भूमि दक्षता का तात्पर्य भूमि के कार्यिक क्षमता से है। किसी भूमि की कार्यिक क्षमता अधिक है, तो उसे अधिक दक्षता या क्षमता वाली भूमि कहा जाता है। भूमि की कार्याक क्षमता विभिन्न भूमियों में भिन्न-भिन्न होती है और यह भूमि के संरचना, स्थलाकृतिक विशेषता, मृदा के गुण, जल की उपलब्धता, जलवायु की विशेषता, वनस्पति एवं भूमि के संरक्षण की नीतियां तथा संरचनात्मक सुविधाओं के विकास पर निर्भर करती है। जिस प्रदेश की भूमि में कार्यिक क्षमता अधिक अनुकूल होती है, वहां जनसंख्या के अधिवास के लिए भोजन की सुविधाएं होती है।
समान्यत: पहाड़ी क्षेत्रों की तुलना में पठारी क्षेत्र एवं पठारी क्षेत्रों की तुलना में मैदानी क्षेत्रों में भूमि की कार्यिक क्षमता अधिक होती है। भारत में जनसंख्या के वितरण पर इसके प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यहां जलोढ़ मृदा के मैदानी क्षेत्रों में भी जनसंख्या का सर्वाधिक सकेंद्रण पाया जाता है। भूमि दक्षता में गत्यात्मकता पाई जाती है और किसी भी भूमि की दक्षता में समय के संदर्भ में परिवर्तन होता है। कोई भी भूमि, दक्षता या कार्यिक क्षमता की तीन अवस्थाओं से गुजरती है।
- प्रारंभिक उपयोग की अवस्था
- संरक्षण की अवस्था
- निवेश की अवस्था
प्रारंभिक उपयोग की अवस्था
इस अवस्था में वनों को काटकर कृषि कार्य प्रारंभ किया जाता है। इस समय भूमि की उत्पादकता सर्वाधिक होती है, लेकिन कई वर्षों तक कृषि करते रहने से उत्पादकता में कमी आने लगती है और अंततः भूमि की कार्यिक क्षमता में पूर्णत: कमी हो जाती है और कृषि अनार्थिक हो जाती है। ऐसे में कृषक या तो उस भूमि को छोड़ देता है या फिर भूमि में संरक्षण के उपायों के द्वारा कार्यिक क्षमता को बनाए रखने की कोशिश करता है।
संरक्षण की अवस्था
इस अवस्था में कृषक भूमि की प्रारंभिक उत्पादकता को प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसके लिए कृषक फसल चक्र के नियमों का पालन करने के लिए साथ ही प्राकृतिक उर्वरकों, जैविक खाद, कंपोस्ट, पशु अपशिष्टों का प्रयोग करता है। इस कार्य से उत्पादकता में वृद्धि होती है, लेकिन यह वृद्धि प्रारंभिक अवस्था की उत्पादकता से अधिक नहीं होती।
निवेश की अवस्था
भूमि पर अत्यधिक जनसंख्या घनत्व और कृषि कार्यों में भूमि का उपयोग गैर खाद्य आवश्यकता में वृद्धि, जीवन स्तर में सुधार इत्यादि कारण से भूमि के कार्य क्षमता को अधिक बढ़ाने की आवश्यकता होती है और मनुष्य भूमि की दक्षता का अधिकाधिक उपयोग करना चाहता है। इसके लिए निवेश की प्रक्रिया अपनाई जाती है। इस अवस्था में आधुनिक संरचनात्मक सुविधाओं, उन्नत सिंचाई, रासायनिक उर्वरक, संकर बीज जैसे कारकों का उपयोग होता है। जिसके फलस्वरुप उत्पादकता में तीव्र वृद्धि होती है। यह वृद्धि प्रथम चरण के उत्पादकता से अधिक होती है।
