Weathering and Erosion in Hindi | बहिर्जात बल या अनाच्छादन | अपक्षय एवं अपरदन

भूपटल पर अंतर्जात बलों के द्वारा निर्मित आधारभूत स्थलाकृतियों पर बहिर्जात बलों द्वारा समतलीकरण करने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। यह बहिर्जात बल अनाच्छादन कहलाता है। अनाच्छादन के अंतर्गत अपक्षय और अपरदन की सम्मिलित क्रियाएं होती हैं।

अनाच्छादन की क्रियाओं के फलस्वरुप ऋतुक्षरित कण बालु, शिल्ट और क्ले के आकार में परिवर्तित हो जाती है एवं लंबे समय तक किसी एक ही प्रदेश में अवस्थित रहते हैं, तो मृदा का निर्माण करते हैं।

अनाच्छादन की क्रियाओं के फलस्वरुप ऋतुक्षरण कण बालू, शिल्ट और क्ले के आकार में परिवर्तित हो जाते हैं एवं लंबे समय तक किसी एक ही प्रदेश में अवस्थित रहते हैं तो मृदा का निर्माण होता है। अतः ऋतुक्षरण और अपरदन के दूत न केवल स्थलाकृतियों में संशोधन का कार्य करते हैं बल्कि मृदा की उत्पत्ति में भी सहायक होते हैं।

अपक्षय के प्रकार एवं प्रभावित करने वाले कारक :


होम्स के अनुसार – अपक्षय उन विभिन्न भू पृष्ठीय प्रक्रमों का प्रभाव है, जो शैलों के विनाश एवं विघटन में सहायक होते हैं। बशर्ते कि ढीले पदार्थों का बड़े पैमाने पर परिवहन न हो।

अतः यह एक स्थैतिक प्रक्रम है जिसके द्वारा शैले अपने ही स्थान पर टूट-फूट कर या ढीली पड़ कर बिखर जाती हैं। इस प्रक्रिया में मौसमी परिस्थितियों का सर्वाधिक योगदान रहता है, इसलिए इसे ऋतुक्षरण कहा गया है। ऋतुक्षरण की प्रक्रिया तीन प्रकार की होती है।

  1. भौतिक ऋतुक्षरण
  2.  रासायनिक  ऋतुक्षरण
  3.  जैविक ऋतुक्षरण

भौतिक ऋतुक्षरण :


इसमें चट्टाने विखंडित तो होती है, लेकिन लेकिन उसके संरचनात्मक में परिवर्तन नहीं होता है तथा प्राथमिक खनिज अपने मूल रूप में ही रहते हैं, द्वितीयक खनिज में परिवर्तन नहीं होता है। उदहारण के लिए, मई, 2021 की हाल की रिपोर्ट के अनुसार इक्वाडोर के पर्यावरण मंत्रालय ने यह जानकारी दी है कि गैलापागोस द्वीप पर एक प्राकृतिक हादसा हो गया है, यहाँ पत्थर की मशहूर संरचना डार्विन आर्क कटाव के कारण अचानक गिर गई, भौतिक ऋतुक्षरण निम्न कारकों से प्रभावित होते हैं।

