स्थानीय पवन की परिभाषा
स्थानीय पवनों को वायुमंडल का तृतीय परिसंचरण कहा जाता है। यह स्थानीय मौसम एवं जलवायु का प्रमुख निर्धारक कारक कहा जाता है। पृथ्वी तल पर स्थायी एवं मौसमी पवनों के अतिरिक्त स्थानीय कारणों से छोटे क्षेत्रों में ऐसी पवनों की उत्पत्ति होती है जिसका स्थानीय प्रभाव होता है। ऐसी पवनें भूमंडलीय जलवायविक एवं मौसमी विशेषताओं को तो प्रभावित नहीं करती लेकिन इसके स्थानीय प्रभाव व्यापक होते हैं। इन पवनों की उत्पत्ति मुख्यत: स्थानीय विशेषताएं एवं स्थलाकृतिक विविधता के कारण होती है। इसकी सक्रियता एवं प्रवृत्तियों को वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण भी प्रभावित करता है। वायुमंडल की प्राथमिक एवं द्वितीय परिसंचरण में स्थानीय कारणों से उत्पन्न बाधाएं ही तृतीय परिसंचरण की उत्पत्ति का कारण है।
स्थानीय पवनों की उत्पत्ति के कुछ महत्वपूर्ण कारण निम्न हैं।
- स्थानीय स्तर पर तापीय भिन्नता की स्थिति अर्थात ताप प्रवणता उत्पन्न होना।
- स्थानीय स्तर पर दाब प्रवणता की उत्पत्ति।
- स्थलाकृतिक विविधता या विशेषताएं जैसे पर्वतीय, पठारी, मैदानी, मरुस्थलीय एवं घाटी क्षेत्रों की स्थिति एवं तापीय विशेषताएं।
- तल की प्रकृति अर्थात तल का जलीय अथवा स्थलीय होना।
इन पवनों की उत्पत्ति, सक्रियता एवं गति पर प्राथमिक एवं द्वितीय परिसंचरण का आधारभूत प्रभाव पड़ता है। अतः इसे वायुमंडल का तृतीय परिसंचरण कहा जाता है। स्थानीय पवने अपनी उत्पत्ति क्षेत्र एवं प्रवाह मार्ग के अनुरूप विशिष्ट प्रवृत्ति की होती है। सामान्यतः इसकी निम्न प्रवृतियां हैं।
- गर्म पवनें – चिनूक, फान, सिराको तथा लू
- ठंडी पवनें – मिस्ट्रल, बोरो तथा ब्लीजार्ड
- शुष्क पवनें – स्थलीय समीर
- आर्द्र पवनें – जलीय समीर
सामान्यतः स्थानीय पवनें विशिष्ट प्रकृति की होती हैं और इसी अनुरूप इसका विशिष्ट मौसमी प्रभाव होता है। मानसूनी पवनें भी एक वृहद स्थानीय पवनें ही हैं, लेकिन वृहद क्षेत्रों में इसके प्रभाव के कारण इसे मौसमी पवन के अंतर्गत रखा जाता है। हालांकि मौसम पवनें भी ग्लोबल प्रभाव उत्पन्न नहीं करती तथा क्षेत्रीय तापीय एवं स्थलाकृतिक विशेषताओं के कारण उत्पन्न होती हैं। भारतीय मानसून की उत्पत्ति का संबंध भूमंडलीय वायुमंडलीय दशाओं से है। इसी कारण इसे स्थानीय पवन से विशिष्ट माना जाता है। स्थानीय पवनों में वैसी ही पवनों को शामिल किया जाता है जिसकी उत्पत्ति स्थानीय कारणों से हो तथा जिसका प्रभाव भी स्थानीय हो।
स्थानीय पवनों के प्रकार
- दैनिक पवनें – समुद्री समीर, स्थलीय समीर, घाटी समीर तथा पर्वतीय समीर
- गरम स्थानीय पवनें – चिनूक, फान, सिराको, हरमट्टन तथा लू
- ठंडी स्थानीय पवने – मिस्ट्रल, बोरा, ब्लीजार्ड तथा पैम्पैरो।
(I) सागरीय समीर एवं स्थलीय समीर (Sea & Land Breezes)
सागर तटीय भागों में मंद गति से चलने वाली इन पवनों की उत्पत्ति का कारण जलीय भाग एवं स्थलीय भागों के तापमान में असमानता का होना है। इन पवनों की दिशा में रात एवं दिन में परिवर्तन होता है। इन्हें दैनिक मानसूनी पवनें भी कहा जाता है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति भी मानसून की तरह वायुदाब में परिवर्तन से होती है। दैनिक पवनों की उत्पत्ति वायुदाब में दैनिक परिवर्तन से होती है। दिन के समय समुद्र समीर तथा रात के समय स्थलीय समीर प्रवाहित होती है।
