Food Security in Hindi | खाद्य सुरक्षा का अर्थ

विश्व के अल्पविकसित देशों की तरह भारत में ऐसे लोगों की संख्या अब नहीं के बराबर है, जिन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता। मगर जो भोजन उन्हें उपलब्ध होता है, उसमें भी पोषक तत्वों की कमी होती है। वर्तमान समय में, भोजन की यह समस्या देश की एक बड़ी जनसंख्या के गंभीर संकट का कारण नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से खाद्य समस्या देश के लिए चुनौती रही है, मगर आज इसका यह स्वरूप नही है। भारत में इस समस्या के 3 पहलू हैं।       
  1. पहला यह है कि हमारे यहां अभी हाल तक खाद्यान्नों की कमी रही थी, जो अधिकांश भारतीयों का मुख्य भोजन है।
  2. दूसरा, यहां जो आहार उपलब्ध होता है, वह असंतुलित है।
  3. तीसरा, बहुत से लोग क्रय शक्ति के अभाव में निम्नतम मात्रा में भी अनाज या पोषक आहार प्राप्त करने में रहते हैं। ऐसी स्थिति में लाखों लोगों का जीवन दुखमय होना स्वभाविक है।

खाद्य सुरक्षा का अर्थ

खाद्य सुरक्षा का अर्थ है सभी लोगों को दोनों समय पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराना ताकि वे सक्रिय व स्वास्थ्य जीवन व्यतीत कर सकें। इसके लिए यह आवश्यक है कि न केवल समग्र स्तर पर भोजन की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध हों, बल्कि व्यक्तियों या परिवारों के पास उपयुक्त क्रय शक्ति भी हो। ताकि वे आवश्यकतानुसार खाद्यान्न खरीद सकें, जहां तक पर्याप्त मात्रा का संबंध है। इसके दो पहलू हैं – मात्रात्मक पहलू तथा गुणात्मक पहलू। जहां तक उपयुक्त क्रय शक्ति का प्रश्न है, इसके लिए आवश्यक है कि रोजगार सृजन के कार्यक्रम शुरू किए जाएं, ताकि लोगों की आय एवं क्रय शक्ति में वृद्धि की जा सके।

खाद्य एवं कृषि संस्था (1983) ने खाद्य सुरक्षा की परिभाषा देते हुए कहा कि सभी व्यक्तियों को सभी समय पर उनके लिए आवश्यक बुनियादी भोजन के लिए भौतिक एवं आर्थिक दोनों रूप में उपलब्धि के आश्वासन से है। जबकि विश्व विकास रिपोर्ट ने खाद्य सुरक्षा की परिभाषा में सभी व्यक्तियों के लिए सभी समय पर एक सक्रिय स्वास्थ्य जीवन के लिए पर्याप्त भोजन की उपलब्धता के रूप में की है।

भारत में खाद्य सुरक्षा की समस्या के कारण

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही भारत खाद्य समस्या से जूझता रहा था और आज तक 75 वर्ष बीतने के बाद भी  कहीं-कहीं यह समस्या देखने को मिलती है। खाद समस्या का समाधान करने के लिए यह जान लेना आवश्यक होगा कि किन कारणों ने इसके समाधान में कठिनाई उपस्थित की है। खाद्य समस्या के विविध कारणों को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझ सकते हैं।

खाद्यान्न की समस्या के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य है, जनसंख्या में तीव्र वृद्धि। स्वतंत्रता के बाद भारत की जनसंख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। 1961-71 में 24.8 प्रतिशत, 1981-91 में 23.5 प्रतिशत थी। लेकिन इस पूरी अवधि में खाद्य के उत्पादन में विशेष वृद्धि नहीं हुई। यही नहीं उत्पादन में अस्थिरता भी बनी रही। जनसंख्या वृद्धि की तुलना में खाद्यान्नों का उत्पादन कम रहा। फलस्वरुप खाद्यान्न समस्या गंभीर बनी रही।

  • खाद्यान्न उत्पादन में धीमी और अनिश्चित वृद्धि

भारतीय जनसंख्या का प्रमुख आहार खाद्यान्न है और खाद्यान्न की उपज की गति धीमी रही है। कृषि भूमि बढ़ने की गुंजाइश प्राय: नहीं के बराबर है। जहां तक भूमि की उत्पादकता बढ़ाने की बात है तो हरित क्रांति भी अपने सीमित प्रभाव के कारण खाद्य समस्या को हल करने में असफल रही है। इसके सीमित विस्तार के अलावा कृषि उत्पादन इस कारण भी तेजी से नहीं बढ़ पाया कि रासायनिक खाद, अधिक उपज वाले बीज आदि साधन अपेक्षित मात्रा में उपलब्ध नहीं थे और साधारण किसानों के लिए उनकी कीमतें ऊंची थी। इसके अतिरिक्त सूखे और बाढ़ आदि के कारण भी समय-समय पर खाद्यान्न की समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है।