  1. परमाफ्रास्ट एवं तुषार   
  2. ताप   
  3. जल   
  4. वायु   
  5. दाब
  • परमाफ्रास्ट : वह परिस्थिति है जिसमें जल कणों का हिम में बदलना एवं पुणे हिम का पिघलना एक सतत प्रक्रिया के रूप में होता है। साइबेरिया में ऐसा देखा जाता है। जब तुषार प्रदेशों में किसी छिद्र या दरार में जल का जवाब होता है, तब शीत रात्रि में जमने से ठोस हिम बन जाती है, जिससे इसके आयतन में 10% की वृद्धि होती है, जिससे दरारों की संधियों का प्रसिर होता है और शैले टूटने लगती है। प्रगतिशील हिमानी द्वारा भी जल चट्टानों की दरारों और संधियों में प्रवेश कर जाते हैं और पुनः ठोस ठोस बनने की प्रक्रिया में चट्टानों को विखंडित कर देते हैं। इस प्रकार का अपक्षय ध्रुवीय प्रदेश, परमाफ्रास्ट प्रदेश, अति उच्च पर्वती प्रदूषण होता है।
  • तापीय प्रभाव : जहां दैनिक तापांतर अधिक होते हैं तथा वातावरण में शुष्कता होती है, वैसे प्रदेशों में दिन में तापीय प्रभाव से चट्टाने फैलती हैं एवं शीत रात्रि में तापीय गिरावट से चट्टाने सिकुड़ती हैं। क्रमशः इस प्रक्रिया से चट्टाने कमजोर होती है और अंत में विखंडित हो जाती हैं। मरुस्थलीय प्रदेशों में बालु का निर्माण इसी प्रक्रिया द्वारा ही होता है।
  • जलीय प्रभाव : तपती शैलों (मरुस्थलीय प्रदेश) में वर्षा की बूंदों के गिरने से उसमें चटकने लाती हैं, और वह टूटकर बिखरने लगती हैं।
  • अपदलन : ताप एवं आर्द्र वायु के प्रभाव से अपक्षय की क्रिया होती है। ताप एवं आर्द्रता के प्रभाव से ग्रिनाइट जैसी चट्टानों का ऊपरी भाग कमजोर होने लगता है और वह प्याज के छिलके की तरह क्रमशः ऋतुक्षरित एवं अपरदित होने लगती हैं। छोटानागपुर प्रदेश व मैसूर के पठार में यह प्रक्रिया होती है।
    दाब मुक्ति द्वारा विघटन – पृथ्वी के अंदर आग्नेय या रूपांतरित शैलों में दाब एवं ताप के कारण कणों की रचना होती है। जब ऊपरी शैलों का अपरदन होता है तो निचली शैलों के ऊपर दबाव कम हो जाता है, जिससे इसमें दरारें एवं चट्टाने पड़ जाती हैं तथा शैलों का विघटन हो जाता है।

रासायनिक ऋतुक्षरण :


वायुमंडलीय गैसों का संयोग नमी और जल से होने पर घोलक साधक बन जाते हैं, जिनके सहयोग से चट्टानों के आयतन में कमी या अधिकता आती है, और शैलें विघटित होने लगती है। इस क्रिया से चट्टानों के रासायनिक गुणों में परिवर्तन होने लगता है एवं प्राथमिक खनिज का परिवर्तन द्वितीय खनिज में हो जाता है। रासायनिक ऋतुक्षरण की चार प्रमुख प्रक्रियाएं हैं।

  1. बिलयन 
  2. ऑक्सीकरण
  3. हाइड्रेसन
  4. कार्बनिकरना 
  5. सिलिका पृथक्करण
  • विलयन : यह प्रक्रिया चूना पत्थर तथा डोलोमाइट प्रदेश की विशेषता है। वे चट्टानें जिसमें चूने की अधिकता है। वहां स्वच्छ जल के संपर्क में आने पर चूना घूलने लगता है जिससे गैर चूना पदार्थ कमजोर होने लगते हैं और चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं, यहां अपरदन की क्रिया जल्द ही प्रारंभ हो जाती है।
  • ऑक्सीकरण : ऑक्सीजन जल से मिलकर शैलो के खनिज को ऑक्साइड में परिवर्तित कर देता है, जिससे शैलों का अपघटन होता है। इसका प्रभाव लौह युक्त चट्टानों में सर्वाधिक पड़ता है। इससे लौह खनिज के आयतन में वृद्धि हो जाती है और वे कमजोर हो जाती हैं। अंततः अपरदित हो जाती हैं। यह आर्कियन युग की परिवर्तित चट्टानों की विशेषता है।
  • हाड्रेसन/जलसंयोजन : शैलें जल को ग्रहण करतु हैं जिससे खनिजों का आयतन बढ़ने लगता है और रासायनिक संरचना में परिवर्तन होने लगता है। वस्तुतः प्राथमिक खनिज का द्वितीय खनिज के रूप में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण – मैग्नेटाइट लौह अयस्क का लिमोनाइट में परिवर्तन हो जाना।
  • कार्बनिकरण : जल और कार्बन डाइऑक्साइड मिलकर कार्बोनेट का निर्माण करते हैं, जो घुलनशील होता है और चट्टानों के घुलनशील तत्वों को घूला देते हैं। मुख्यतः सोडियम, कैल्शियम, पोटेशियम को घुलाने की क्षमता रखते हैं। डोलोमाइट और चूना पत्थर की चट्टानों में यह प्रक्रिया पाई जाती है। यह प्रक्रिया मेघालय के पठार में देखी जा सकती है।
  • सिलिका पृथक्करण : इसमें जल का संयोग आग्नेय चट्टानों से होता है और चट्टानें कमजोर हो जाती हैं।

