सिंधु घाटी सभ्यता की सर्वमान्य तिथि 2400 BC से 1750 BC मानी जाती है। इसका विस्तार त्रिभुजाकार आकृति में है। इसको C-14 रेडियो कार्बन विधि द्वारा देखा गया था। सबसे पहले इसकी खोज रायबहादुर दयाराम साहनी ने 1921 में की थी। IIT खड़गपुर और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार, यह 8000 वर्ष पुरानी है। इस हिसाब से यह मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता से ही पुरानी है। सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख नगरों में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा एवं राखीगढ़ी आदि 6 स्थल है। इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जानते हैं क्योंकि सबसे पहले यहां हड़प्पा की खोज हुई थी। दिसंबर 2014 में खोजा गया सबसे प्राचीन नगर भिरयाणा को माना गया।
सिंधु घाटी सभ्यता की स्थिति के बारे में बात करते हैं तो इसका सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल दाश्क नदी के किनारे सुतकागेडोर (बलूचिस्तान), पूर्वी स्थल हिंडन नदी के किनारे अलमगीरपुर (मेरठ), उत्तरी भाग चिनाव नदी के तट पर अखनूर के निकट मांदा (जम्मू कश्मीर) व दक्षिणी पुरास्थल गोदावरी नदी के तट पर दायमाबाद (महाराष्ट्र) है।
सिंधु सभ्यता की सबसे अच्छी विशेषताओं में – यह एक नगरीय सभ्यता थी तथा प्रत्येक सड़क अपने को समकोण पर काटती थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गुजरात से ही सर्वाधिक पुरास्थल खोजे गए। सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा नगर मोहनजोदड़ो है, मगर भारत के संदर्भ में राखीगढ़ी (हरियाणा जो घग्घर नदी के किनारे स्थित) है। यहां पर स्नानागार कुंड सबसे बड़ी इमारत है। सिंधु सभ्यता में दो प्रमुख बंदरगाह होने के साक्ष्य मिले हैं – लोथल और सुतकोतदा। लोथल को ‘मिनी हड़प्पा’ के नाम से भी जाना जाता है। यहां से मोती, जवाहारात और कीमती गहने पश्चिमी एशिया तथा अफ्रीका को निर्यात किए जाते थे। सिंधु सभ्यता की लिपि भावचित्रात्मक थी, जो दाएं ओर से बांए ओर लिखी जाती थी। मगर सुमेरियन की सभ्यता से सबसे पहले लेखन कला के साक्ष्य मिले हैं।
सिंधु सभ्यता की मुख्य फसलों में गेहूं और जौं थी, मगर इसके अलावा धान के साक्ष्य रंगपुर व चावल लोथल से प्राप्त हुए हैं। ये लोग कपास से भी परिचित थे। ये शहद का प्रयोग भी करते थे। सिंधुवासी धरती को उर्वरता की देवी मानकर उसकी पूजा करते थे। यह लोग वृक्ष तथा शिव की पूजा करते थे, मगर कहीं भी मंदिर होने के प्रमाण नहीं मिले। स्वास्तिक चिन्ह, हड़प्पा सभ्यता के लोगों की देन है। यहां पर मातृ देवी की उपासना के सर्वाधिक प्रमाण मिले हैं। पशुओं में कुबड़ वाला बैल इस सभ्यता के लोगों के लिए विशेष पूजनीय था।
यह सभ्यता मातृसत्तात्मक थी। यहां पर पर्दा प्रथा के साथ-साथ वेश्यावृत्ति का भी चलन था। हड़प्पा में शवों को दफनाया जाता था मगर मोहनजोदड़ो में जलाने की प्रथा प्रचलित थी। इसीलिए मोहनजोदड़ो को ‘मृतकों का टीला’ कहा जाता है। मोहनजोदड़ो से अनाज को इकट्ठा करने के भंडार मिले हैं। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि इस सभ्यता का विनाश बाढ़ के कारण हुआ था। सिंधु सभ्यता का विकास सिंधु तथा घग्घर (सरस्वती) नदी के किनारे हुआ।
