ग्रामीण विकास की समस्याएं एवं उनके उपाय

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के गांवों में विकास की स्थिति अत्यंत खराब थी। आज भारत को आजाद हुए 77 वर्ष हो चुके हैं। फिर भी देश की लगभग 64 % आबादी गांवों में रहती है। हालांकि, ग्रामीण विकास के क्षेत्र में भारत ने अप्रत्याशित उपलब्धियां हासिल की हैं। विशेषकर हरित क्रांति के बाद ग्रामीणों का जीवन स्तर काफी ऊंचा हो गया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एकमात्र आधार कृषि रहा है। इसलिए सरकार ने आरंभ से ही कृषि पर अधिक जोर दिया है। इसके बावजूद भारतीय कृषि अभी भी पिछड़ी हुई है। जिसका दुष्प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। हम आज भी विकसित देशों के मुकाबले खाद्यान्न में उत्पादकता नहीं ला पाते।

ग्रामीण विकास की समस्याएं

ग्रामीण विकास के लिए भारत सरकार ने अनेक प्रयास किए। इसके बावजूद इस क्षेत्र में आज भी अनेक आधारभूत समस्याएं बनी हुई है। जिन पर निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत हम विचार कर सकते हैं।
  • गरीबी : ग्रामीण विकास में सबसे बड़ी बाधा गांव में व्याप्त गरीबी उपस्थिति करती है। इसका सबसे बड़ा कारण ग्रामीण लोगों की ऋण से ग्रस्ता है। ग्रामीण जनसंख्या की नीची आय तथा अनिश्चित और पिछड़ी हुई खेती, इन लोगों को आर्थिक रूप से इतनी सक्षम नहीं बनाती कि वे अपने परिवार के जीवन निर्वाह की जिम्मेदारी ठीक ढंग से कर सकें। परिवार के भरण-पोषण के लिए वह ऋण लेने पर विवश हो जाते हैं। इस ऋण का कुछ भाग कृषि कार्यों में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन खेती उतनी पिछड़ी हुई दशा में है कि इसके सहारे अधिक मात्रा में अधिशेष उत्पादन नहीं किया जा सकता। अरुण का शेष भाग जो उपभोग में इस्तेमाल होता है, उसकी वापसी वैसे ही कठिन होती है। इस प्रकार गरीबी का अस्तित्व सदा बना रहता है जो ग्रामीण विकास को अवरुद्ध करता है। नीति आयोग के अनुसार, वर्तमान (मई, 2023) में अगर देखा जाए तो लगभग 14.96 % जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे आती है। जो पहले 24.85 % हुआ करती थी।
  • खेती का पिछड़ापन : ग्रामीण विकास का आधार कृषि है, लेकिन देश में खेती का आधार बहुत नीचा है। पूंजी का अभाव और अनिश्चित वर्षा पर खेती की निर्भरता इसका प्रमुख कारण है। चालू उत्पादन व्यय और सुधार के लिए पूंजीगत व्यय की काफी मात्रा में आवश्यकता पड़ती है। वर्षा न होने अथवा कम या समय पर न होने से भी फसल चौपट हो जाती है। इस स्थिति में उत्पादन कार्यों के लिए ऋणों की वापसी पूर्ण रूप से निश्चित समय पर नहीं हो पाती और लिया गया ऋण बोझ बन जाता है।
  • कृषि की परंपरागत पद्धति : अधिकतर भारतीय किसान आज भी खेती के पुराने तौर-तरीके का प्रयोग कर रहे हैं। परंपरागत खेती मानव व पशु श्रम, वर्षा और गोबर की खाद पर निर्भर है। इस प्रकार का उत्पादन तकनीकों में किसानों को प्राप्त होने वाला लाभ बहुत सीमित होता है और खेती केवल जीवन निर्वाह के लिए ही अनाज उपलब्ध करा पाती है। बहुत सारे राज्य व क्षेत्रों में अभी भी परंपरागत खेती की जाती है, जो ग्रामीण विकास में बाधक होती है।
  • कृषि विपणन की समस्या : कृषि विपणन कृषि विकास और ग्रामीण विकास की कुंजी या मूल आधार है। इस विपणन में उन सब क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है, जिनके द्वारा कृषि उपज उत्पादकों से अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुंचती है। जैसे संग्रहण, यातायात इत्यादि। भारत में कृषि विपणन प्रणाली को परिचालन से अकुशल तथा स्वभाव से शोषी माना जाता है। किसान को एक उत्तम विपणन प्रणाली की आवश्यकता होती है, ताकि उसे अपनी उपज की अधिकतम कीमत प्राप्त हो सके। विपणन प्रणाली में निम्नलिखित दोष है – 
    1. उपज के संग्रहण के लिए गोदामों की कमी
    2. अपर्याप्त एवं कम हुए पर यातायात सुविधाओं का अभाव
    3. बेहतर कीमतों के लिए बाजारों का अभाव
    4. क्रय-विक्रय में बिचौलियों की दखलअंदाजी
    5. बाजार संबंधी सूचनाओं का भाव तथा
    6. वित्त सुविधाओं का अभाव इत्यादि समस्याएं आज भी बाजार में देखने को मिलती है।
  • कृषि साख की समस्या : ग्रामीण विकास के संदर्भ में कृषि साख की समस्या भी एक महत्वपूर्ण समस्या बनी हुई है। कृषि साख से अभिप्राय कृषि उत्पादन के लिए आवश्यक भौतिक सुविधाओं को खरीदने की क्षमता से है।
कृषि साख के दो स्रोत हैं – संस्थागत स्रोत जैसे बैंक और गैर-संस्था का स्रोत जैसे जमीदार या साहूकार
सरकार द्वारा प्रदत्त साख संस्थागत स्रोत माने जाते हैं, जबकि गैर-संस्थागत स्रोतों में भूस्वामी, गांव का बनिया तथा महाजन सम्मिलित किए जाते हैं। संस्थागत शाखों की उपलब्धता के बावजूद आज भी छोटे व सीमांत किसान पैसे उधार लेने के लिए साहूकारों के पास जाते हैं। यह स्रोत सदैव शोषणकारी सिद्ध होते हैं वही खाते में हेरफेर करना इनकी आम बात होती है और जिसकी दर अधिकतर ऊंची ही होती है। जिसके कारण छोटे किसान अपना ऋण नहीं चुका पाते।
  • कृषि विविधीकरण का अभाव : भारत में कृषि विविधीकरण का अभाव ग्रामीण विकास के लिए बाधक सिद्ध होता है। देश के कुल खेतों में से तीन चौथाई छोटे तथा सीमांत खेत है जोकि कुल क्षेत्र के एक चौथाई भाग में फैले हुए हैं। छोटे तथा सीमांत किसानों की बहु-संख्या निम्न मूल्य वाली या जीवन निर्वाह वाली फसलों की खेती के लिए प्रयोग की जाती है। यही कारण है कि कृषि तथा गैर-कृषि में पर्याप्त रोजगार के अवसरों के अभाव में वे निर्धनता रेखा के नीचे रहने के लिए विवश है। भूमि पर निरंतर बढ़ रहे जनसंख्या के दबाव और निर्वाह खेती द्वारा उत्पादन में वृद्धि होने की संभावना के कारण स्थिति के और बिगड़ने का डर है।