जैविक ऋतुक्षरण :


जैविक तत्व भी अपक्षय में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, चार प्रमुख प्रक्रिया कार्य करती हैं।

  1. सूक्ष्मजीवों का प्रभाव
  2.  वनस्पति का प्रभाव
  3.  पशुओं का प्रभाव
  4.  मानवीय क्रियाकलापों का प्रभाव
  • सूक्ष्मजीवों में – मुख्यत: कीड़े-मकोड़े विलकारी जीव तथा केंचुआ आते हैं। यह खरोंच प्रक्रिया द्वारा भूमि को कमजोर एवं ढीला कर देते हैं।
  • वनस्पतियों – की जड़े गहराई तक प्रवेश कर भूमि में प्रविष्ट कर दरारों एवं संधियों को विस्तृत कर देती है, शैलों में तनाव और विघटन होते हैं। वनस्पतियों की जड़ों में मौजूद जीवाणु शैल खनिजों को वियोजित कर कमजोर कर देते हैं। यह प्रक्रिया कीलेटन कहलाती है।
  • पशु – पर्वतीय चरागाहों पर अपने खुरों से भूमि एवं शैल को  खरोंच कर कमजोर कर देते हैं। जम्मू और हिमाचल में ऐसा होता है।
  • मानव – डायनामाइट का प्रयोग, सुरंगे, खान, सड़क आदि के निर्माण प्रक्रिया तथा सीढ़ीनुमा खेत बनाने की प्रक्रिया में चट्टानों को कमजोर कर देती है।

ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि विभिन्न प्रकार की प्रक्रिया द्वारा चट्टाने ऋतुक्षरित होती हैं, और ऋतुक्षरित होने के बाद अपरदन के दूत इसे वैसे स्थान तक ले जाते है जो स्रोत क्षेत्र की तुलना में आधार तल के नजदीक अवस्थित है। सामान्यतः ऋतुक्षरित पदार्थों का अपरदन होता है, लेकिन जब ऋतुक्षरित चट्टान कणों में परिवर्तित होकर स्रोत क्षेत्र में ही लंबी अवधि तक रह जाए तो इस मृदा को क्षेत्रीय मृदा कहते हैं।

क्षेत्रीय मृदा की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि मृदा के खनिज कणों में पाए जाने वाली खनिज विशेषता, ऋतुक्षरित होने वाली चट्टान और आधारभूत चट्टान में भी पाई जाती है। काली मृदा, लाल मृदा, लेटराइट मिट्टी, प्रेयरी मृदा, चरनोजम मृदा ऐसी ही मृदा है। ऐसी मृदा में मृदा परिच्छेदिका का निर्माण होता है। नीचे से क्रमश: आधारभूत चट्टानें, ऋतुक्षरित चट्टाने और मृदा स्तर का विकास होता है।