सिंधुवासी तांबे के साथ-साथ कांस्य एवं सोने से परिचित थे, मगर चांदी का व्यापार भी यहां होता था, परंतु लौहा इनके लिए अपरिचित था। यहां के लोगों ने प्रथम बार तांबे में टिन मिलाकर कांस्य धातु की खोज की, इसलिए इसे कांस्य युगीन सभ्यता भी कहते हैं। माना जाता है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो यहां की राजधानियां थी। यहां से जो मुद्रा प्राप्त हुई है, उस पर शिव की आकृति के समान आकृति मिली है।
सिंधु सभ्यता के प्रमुख स्थल एवं साक्ष्य :
- हड़प्पा : राय बहादुर साहनी द्वारा 1921 में खोजी, पंजाब के मोंटगोमरी जिले में रावी नदी पर स्थित है।
साक्ष्य – स्वास्तिक चिन्ह, अन्नागार तथा कांस्य की गाड़ी
- मोहनजोदड़ो : राखलदास बनर्जी द्वारा 1922 में, पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सिंधु नदी पर।
साक्ष्य – स्नानागार, पशुपति की मूर्ति, कांस्य की नर्तकी मूर्ति, मातृ देवी की मूर्ति, एवं एक श्रृंगी पशु तथा बंदर का चित्र
- चन्हूदड़ो : गोपाल मजूमदार द्वारा 1934-35 में, पाकिस्तान की सिंधु नदी के किनारे।
साक्ष्य – श्रृंगार के सामान, कांस्य की गाड़ी, मनके बनाने का कारखाना, कुत्ते के साक्ष्य
- कालीबंगा : 1953 में अमलानंद द्वारा, घग्घर नदी पर राजस्थान प्रदेश में।
साक्ष्य – जुते हुए खेत, अग्नि कुंड, चूड़ियां, बर्तन, तांबे के औजार, नक्काशीदार ईंटों का प्रयोग, मिट्टी की मूर्तियां एवं खिलौने आदि।
- कोटदीजी : फजल अहमद खान द्वारा 1935 में, सिंधु नदी पर पाकिस्तान में।
- राखीगढ़ी : सूरजभान द्वारा 1969 में, हरियाणा की घग्घर नदी के किनारे।
साक्ष्य – मुद्रा
- बनवाली : रविंद्र सिंह द्वारा 1935 में, हरियाणा के हिसार जिले में।
साक्ष्य – मिट्टी का हल और जौ
- रोपड़ : यज्ञदत्त शर्मा तथा ब्रजवासी लाल द्वारा 1950-56 में, पंजाब में सतलुज नदी पर।
साक्ष्य – तांबे की कुल्हाड़ी, मानव के साथ कुत्तों को दफनाना
- आलमगीरपुर : हिंडन नदी पर यज्ञदत्त शर्मा द्वारा 1958 में मेरठ जिले में।
साक्ष्य – मृदभांड बर्तन
- सुरकोटदा : गुजरात में सरस्वती नदी पर, जगपत जोशी द्वारा।
साक्ष्य – घोड़े की हस्थियां, तराजू
- लोथल : भोगवा नदी पर, रंगनाथ द्वारा 1955 में, गुजरात में।
साक्ष्य – अग्निकुंड, चावल, बाजरा, फारस की मुहरे, घोड़े के साक्ष्य, हाथी दांत, मनके बनाने का कारखाना, तराजु तथा लोमड़ी आदि साक्ष्य मिले हैं।
- रंगपुर : गुजरात में मादर नदी पर।
साक्ष्य – ज्वार, बाजरा, धान, ईंट आदि
- इन्होंने नगर पर विन्यास में ग्रीड पद्धति अपनाई थी।
- कालीबंगा एवं बजरंगपुर को छोड़कर सभी में पक्की ईंटों का प्रयोग हुआ था।
- यह मांसाहारी एवं शाकाहारी दोनों थे।
- मुख्य खेलों में शिकार करना, चौपड़, पासा खेलना और मछली पकड़ना, ढोल एवं वीणा बजाना, पशु पक्षियों को लड़ाना।
- यहां से कुछ साक्ष्य भी मिले हैं जैसे बैल, भैंस, बकरी हाथी तथा इनकी इकाई मापक प्रणाली 16 थी।
- टेराकोटा एक प्रकार की मुद्रा थी।