  •  आपूर्ति में उतार-चढ़ाव

खाद्य उत्पादन में अनिश्चित एवं धीमी प्रवृत्ति तो रही ही है। बल्कि आपूर्ति में भी उतार-चढ़ाव की स्थिति बनी रही है अर्थात जो कुछ उत्पादन होता है, वह सब उपभोक्ता के लिए उपलब्ध भी नहीं हो पाता। इसके अनेक कारण रहे हैं। एक कारण है, देश के अनेक भागों में कीट पतंगों, चूहों और टिढ़ियों आदि के कारण अनाज की बर्बादी। एक अनुमान के अनुसार, अनाज की उपज का लगभग 15% भाग नष्ट हो जाता है। दूसरा कारण यह है कि अभी हाल तक मंडी में लाए गए अनाज के अधिशेष का अनुपात कम रहा है। उसकी वजह उत्पादन विषयक अनिश्चितता, किसानों की उपभोग विषयक मांग की अधिकता और विपणन की पर्याप्त सुविधाएं आदि है। अपनी उपज का उससे कहीं अधिक भाग अपने पास ही रखते हैं। जितना उन्हें वास्तव में उपभोग आदि के लिए चाहिएं।

  • अधिकांश जनसंख्या की अपर्याप्त क्रय शक्ति

भारत की अधिकांश जनसंख्या ऐसी है, जो खाद्य उत्पादन में वृद्धि के बावजूद अपेक्षित मात्रा में खाद्यान्न नहीं खरीद पाते।

  •  मांग की ऊंची आय

आमतौर पर कम आय वाले लोगों में खाद्यान्न के लिए मांग की आय-लोच बहुत अधिक रहती है। दूसरे शब्दों में, इनकी आय का अधिकांश हिस्सा आवश्यक वस्तुओं पर खर्च हो जाता है, इसलिए आय में वृद्धि होने पर अनाज की मांग तेजी से बढ़ती है।

  •  गरीबी के कारण उपभोग सीमित होना

गरीबी और अल्प-उपभोग की यह स्थिति हमारे समाज के इन वर्गों में अधिक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जो कामकाज के अभाव के कारण गरीबी से लाचार है। इसके अलावा हमारे समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो काम नहीं कर सकते। अशक्त लोग, विधवाएं तथा अनाथ आदि इसी वर्ग के अंतर्गत आते हैं।

खाद्य समस्या के समाधान के उपाय

खाद्यान्न समस्या के समाधान के निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं, जो इस प्रकार हैं।

  • मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन स्थापित करना

खाद्य समस्या के समाधान के लिए सर्वप्रथम यह जरूरी है कि खाद्यान्न की मांग और उसकी आपूर्ति के बीच संतुलन स्थापित किया जाए। यह संतुलन मांग पक्ष की ओर से भी किया जाना चाहिए और आपूर्ति पक्ष की ओर से भी। लेकिन दूसरा पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है। जहां तक मांग पक्ष की बात है, तेजी से बढ़ती आबादी को रोकने के लिए यह उपाय करना आवश्यक है और अनावश्यक उपभोग पर भी रोक लगानी होगी।

  • गरीबी का उन्मूलन करना

खाद्यान्न समस्या का स्थायी समाधान उन गरीबों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाकर किया जा सकता है, जो खाद्य वस्तुओं की कमी और उनकी ऊंची कीमतों के वास्तविक शिकार हैं। इस संदर्भ में 3 महत्वपूर्ण कार्य अपेक्षित हैं।

  1. एक तो उत्पादक कार्यकलापों को रोजगार मूलक रूप देना होगा। इसका आशय यह है कि उत्पादन की ऐसी विधि अपनाई जाए, जिसमें श्रम की प्रधानता हो और साथ ही कार्य कुशलता भी बनी रहे।
  2. दूसरी बात यह है कि बेरोजगार या अल्प नियोजित व्यक्तियों में कार्य कुशलता पैदा की जाए या बढ़ाई जाए ताकि प्रति व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाई जा सके।
  3. तीसरा उपाय यह है कि सामाजिक न्याय और विवेकपूर्ण वितरण किया जाए।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कुशल बनाकर

सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कुशल बनाकर भी इस समस्या का कुछ हद तक समाधान किया जा सकता है। कृषि जन्म वस्तुओं की कीमतों और उनकी उपज में बहुत गड़बड़ होती रहती है। अतः देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को इतना कुशल होनी चाहिए। जिससे खाद्यान्न जैसी आवश्यक उपभोग वस्तुएं उचित कीमतों पर, विशेषकर समाज के कमजोर वर्गों के लोगों तक पहुंच सके। इस संदर्भ में मूल्य स्थिरता, उपज वृद्धि और खाद्य सामग्री के समुचित वितरण को लक्ष्य करके बनाई गई नीति में विभिन्न परस्पर संबद्ध उपायों का समुचित समायोजन करना होगा। तभी इस समस्या के समाधान में सार्वजनिक वितरण प्रणाली समुचित योगदान कर सकेगी।

खाद्य समस्या के समाधान के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम

स्वतंत्रता प्राप्ति के शीघ्र बाद भारत के समक्ष खाद्य समस्या सबसे बड़ी चुनौती बन कर उभरी। यही कारण था कि आयोजकों ने खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना अपना लक्ष्य स्वीकार किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी खाद्य आत्मनिर्भरता को देश की प्रगति और विकास का आधार माना था। बाद में श्रीमती इंदिरा गांधी ने खाद्य सुरक्षा को राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ते हुए, ‘बीज, पानी, उर्वरक, प्रौद्योगिकी’ को अपनाया, जिसे लोकप्रिय भाषा में हरित क्रांति का नाम दिया गया। भारत के दूसरे प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी जय किसान का नारा लगाते हुए कृषि को महत्वपूर्ण माना। इसके अलावा भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कृषि को विज्ञान से जोड़ा और खाद्य समस्या को खत्म करने का पुर-जोर प्रयास किया, जो काफी हद तक सफल भी है।

खाद्य समस्या को हल करने के लिए सरकार समय-समय पर अनेक कदम उठाती रहती है। इन्हें सरकारी नीति कहा जाता है। खाद्य समस्या के समाधान के लिए सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत रखा जा सकता है

  • खाद्य आपूर्ति में वृद्धि
  • वितरण तंत्र में सुधार
  • खाद्यान्न की कीमतों में स्थिरता
  • मांग को नियंत्रित करने का उपाय
  • गरीबी हटाने के लिए प्रयास

सार्वजनिक वितरण प्रणाली

भारतीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली संभवत विश्व में सबसे बड़ा वितरण नेटवर्क है। यह आवश्यक खाद्य पदार्थों को सस्ते दाम पर उपलब्ध सुनिश्चित कराने का एकमात्र साधन है। यही नहीं गरीबी के विरुद्ध संघर्ष में भी यह एक सहायक उपकरण के रूप में कार्य करता है। इस प्रणाली को चलाने के लिए सरकार व्यापारियों तथा उत्पादकों से वसूली कीमतों पर वस्तुएं खरीदती है और जो खरीद की जाती है उसका वितरण उचित दर पर दुकानों के माध्यम से किया जाता है। कुछ वसूली प्रतिरोधक भंडारों के निर्माण के लिए रख ली जाती है। खाद्यान्नों के अलावा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का प्रयोग खाद्य तेल, चीनी, दालें तथा कपड़े आदि के वितरण के लिए भी जाता है। इस प्रणाली में संपूर्ण जनसंख्या को शामिल किया गया है अर्थात इसे किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखा गया है। कोरोनावायरस महामारी के बाद मोदी सरकार ने पूरे देश में एक महीने में दो बार राशन वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से संचालित किया, जो वर्तमान में भी जारी है। इस वितरण प्रणाली से देश में खाद्य समस्या को काफी हद तक समाप्त किया गया है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उद्देश्य

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं को सस्ती कीमतों पर राशन उपलब्ध कराना है, ताकि उन्हें इनकी बढ़ती हुई कीमतों के प्रभाव से बचाया जा सके तथा जनसंख्या को न्यूनतम आवश्यक उपभोग स्तर प्राप्त करने में सहायता दी जा सके। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत वर्तमान समय में गेहूं, चावल, खाद्य तेल, दालें और चीनी आदि बाजार भाव से कम कीमत पर निर्धारित मात्रा में लोगों को दिए जाते हैं। यह चीजें राशन कार्ड के आधार पर दी जाती हैं। जून, 1997 से गरीबी रेखा के नीचे गुजर करने वाले लोगों को भारतीय खाद्य निगम की लागत से आधी की कीमतों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई थी, मगर मोदी सरकार ने कोरोनावायरस महामारी के बाद भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से राशन वितरण प्रणाली को महीने में एक बार मुफ्त तथा एक बार बहुत ही कम कीमत पर (लगभग मुफ्त) वितरित की जाने की प्रक्रिया चल रही है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन में सहयोग करने वाली संस्थाएं