ऊपरी स्तर ‘अ’ और ‘ब’ मृदा का रूप होता है। उनके चट्टाने ऋतुक्षरित चट्टानी स्तर होता हैं। प्रारंभिक मृदा में बालु की प्रधानता है जबकि ऋतुक्षरित के बाद की मृदा में क्ले की प्रधानता है। इससे स्पष्ट होता है कि एक ही संरचना का क्षेत्र परिवर्तन की स्थितियों में बालु से क्ले में परिवर्तित हो जाता है। काफी अंतराल के बाद मृदा की मोटाई में वृद्धि हो सकती है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि अपरदन के दूध कार्य न करें। ज्योंहि अपरदन के दूत सक्रिय होते हैं तो क्षेत्रीय मृदा का विकास बाधित हो जाता है। उसकी जगह विशिष्ट अपरदित स्थलाकृतियों का विकास हो जाता है।

अगर अपरदन के दूत बालु या शिष्ट को बहाकर ले जाता है और किसी दूसरे प्रदेश में उसका निक्षेप कर देता है, तो निक्षेपण की लंबी प्रक्रिया से वहां निक्षेपण मृदा का विकास होता है। इसे अक्षेत्रीय मृदा कहते हैं। इस मृदा की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह भूगर्भिक विषमता को विकसित करती है, अर्थात आधारभूत चट्टानों के खनिज एवं निक्षेपित चट्टानी कणों में कोई समानता नहीं होती, जलोढ़ एवं लोयस मृदा ऐसी ही प्रक्रिया से विकसित हुई है।
एक तीसरे प्रकार की मृदा अंतः क्षेत्रीय मृदा होती है। इसका विकास रासायनिक ऋतुक्षरण का परिणाम है। जब रासायनिक ऋतुक्षरित की प्रक्रिया से चट्टानों का विघटन होता है तो कई प्राथमिक खनिज द्वितीय खनिज में बदल जाते हैं, ऐसी मृदा को अंत: क्षेत्रीय मृदा कहा जाता है। टेरारोसा, टेरारोकसा, रेण्डजीना और तटवर्ती मृदा इस प्रकार की है।

ऋतुक्षरित और अपरदन के दूतों द्वारा मृदा विकास के साथ ही आंतरिक स्थालाकृतिक विकास का भी कार्य किया जाता है। जब तक ऋतुक्षरित पदार्थ बालू, शील्ट, क्ले में परिवर्तित नहीं हो जाता मृदा का विकास संभव नहीं है। ऐसे परिवर्तन में लंबी अवधि की आवश्यकता होती है, लेकिन समानत: अपरदन के दूत इस लंबी अवधि के पूरा होने के पूर्व ही ऋतुक्षरित कणों का स्थानांतरण करने लगते हैं। इस इस स्थानांतरण का लक्ष्य आधार तल होता है और क्षेत्रीय मृदा का विकास बाधित हो जाता है।

अपरदन का अर्थ :


प्रवाहित जल, गतिशील हिमानी, पवने, अर्न्तभौम नदी, समुद्री लहरें आदि गतिशील साधनों द्वारा धरातल के ऊपरी परत के घर्षण और कांट-छांट तथा परिवहन की क्रिया को अपरदन कहते हैं।

इस प्रकार अपक्षय के विपरीत यह एक गतिशील प्रक्रम है। इसमें चट्टानों का टूट-फूट के साथ उसका परिवहन भी होता है।

अपरदन के कारक :


  1.  बहता हुआ जल
  2.  गतिशील हिमानी
  3.  सागरीय लहरें, धाराएं, ज्वारभाटा
  4.  प्रचलित वायु
  5.  भूमिगत जल अपरदन के प्रमुख कारक या दूत

अपरदन के यह सभी दूत अलग-अलग प्रदेशों में अपरदन का कार्य करते हैं और विशिष्ट स्थलाकृतियों का विकास करते हैं। बहते हुए नदी का प्रभाव, आर्द्र प्रदेश की विशेषता है। हिमानी द्वारा स्थल आकृतियों का निर्माण उच्च अक्षांश एवं अति उच्च प्रदेशों में होता है। अंर्तभौम नदी, चूना, पत्थर और डोलोमाइट के कार्स्ट प्रदेशों में स्थलाकृतियों का निर्माण करते हैं। तटवर्ती प्रदेशों की स्थलाकृतियों पर समुद्री तरंगों का प्रभाव रहता है।