ग्रामीण विकास के लिए उपाय

ग्रामीण विकास के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं, जैसे –
  • कृषि साख में सुधार : कृषि साख में सुधार से ग्रामीण विकास को गति प्रदान की जा सकती है। कृषि संबंधी कार्यों के लिए किसानों को बड़ी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता होती है, इसके लिए आवश्यक मात्रा में ऋण उपलब्ध होना जरूरी है। साथ ही आवश्यकता इस बात की है कि ऋण की ब्याज दर पर और समय पर उपलब्ध हो केवल यह जरूरी नहीं है कि ऋण मिले, बल्कि जरूरत इस बात की भी है कि ऋण की मात्रा आवश्यकता अनुसार हो। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि यहां संस्थागत ऋण न पर्याप्त मात्रा में और न ही समय पर ही मिल पाता है। इसके कारण किसान प्राय गैर-संस्थागत संस्थाओं की शरण लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं, जो मुसीबत का कारण बन जाती है। अभी भी लगभग 60% किसान संस्थागत किसानों का लाभ उठा पाते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि गांव क्षेत्र में संस्थागत सुविधाओं की समस्या है बल्कि समस्या यह है कि जब किसान बैंक में जाता है तो उसे विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जैसे बैंक अधिकारियों द्वारा की गई कागजी कार्यवाही।
  • कृषि उत्पादों के लिए बाजारों की सुविधा : एक सक्षम विपणन प्रणाली ग्रामीण विकास की कुंजी होती है। किसानों को अपनी उपज के अतिरिक्त भाग को बेचने के लिए बाजार उपलब्ध होना जरूरी है। कृषि विपणन किसानों की आय का प्रमुख आधार है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार की संभावना बढ़ती है। इसके लिए कृषि उपज की बिक्री प्रणाली में तेजी से सुधार लाना बहुत आवश्यक है। भारत जैसे देश में जहां अधिकांश किसान बहुत गरीब है और खेती बहुत छोटे पैमाने पर करते हैं। कृषि उपज की बिक्री का सहकारी समितियों द्वारा प्रबंध विवरण क्षेत्र में सुधार लाने का सर्वोत्तम उपाय है। सहकारी बिक्री के सहारे किसानों की अनेक कठिनाइयां आसानी से दूर हो सकती है। छोटे व गरीब किसानों को माल लाने ले जाने में उनके श्रेणीकरण व संग्रहण में रोककर बिक्री करने में मंडी में बड़े व्यापारियों और दलालों का सामना करने एवं बाजार संबंधी आवश्यक सूचनाएं समय पर प्राप्त करने, आदि के सिलसिले में तरह-तरह की मुसीबत झेलनी पड़ती है। इन सब बातों पर इन्हें प्रति इकाई खर्च करना पड़ता है, जिससे लागत बढ़ जाती है तथा प्राप्ति कम होती है। 
  • कृषि का विविधीकरण : कृषि विविधीकरण खेती की उस प्रणाली को कहते हैं। जिसमें केवल एक ही फसल या बड़े पैमाने पर विशिष्टिकरण के विपरीत विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाने, पशुओं को पालने के साथ-साथ मत्स्य पालन और मुर्गी पालन को बढ़ावा दिया जाता है। विविधीकरण के समर्थकों का यह तर्क है कि इससे आय की स्थिति बढ़ती है। निसंदेह विशिष्ट खेती को आकार की वस्तु का लाभ मिलता है, किंतु विविध खेती से व्यवसाय की अनिश्चितता से छुटकारा पाने का लाभ मिलता है।
कृषि के विविधीकरण के फलस्वरुप संसाधनों का चलन निम्न मूल्य वाले वस्तु मिश्रण (फसलों तथा पशुओं का) से उच्च मूल्य वाले वस्तु मिश्रण की ओर होता है। इससे केंद्र बिंदु बागवानी डेरी, मुर्गी पालन, मछली पालन आदि होते हैं। इनसे किसानों को नियमित और शीघ्र आय प्राप्त होती है। यह सभी क्रियाएं कृषि व्यवसाय से जुड़ी हैं और छोटे किसानों के लिए उपयुक्त है। इससे छोटे किसानों को न केवल निर्धनता के जाल से मुक्ति मिलेगी, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्रतिव्यक्ति आय में भी वृद्धि होगी।