भारत में हरित क्रांति के क्षेत्रों में भूमि दक्षता इसी अवस्था में है, जबकि पर्वतीय क्षेत्र, पूर्वोत्तर के राज्य भूमि दक्षता के प्रारंभिक अवस्था में और चावल प्रधान गहने जीवन निर्वाह कृषि क्षेत्र, भूमि दक्षता की दूसरी अवस्था में है।
भारतीय मृदा एवं भू-उपयोग सर्वेक्षण संगठन ने 1970 में भारत की भूमि दक्षता का व्यापक सर्वेक्षण किया और दक्षता की दृष्टि से भारतीय भूमि को दो वर्गों में विभाजित किया।
- कृषि कार्य के लिए अनुकूल भूमि
- कृषि कार्य के लिए प्रतिकूल भूमि
इसके बाद कृषि कार्य के लिए अनुकूल भूमि को फिर 4 भागों में विभाजित किया।
- अत्यधिक अनुकूल कृषि भूमि :
इसके अंतर्गत काली मिट्टी, दोमट मिट्टी (बांगर) के क्षेत्र आते हैं। यहां भूमि का जलस्तर अनुकूल है एवं मृदा में नमी धारण करने की क्षमता अधिक है। भारत के पुराने जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्र इसी के अंतर्गत आते हैं। यह क्षेत्र देश की हरित क्रांति के क्षेत्र भी हैं। यहां कृषि की उत्पादकता का स्तर भी अनुकूल है। यह अधिक उत्पादकता एवं दक्षता वाला कृषि भूमि प्रदेश है।
- अनुकूल कृषि भूमि :
इसके अंतर्गत मुख्यतः बाढ़ के मैदानी क्षेत्र आते हैं। जहां बाढ़ के बाद उपजाऊ मिट्टी के कारण अच्छी फसल होती है। इस क्षेत्र में भी उत्पादकता का स्तर अनुकूल है।
- सामान्य दृष्टि से कृषि अनुकूल भूमि :
इसमें तराई क्षेत्र, दून एवं कश्मीर की घाटी, काली जलोढ़ मृदा, लाल जलोढ़ मृदा, गुजरात का जलोढ़ मृदा का क्षेत्र आता है। यहां सामान्य उत्पादकता स्तर है।
- सामान्य अच्छी भूमि :
इसमें लाल और लेटराइट मिट्टी के क्षेत्र आते हैं। मुख्यतः प्रायद्वीप पठारी भारत के क्षेत्र हैं। कृषि कार्य के लिए प्रतिकूल भूमि को भी चार भागों में बांटा गया है।
- पशु चराने के लिए अत्यंत अनुकूल भूमि : इसमें मेघालय का पठार और गुजरात का पठारी क्षेत्र आता है।
- पशु चारण एवं वन के लिए अनुकूल भूमि : इसमें पठारी भारत के वैसे क्षेत्र आते हैं जो कृषि कार्य के लिए अनुकूल नहीं है।
- पशु चराने एवं वन के लिए सामान्य अनुकूल भूमि : इसमें कच्छ का रन, राजस्थान का अधिकतम क्षेत्र, शिवालिक हिमालय का क्षेत्र, उत्तरी पूर्वी भारत का पठार एवं पर्वतीय क्षेत्र आता है।
- जंगली जीव जंतु एवं वन के लिए भूमि : इसमें लघु हिमालय, वृहद हिमालय, लेह, लद्दाख पठार, पूर्वोत्तर हिमालय, नीलगिरी एवं अन्नामलाई की पहाड़ी क्षेत्र आते हैं।
उपरोक्त वर्गीकरण द्वारा कृषि उपयोग की नीतियां बनाने में सहायता मिली है, क्योंकि भूमि दक्षता की मापन, भूमि संरक्षण और भूमि में आवश्यक निवेश के लिए मापदंड के रूप में कार्य करता है। इस संदर्भ में भारत में 1988 में राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति की घोषणा की गई। भूमि दक्षता के संदर्भ में टिकाऊ कृषि विकास की नीति अपनाई जा सकती है, जिससे मृदा की उर्वरता को बढ़ाने के साथ ही पर्यावरणीय संतुलन भी बनाए रखा जा सकता है।
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