भारतीय खाद्य निगम

भारतीय खाद्य निगम की स्थापना 1965 में की गई थी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खाद्यान्न उपलब्ध कराने इसका मुख्य कार्य है। खाद्यान्न व अन्य सामग्री की खरीदारी, भंडारण व संरक्षण, स्थानांतरण, वितरण तथा बिक्री का काम करता है। निगम एक ओर यह सुनिश्चित करता है कि किसानों को उनके उत्पादन की उचित कीमत मिले तथा दूसरी और यह निश्चित करता है कि उपभोक्ताओं को भंडार से एक ही एक स्कीम पर खाद्यान्न उपलब्ध हो। निगम को यह भी जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह सरकार की ओर से खाद्यान्नों का प्रतिरोध भंडार बना कर रखें। हाल के वर्षों में गेहूं और चावल के बढ़ते उत्पादन के कारण भारतीय खाद निगम की भूमिका भी बढ़ गई है। भारतीय खाद्य निगम की उपलब्धियां निम्नलिखित है।

  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मांग को पूरा करने के लिए उचित मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध कराना काफी सुलभ हुआ है।
  • अधिकारिक मात्रा में किसानों से खाद्यान्न की वसूली के कारण खाद्यान्न के आयात की आवश्यकता कम हुई है और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की बचत हो सकी है।
  • पूर्व घोषित कीमतों पर उत्पादन खरीदने के कारण भारतीय खाद्य निगम किसानों को लाभकारी कीमतें उपलब्ध कराने में सफल रहा है।
  • उचित मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध कराकर निगम ने गरीबों की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने में सहयोग दिया है।
  • भारतीय खाद्य निगम ने देश में वैज्ञानिक भंडारण व्यवस्था के निर्माण में सहायता की है।
राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता परिसंघ

यह राष्ट्रीय संगठन है। 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश, सहकारी उपभोक्ता संगठन इस परिषद से जुड़े हुए हैं। केंद्रीय थोक स्तर पर 800 से ज्यादा उपभोक्ता सहकारी स्टोर है। प्राथमिक स्तर पर लगभग 22000 प्राथमिक स्टोर है। ग्रामीण क्षेत्रों के करीब 45000 ग्राम स्तरीय प्राथमिक कृषि की ऋण समितियां और विपणन समितियां अपने सामान्य व्यापार के साथ-साथ आवश्यक वस्तुओं के वितरण में लगी हैं। शहरी और उपनगरीय क्षेत्रों में करीब 38000 खुदरा बिक्री केंद्रों का संचालन उपभोक्ता सहकारी समिति के द्वारा किया जा रहा है। परिषद का मुख्यालय नई दिल्ली में है।

वायदा कारोबार और वायदा बाजार आयोग

वायदा व्यापार एक वैधानिक निकाय है। इसकी स्थापना वायदा अनुबंध (विनियमन) अधिनियम 1952 के तहत की गई थी। यह आयोग उपभोक्ता मामले खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के अधीन काम करता है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत चलने वाली योजनाएं

  1.  लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली
  2.  अन्नपूर्णा योजना
  3.  आपात आहार कार्यक्रम
  4.  एकीकृत बाल विकास सेवा
  5.  दोपहर भोजन योजना

सार्वजनिक वितरण प्रणाली में दोष

सार्वजनिक प्रणाली की उपलब्धियों के साथ-साथ इसकी कुछ कमियां रही हैं, जिसे स्पष्ट कर लेना आवश्यक है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की आलोचना निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत की जा सकती है।