  • कृषि श्रमिकों की स्थिति में सुधार : ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए कृषि श्रमिकों की स्थिति में आवश्यक बदलाव लाने की आवश्यकता है। यह वर्ग ग्रामीण अर्थव्यवस्था का उपेक्षित तथा पिछड़ा वर्ग है जोकि ग्रामीण विकास में बहुत बड़ी रुकावट पैदा करता है। इस वर्ग की समस्याओं को सुलझाए बिना ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वास्तविक और स्थायी तौर पर सुधार लाना लगभग असंभव है। खेतिहर मजदूरों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें काफी समय बेकार बैठना पड़ता है। उन्हें नियमित रूप से काम नहीं मिलता और जो मजदूरी उन्हें प्राप्त होती है, वह भी बहुत कम होती है। यह इतने गरीब होते हैं कि जीवन निर्वाह के लिए भी इन्हें उधार लेना पड़ता है। गरीबी और बेकारी के कारण प्रायः इन्हें दाम की तरह जीवन बिताना पड़ता है। श्रमिकों की इन परिस्थितियों में बदलाव लाए बिना ग्रामीण विकास संभव नहीं हो सकता।
  • कृषि कीमत नीति व न्यूनतम समर्थन मूल्य में सुधार : ग्रामीण विकास इस बात पर भी निर्भर करता है कि किन किसानों को उनकी अधिशेष ऊपज से कितनी आय प्राप्त होती है। इसका अभिप्राय यह है कि किसानों के उत्पादों की कीमतें अगर अच्छी मिलती हैं तो उनकी आर्थिक स्थिति अवश्य अच्छी होगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी किसी कीमत नीति बनाने की आवश्यकता है जिससे किसानों को लाभ प्राप्त हो सके। सरकार को चाहिए कि वह उचित दामों पर किसानों से उनके उत्पाद खरीद ले, ताकि उन्हें अनियमित मंडियों में न बेचना पड़े। ये दाम ऐसे होने चाहिए कि किसानों की उत्पादन लागत को पूरा करने के बाद कुछ न्यूनतम मुनाफा भी दे। वस्तुत: सरकार की कृषि कीमत नीति के दो मुख्य उद्देश्य होने चाहिए – कीमत को बहुत ज्यादा न बढ़ने देना और कीमतों को एक न्यूनतम स्तर से नीचे न गिरने देना। न्यूनतम समर्थन मूल्य को निर्धारित करते समय सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कृषकों में उत्पादन करने की प्रेरणा बनी रहे।
  • कृषि में अत्याधुनिक यंत्रों का प्रयोग : कृषि में अत्याधुनिक यंत्रों का प्रयोग करना चाहिए ताकि किसानों के खेतों में खेतों की जुताई तथा गुड़ाई सही तरीके से हो सके। इसके लिए ट्रैक्टर तथा विविध प्रकार के यंत्रों का प्रयोग आवश्यक है।
  • रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं का सेवन : वर्तमान समय में किसान प्राचीन काल की तरह खेती नहीं करता, बल्कि यह विभिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशक पदार्थों का प्रयोग करता है, ताकि उसकी खेती में किसी प्रकार के कीड़ों का प्रभाव न पड़ सके।
  • सिंचाई की पर्याप्त सुविधा : 1950-1970 तक की बात करें तो बहुत से किसान नहरों या कुओं द्वारा सिंचाई करते थे। पंप सेट या ट्यूबवेल की कोई भी व्यवस्था नहीं थी। जो ट्यूबवेल थे, वे सरकारी होते थे, जिनको किसान अपनी आवश्यकता के अनुसार सिंचाई करता था। मगर वर्तमान समय में लगभग पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रत्येक किसान के पास पंपसेट या ट्यूबवेल की सुविधा उपलब्ध है।
  • फसल का समय पर मूल्य देना : किसानों को फसल का मूल्य समय पर मिलना चाहिए ताकि वह अपनी फसल के लिए बीज तथा रासायनिक उर्वरक समय पर खरीद सके। मगर वर्तमान समय में, गन्ने जैसी फसल का मूल्य किसानों को मिलने में लगभग 6 महीने का समय लग जाता है, जिसके कारण किसान अपनी फसल में सही तरह से रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग करने में असमर्थ रहता है जिसके कारण उसकी फसल में उत्पादकता का स्तर घट जाता है। इस प्रकार सरकार को चाहिए कि किसान की फसल का मूल्य समय पर प्राप्त हो जाना चाहिए। (Google Update)

