Jal Chakra kise kahate hai | जल चक्र क्या होता है?

जल-चक्र का अर्थ :


पृथ्वी एवं जल के स्रोतों के बीच जल का चक्रीय अधिवासीय प्रवाह ही जल चक्र कहलाता है। इसमें जल की अधिवासीय अवस्था में परिवर्तन होता है। क्योंकि जल, चक्र के जल सतत गति की अवस्था में होता है, लेकिन इस प्रकार क्रम में कई अधिवास स्थल होते हैं। जिसमें जल के अधिवास की अवधि भिन्न-भिन्न होती है, लेकिन सभी अधिवासीय अवस्थाओं से जल पुनः अपने स्रोत की अवस्था में आ जाता है, अतः इसे जलचक्र कहते हैं। पृथ्वी तंत्र के पार्थिव जल चक्र में अधिवास का समय विभिन्न वातावरण में अलग-अलग होता है इसे नीचे दी गई तालिका में समझाया गया है।
 अधिवास क्षेत्र               औसतन अधिवास समय

    • वायुमंडल         10 दिन
    • नदी                 2 सप्ताह
    • झील                10 सप्ताह
    • मृदा                 2 से 50 सप्ताह
    • भूमिगत जल      1 वर्ष 10000 वर्ष तक
    • समुद्र                3600 वर्ष
    • ध्रुवीय हिम चादर  15000 वर्ष

अधिवासीय क्षेत्रों में पार्थिव जल का वितरण अत्यंत विषम है। वस्तुतः पृथ्वी तंत्र के कुल जल का 97% भाग समुद्र में है, जबकि महासागर का क्षेत्रफल 71% ही है। इसके विपरीत स्थलीय भाग पर 3% से भी कम जल है लेकिन यह स्वच्छ जल है। इस 3% जल का वितरण भी विषम है। इसे नीचे दी गई तालिका में समझाया गया है।
अधिवास क्षेत्र             स्वच्छ जल का प्रतिशत

  • हिमाच्छादित तथा हिमानी में 75 %
  • वायुमंडल में                0.035 %
  • नदी में                          0.03 %
  • झील में                           0.3 %
  • मृदा नमी के रूप में        0.06 %
  • भूमिगत जल में              24.6 %

पृथ्वी तंत्र के जल, जलचक्र क्रिया चार प्रमुख अवस्थाओं में करते हैं – वाष्पीकरण, संघनन, वर्षण और अपवाह प्रक्रिया से स्रोत तक जाना। अपवाह प्रक्रिया जलचक्र को संतुलित करती है। समुद्री वातावरण से वायुमंडल को 84 प्रतिशत नमी प्राप्त होती है, जबकि भूमि से 16% नमी प्राप्त होती है। 7% जल अपवाह प्रक्रिया द्वारा समुद्र में चला जाता है। यही कारण है कि अपवाह प्रक्रिया जलचक्र का अभिन्न अंग है।

वाष्पीकरण :


जलचक्र की प्रथम अवस्था में वाष्पीकरण का कार्य होता है, इसके अंतर्गत पृथ्वीतंत्र के सभी जल जलवाष्प में बदलने की प्रवृत्ति रखते हैं और जलवाष्प के रूप में ही वायुमंडल में चले जाते हैं। जलवाष्प का निर्माण तीन प्रक्रियाओं से होता है।

  1. बड़े जलाशय से वाष्पीकरण द्वारा
  2. मृदा एवं वनस्पति से वाष्पोत्सर्जन द्वारा
  3. हिमानी एवं हिम क्षेत्रों से उर्ध्वापातन द्वारा

यह प्रक्रिया सतत होती है, लेकिन वायुमंडल में मात्र 0.035 प्रतिशत शुद्ध जल विद्यमान रहता है। यह पृथ्वी की औसत वर्षा की दृष्टि से 8 दिन में ही वायुमंडल को शुष्क बना देगा। लेकिन वायुमंडल जलचक्र की वाष्पीकरण क्रिया द्वारा 0.035 प्रतिशत शुद्ध जल की सतत आपूर्ति होती रहती है, अतः वायुमंडलीय शुष्कता की स्थिति नहीं आती।

संघनन :


संघनन जलचक्र की दूसरी अवस्था है और वायुमंडल में कार्य करती है। इसके अंतर्गत यह गैसीय अवस्था से जलबिंदु या हिमकणों में बदल जाती है। यह परिवर्तन संतृप्त वायु के तापमान पर निर्भर करता है। संघनन के बाद पार्थिव जल वायुमंडल में तैरती हुई अवस्था में रहते हैं, जिन्हें विभिन्न प्रकार के बादलों के नाम से जाना जाता है। इसी के साथ जल चक्र की तीसरी अवस्था शुरू होती है, जिसे वर्षण की अवस्था कहते हैं।