  1. भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली मुख्यतः गेहूं और चावल तक सीमित रही है। इसके अधीन मोटे अनाजों के वितरण पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। इसके अतिरिक्त राशन कार्ड उन्हीं लोगों को दिए जाते हैं जिनके पास घर और स्थाई पता है। मगर वर्तमान समय में राजनीतिक वोट बैंक के कारण उन लोगों के भी राशन कार्ड बन गए हैं, जो भारतीय नागरिक नहीं है। यह भारत के लिए बहुत बड़ी समस्या है।
  2. विभिन्न राज्यों में निर्धन वर्गों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भरता में अत्यधिक अंतर है। चावल के लिए निम्न वर्गों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भरता जहां केरल में 60% है, वहीं बिहार में 1% से भी कम।
  3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सुचारू संचालन में भ्रष्टाचार एक प्रमुख समस्या थी। उचित दर पर दुकानदारों द्वारा भ्रष्ट तरीको को अपनाए जाने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बड़े पैमाने पर खाद्यान्नों की चोरी होती है। टीसीएस द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के 31% चावल और 26% गेहूं खुले बाजार में बेचे जाते हैं। मगर वर्तमान सरकार ने सार्वजनिक राशन वितरण को इलेक्ट्रॉनिक मशीन के माध्यम से वितरित करने की एक योजना बनाई है जिसके कारण पूर्ण रूप से तो नहीं, मगर काफी हद तक खुले बाजार में बेचे जाने वाले राशन पर शिकंजा कसा जा सका है। अब चोरी करने का तरीका बदल गया है मशीन में तो राशन कार्ड के अनुसार, पूर्ण वितरण दर्शाया जाता है, मगर लाभार्थियों को इसका पूर्ण लाभ नहीं मिल पा रहा है।
  4. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में राशन की चोरी सरकारी अधिकारियों के माध्यम से की जाती है। जिन ऑपरेटरों ने यह मशीन लगाई है उन्हें यह भी पता है कि इसमें चोरी किस तरीके से की जाएगी। इसलिए इस तरह की बढ़ती समस्याओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
  5. इसके अलावा सभी राशन कार्डों का सर्वेक्षण किया जाना चाहिए ताकि वितरित होने वाले राशन को सही अभ्यर्थियों तक पहुंचा जा सके। इसमें किसी भी प्रकार का सर्वे नहीं किया गया है। यह उन क्षेत्रों में भी लागू है, जहां पर विकसित क्षेत्र हैं जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश। इस क्षेत्र में लगभग सभी किसान अपने आप में सक्षम है। वह अपने खेतों से इतनी फसल उगा लेते हैं ताकि उनका गुजारा हो सके। मगर इस सार्वजनिक वितरण प्रणाली का फायदा सीमांत या छोटे या गरीब लोग ही नहीं उठा रहे हैं बल्कि जमीदार लोग भी इसका फायदा उठा रहे हैं, तो सरकार द्वारा एक सर्वे होना चाहिए जो लोग राशन लेने योग्य हैं, उन्हें ही राशन दिया जाना चाहिए। (भण्डारण के लिए नमी की मात्रा)

सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार के सुझाव

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की कमियों को दूर करने के लिए 10वीं पंचवर्षीय योजना में निम्नलिखित सुझाव दिए गए थे, जो इस प्रकार हैं। 

  1. चावल और गेहूं को छोड़कर अन्य मदों को खाद्य सामग्रियों के क्षेत्र से बाहर कर देना चाहिए तथा चीनी को भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के क्षेत्र से बाहर निकाल देना चाहिए।
  2. मिट्टी के तेल पर मिलने वाली छूट को धीरे-धीरे समाप्त कर देने के लिए इसकी संभरण कीमत बढ़ा देनी चाहिए क्योंकि अध्ययनों से पता चलता है कि इस सब्सिडी का लाभ अन्य वर्गों द्वारा उठाया जाता है।
  3. लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली और खाद्य सब्सिडी का क्षेत्र गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों तक सीमित कर देना चाहिए।
  4. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए परिवार के स्त्री सदस्यों को खाद्य टिकट जारी करना चाहिए और उन्हें इस उद्देश्य के लिए परिवार का मुखिया मान लेना चाहिए।
  5. निजी क्षेत्र द्वारा वितरण प्रणाली में आधिकारिक भूमिका निभाने के लिए विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का 26% धन परचून व्यापार में लगने की इजाजत देनी चाहिए और कृषि बीमा और ग्राम क्षेत्रों में 100% विदेशी निवेश की इजाजत दी जानी चाहिए।

यहां यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में खाद्य स्टॉक भरे रहने के बावजूद देश में भूख से अनेक लोगों के मरने की घटनाएं सामने आती हैं। इसका अंदाजा विश्व बैंक सूचकांक द्वारा लगाया जा सकता है। अतः सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संशोधन किया जाना चाहिए, जो भारत को इस स्थिति से बाहर निकालने में सक्षम सिद्ध हो सके और तभी यह उदारीकरण अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है।

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