डेविस ने बहते हुए जल को अपरदन का सबसे बड़ा दूत माना है। यह संपूर्ण आर्द्र प्रदेशों में प्रभाव डालता है। इसका प्रभाव क्रमिक होता है। इसी आधार पर डेविस ने अपरदन चक्र का सिद्धांत प्रतिपादित किया। पेंक ने भी इस विचार का समर्थन किया, लेकिन दोनों की अपरदन चक्र प्रक्रिया में पर्याप्त विभेद है। अपरदन के दूतों का द्वारा ही महत्वपूर्ण स्थलाकृतियों का विकास होता है।

अपरदन के प्रकार :


अपरदन के दो प्रकार हैं।

  1.  भौतिक अपरदन
  2.  रसायनिक अपरदन
  • भौतिक अपरदन : भौतिक अपरदन के अंतर्गत निम्न प्रक्रियाएं आती है। जैसे –
  1. अपघर्षण :  गतिशील पदार्थों या साधनों द्वारा जैसे – शिलाखंड, गोलाश्म, कंकड़ पत्थर आदि द्वारा शैलों एवं धरातल का छेदन क्रिया द्वारा अपरदन होता है।
  2. सन्निघर्षण :  गतिशील साधनों के साथ प्रवाहित पदार्थ परस्पर टकराकर या रगड़कर छीन पड़ते हैं।
  3. अपवाहन :  शुष्क और अर्ध शुष्क प्रदेशों में पवन द्वारा ढीले रेत के कणों को उड़ाकर ले जाने की क्रिया होती है।
  4. जलगति क्रिया :  बहते जल द्वारा शैलों पर प्रहार होने पर शैले यांत्रिक विधि द्वारा ढीली और खंडित होती हैं।
  5. गृहिकायन :  नदी जल में भंवर उत्पन्न होने से जल की तीव्र तरंगों से नदी जल में विशाल छिद्रों का निर्माण होता है। इससे नदी तल में जलगर्तिकाएं तथा अवनमित कुंड बनते हैं।
  6. उत्पाटन :  हिमनद द्वारा अपने मार्ग में आने वाली चट्टानों को उखाड़कर प्रवाहित करने की क्रिया होती है।
  • रसायनिक अपरदन : यह जल की रासायनिक क्रिया है, इसमें अपरदन के पांच प्रकार सम्मिलित है।
  1. घुलन क्रिया
  2. ऑक्सीकरण
  3. जल योजन
  4. कार्बोनेशण
  5. जल अपघटन

महत्वपूर्ण तथ्य :


  1. उष्ण कटिबंधीय आर्द्र भागों में रसायनिक अपक्षय होता है जबकि उष्ण और शुष्क मरुस्थलीय भागों में भौतिक अपक्षय होता है
  2. विश्व कैनियन का सबसे अच्छा उदाहरण USA में कोलोरेडो नदी पर स्थित ग्रैंड कैनियन है
  3. उत्तरी अमेरिका का नियाग्रा जलप्रपात
  4. दक्षिणी अफ्रीका की जाम्बेजी नदी पर स्थित विक्टोरिया जलप्रपात
  5. भारत में कर्नाटक राज्य में शरावती नदी पर जोग या गरसोप्पा जलप्रपात
  6. नर्मदा नदी पर धुआँधार जलप्रपात
  7. सुवर्ण रेखा नदी पर हुंडरू जलप्रपात
  8. चापाकार डेल्टा – नील नदी और गंगा ब्रह्मपुत्र नदी
  9. पंजाकर डेल्टा – मिसीसिपी मिसौरी नदी का डेल्टा
  10. ज्वारनदमुख डेल्टा – भारत में नर्मदा और ताप्ती का डेल्टा
  11. द्रुमाकृतिक या वृक्षाकार डेल्टा – एब्रो डेल्टा
  12. खारे जल वाली लैगून झील – उड़ीसा की चिल्का झील, आंध्र प्रदेश की पुलिकट झील और केरल की वेम्बानद झील आदि
  13. प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी तट का उत्तरी भाग रिया तट का उदाहरण है
Posted in Uncategorized