वर्षण :


वर्षण के लिए आवश्यक है कि संतृप्त वायु के तापमान में गिरावट हो जाए एवं मेघ कणों का आकार इतना बड़ा हो जाए कि वह वायुमंडल में तैरती हुई अवस्था में न रह पाए और अत्यधिक भार के कारण वर्षण के रूप में पृथ्वी पर गिरने लगे। जब हिमकणों का आकार बढ़ता जाता है, तो ये नीचे गिरने लगते हैं, तब ये कण 0 डिग्री से अधिक ताप वाली वायु की परत से गुजरता है, तो वर्षा की बूंदों में बदल जाता है। वर्षण भी कई प्रकार के होते हैं – फुहार, जल वृष्टि, हिमवर्षा, सहिम वृष्टि तथा ओलावृष्टि आदि।

इन प्रक्रियाओं से वायुमंडल का स्वच्छ जल पुनः पृथ्वी तंत्र की सतह पर आ जाता है, जिसका संतुलित वितरण अपवाह प्रक्रिया से होता है। यह जल चक्र की अंतिम अवस्था है। इसी के साथ जल अपने स्रोत क्षेत्र में चले जाते हैं तथा दूसरे जल चक्र की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यह सतत और अनवरत प्रक्रिया है, इसमें विराम नहीं है। इसमें अधिवास क्षेत्र के सभी जल सम्मिलित होते हैं।
जल चक्र में सभी क्षेत्रों के जल सम्मिलित होते हैं, और सभी क्षेत्रों में तापीय प्रभाव एक समान नहीं होता है, अतः जल चक्र क्रिया को उनकी विशेषताओं के आधार पर 5 भागों में बांटते हैं।

  1. सामान्य जलचक्र क्रिया – इस जल चक्र में जल चक्र की चारों अवस्थाएं कार्य करती हैं।
  2. लंबित जलचक्र क्रिया – इसमें मुख्यत: भूमिगत जल और हिमाच्छादित क्षेत्रों के जल सम्मिलित होते हैं। ऐसे जलचक्र क्रिया पूर्ण होने में हजारों वर्ष लगते हैं।
  3. लघुकालिक जलचक्र क्रिया – यह जलचक्र क्रिया मुख्यतः समुद्र की सतह पर पूरी होती है। यह विषुवतीय प्रदेश की विशेषता है। इसमें अपवाह का कार्य नहीं होता है। समुद्र का जल वाष्पोत्सर्जित होकर लंबवत रूप से ऊपर उठता है। पुनः वर्षों के द्वारा उसी क्षेत्र में समुद्र का भाग बन जाता है। यह जल क्रिया 1 दिन में पूरी हो जाती है।
  4. बाधित जलचक्र क्रिया – इस क्रिया में जल परिसंचरण भी सम्मिलित होता है। इसमें वर्षा का जल मृदा जल का रूप ले लेता है तथा इसका वास्पोत्सर्जन प्रत्यक्षतः मृदा से तथा वनस्पति के जलरंध्रो से होता है। चूंकि जल अपवाह प्रक्रिया से समुद्र में नहीं पहुंच पाता है, अतः इसे बाधित जलचक्र क्रिया कहते हैं।
  5. वायुमंडलीय जलचक्र – वर्षा का जल सतह पर आने के पूर्व ही वाष्पीकरण द्वारा पुनः वायुमंडल में चला जाता है, और ये सतह पर शायद ही आ पाता है। यह सबसे कम समय लेने वाला जलचक्र है।

ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि पृथ्वी तंत्र के सभी जल चक्र इस प्रक्रिया में सम्मिलित होते हैं तथा पारिस्थितिक तंत्र की विविधता तथा संतुलन का एक महत्वपूर्ण आधार है।
महत्वपूर्ण तथ्य :

  • दूसरे शब्दों में, जल चक्र पृथ्वी पर उपलब्ध जल के एक रूप से दूसरे में परिवर्तित होने और एक भण्डार से दूसरे भण्डार या एक स्थान से दूसरे स्थान को गति करने की चक्रीय प्रक्रिया है जिसमें कुल जल की मात्रा का क्षय नहीं होता बस रूप परिवर्तन और स्थान परिवर्तन होता है। अतः यह प्रकृति में जल संरक्षण के सिद्धांत की व्याख्या है।
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