ग्रामीण विकास के लिए सरकार द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में किए गए प्रयास

ग्रामीण विकास के लिए सरकार द्वारा बहुआयामी प्रयास किए गए हैं जिससे किसानों का विकास हो सके।
कृषि साख की दिशा में : 
  1. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना
  2. सहकारी साख समितियां
  3. कृषि और ग्रामीण विकास का राष्ट्रीय बैंक नाबार्ड
  4. ग्रामीण आधारिक विकास फंड
  5. राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना
  6. किसान क्रेडिट कार्ड योजना
  7. लघु वित्त संस्थाएं
  8. सहकारी विकास फंड
कृषि विपणन की दिशा में : 
  1. राष्ट्रीय विपणन कृषि संस्थान
  2. सरकारी विपणन
  3. सरकार द्वारा नियंत्रित मंडियां
  4. कृषि उत्पादों की खरीद के लिए सरकारी नीतियां
  5. बाजार संबंधी सूचनाओं की व्यवस्था
 रोजगार के क्षेत्र में :
    1. ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार
    2. स्वास्थ्य ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम
    3. ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम
    4. जवाहर रोजगार योजना
    5. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम
    6. रोजगार आश्वासन कार्यक्रम
ग्रामीण आधारित संरचना के निर्माण के क्षेत्र में :
  1. सिंचाई 
  2. ग्रामीण सड़कें
  3. ग्रामीण नाले
  4. ग्रामीण आवास
  5. जल आपूर्ति
  6. विद्युतीकरण व
  7. टेलीफोन व्यवस्था
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