकड़ों को पारे में डाला तो पाया कि अलग-अलग घनत्व एवं विभिन्न ऊंचाई के बावजूद ये पारे के अंतर्गत एक संतुलन रेखा का निर्माण करते हैं। अतः यदि प्रयोगशाला में यह संभव है तो पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संदर्भ में भी यह संभव हो सकता है।
जोली एवं आर्थर होम्स के विचार
जोली महोदय ने भी अप्रत्यक्ष रूप से प्राट के विचार का ही समर्थन किया। इसके अनुसार सभी स्थलमंडलीय स्तंभ सीमा के अंतर्गत एक क्षति-पूर्ति रेखा पर न होकर एक क्षति पूर्ण क्षेत्र में संतुलित है। यह सामान्यतः 15 किमी चौड़ी एवं 80 से 100 किमी की गहराई पर स्थित है। क्योंकि भूपटल के अंदर चट्टानें चिपचिपी अवस्था में है, अतः क्षतिपूर्ण तल की कोई ज्यामितीय रेखा नहीं हो सकती, बल्कि यह सदैव क्षेत्रीय अवस्था में होगी। यह विचार बाकी वैज्ञानिकों की तुलना में अधिक विश्वसनीय है।
होम्स की मान्यता थी कि ऊंचे भू-भाग हल्के पदार्थों से निर्मित होते हैं और संतुलन बनाए रखने के लिए अधिकांश भाग गहराई में डूब जाते हैं। इन्होंने वलित पर्वत के निर्माण की तीसरी अवस्था में होने वाली ज्वालामुखी क्रिया को भू-संतुलन का परिणाम बताया। द्वितीय चरण में भूसन्नति के क्षेत्र में न सिर्फ वलन होता है, वरन स्थलीय भार में वृद्धि होती है, इसे भू-संतुलन की विसंगति कहा गया है। इस विसंगति को संतुलन की अवस्था में लाने के लिए वलन का दबाव कम होने के बाद इक्लोजाइट पदार्थ भूपटल में प्रवेश कर संतुलन की स्थिति कायम करते हैं। होम्स ने स्वीकार किया कि व्यवहार में पृथ्वी पर पूर्ण संतुलन या समस्थिति नहीं पाई जाती, लेकिन संतुलन की दशा अवश्य पाई जाती है।
हेस्कानेन का विचार
स्वीडिश भूगर्भशास्त्री हेस्कानेन का कार्य सर्वाधिक मान्यता रखता है। इसका कार्य भूकंपीय तरंगों से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। अतः यह सर्वाधिक विश्वसनीय है। बाद के वर्षों में प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत से भी इस सिद्धांत की पुष्टि होती है। हेसकिरण निम्नलिखित अवस्थाएं विकसित की है।
- सभी स्तंभों के घनत्व अलग-अलग होते हैं। यह प्राट से मिलता है।
- सीमा के अंतर्गत कोई क्षतिपूर्ण रेखा या क्षेत्र नहीं होता है। यह प्राट एवं जोली की आलोचना है।
- सभी स्तंभों की मोटाई अलग-अलग होती है तथा मोटाई एवं घनत्व में व्युतक्रमणीय संबंध होता है। यह हैफोर्ड के विचार से समरुपता है।
- सभी स्तंभ तैराव की स्थिति में है लेकिन तैराव नियम के अनुरूप नहीं है। एयरी एवं जोली के अनुसार।
- सभी स्तंभों के अंतर्गत घनत्व की लंबवत विषमता होती है, अर्थात पृथ्वी के आंतरिक भाग की ओर जाते हुए स्तंभ की ओर घनत्व में वृद्धि होती है।
अतः हेसकिरण के कार्यों को आलोचकों ने प्राट एवं एयरी के कार्यों का मिश्रण बताया है। अतः हेस्कानेन के कार्यों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि पर्वत की जड़ होती है। {इंडिया 24 लाइव} पर्वतीय संरचना कम घनत्व के चट्टानों की होती है, जबकि निम्न भाग अधिक घनत्व के चट्टानों से झगड़ा रहता है। वर्तमान प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत तो पर्वत की जड़ों की पुष्टि नहीं करता, लेकिन वलित पर्वत श्रृंखलाओं के दोनों तरफ उपस्थित अधिक घनत्व के प्लेटें या चट्टानों की स्थिति से इस तथ्य की स्वभाविक पुष्टि होती है। लेकिन यह धारणा की वलित पर्वतों के स्तंभ अन्य पर्वतों के स्तंभ की तुलना में अधिक गहरे होते हैं, इसकी विश्वसनीय पुष्टि नहीं होती है। क्योंकि अधिकतर परिस्थितियों में वलन से ऊंचाई में वृद्धि होती है और निम्न क्षेत्र में तापीय वृद्धि के कारण इसकी पहचान समाप्त हो जाती है। फिर भी अन्य सभी सिद्धांतों की तुलना में हेसकिरण के कार्यों को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है।