सागरीय समीर दिन को उत्पन्न होती है। दिन के समय मुख्यत: ग्रीष्म काल में समुद्र तटीय स्थलीय भाग अधिक गर्म हो जाता है। जबकि समुद्री क्षेत्र में ताप अपेक्षाकृत कम पाई जाती है। धरातल की वायु गर्म होकर ऊपर उठने लगती है। इस प्रक्रिया से सम-वायुदाब पृष्ठ ऊपर उठ जाते हैं और धरातल से कुछ ऊंचाई पर पवन का प्रभाव बाहर की ओर होने लगता है। इस प्रक्रिया से धरातल पर वायुदाब में कमी हो जाती है। इस समय समुद्र तल पर वायुदाब अपेक्षाकृत अधिक होता है अतः दाब प्रवणता उत्पन्न होती है जिससे समुद्र से तटीय स्थलीय भाग की ओर पवनें प्रवाहित होने लगती है, जो ठंडी होती हैं। इससे तटवर्ती क्षेत्र के जलवायु पर समकारी प्रभाव पड़ता है। ऐसी पवनें तटवर्ती प्रदेशों में चलती हैं। सामान्यतः मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में 15 से 50 किमी तक तथा उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में 50 से 65 किमी दूर तक यें हवाएं प्रवाहित होती हैं। इसकी सामान्य गति शीतोष्ण क्षेत्रों में 25 से 40 किमी प्रति घंटा होती है, जबकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इसकी गति अधिक हो जाती है और कभी-कभी तूफानी हो जाती है। सागरीय समीर में आर्द्रता के साथ तटीय क्षेत्रों में वर्षा भी होती है। सागर समीर 10 से 11 बजे से 2 से 3 बजे तक प्रवाहित होती है।
स्थलीय समीर रात के समय उत्पन्न होती है जो स्थल से समुद्री क्षेत्र की ओर प्रवाहित होती है। सूर्यास्त के बाद विकिरण के कारण स्थलीय भाग जल की अपेक्षत: शीघ्रता से ठंडा होने लगता है। इसी कारण रात के समय स्थल समुद्री क्षेत्र की तुलना में अधिक ठंडा हो जाता है। इसके क्षेत्र की तुलना में यहां अधिक वायुदाब का विकास हो जाता है। इस समय वायुदाब प्रवणता स्थल से जल की ओर होती है और स्थल से समुद्र की ओर वायु प्रवाह होने लगता है।
प्रशांत महासागरीय द्वीपों तथा पश्चिमी द्वीप समूह में मेघ यानी बादल रहित दिनों में ये अधिक विकसित होते हैं। द्वीपों के चारों ओर से दिन के समय जब समुद्री पवने प्रवाहित होती हैं तो गर्म होकर ऊपर उठने लगती हैं और रूद्धोष्म ताप पतन दर से ठंडी होती है, इसे संघनन की प्रक्रिया कहते हैं जिससे बादल का निर्माण होता है। इन बादलों को अडल मेघ कहा जाता है। ऐसे बादल उष्णकटिबंधीय वलयाकार प्रवाल द्वीपों पर अधिक पाए जाते हैं, इससे तीव्र वर्षा होती है।
(II) पर्वतीय समीर एवं घाटी समीर
पर्वतीय प्रदेशों में दिन रात के ताप में अंतर एवं दाब प्रवणता के कारण इन पवनों की उत्पत्ति होती है। रात के समय पर्वतीय ढालो तथा ऊपरी भाग पर विकिरण द्वारा ताप ह्रास अधिक होता है, जिसके कारण हवाएं ठंडी हो जाती है, जबकि नीचे घाटी की वायु अपेक्षाकृत गर्म होती है। इस कारण ढाल से वायु नीचे घाटी की ओर उतरती है इन्हें पर्वतीय समीर कहते हैं। पर्वतीय ढालों से घाटी में उतरने वाली वायु के कारण घाटी के तापमान में रात्रि के अंतिम भाग तक कमी हो जाती है। जबकि घाटी की ऊपरी वायु का तापमान अपेक्षाकृत अधिक रहता है। इससे घाटी में तापीय व्यूतक्रमण उत्पन्न होता है। कभी-कभी घाटी में तापमान 0°C से नीचे हो जाता है, जिससे घाटी में पाला पड़ जाता है। पर्वतीय समीर यदि गहरी घाटियों, गर्त या कैनियन से प्रवाहित होती है, तो इसकी गति तीव्र होती है पर्वतीय समीर को अवरोही पवन या गुरूत्व पवन भी कहते हैं।
दिन के समय पर्वत की घाटियों के पार्श्व भाग या पर्वतीय ढाल घाटी के नितल की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाता है, जिससे वायु ऊपर उठने लगती है। इस समय घाटी के ढालों पर निम्न वायुदाब तथा घाटी की तली में उच्च वायुदाब होता है और हवाएं घाटी से ढालों पर ऊपर की ओर प्रवाहित होने लगती हैं, जिसे घाटी समीर कहते हैं। पर्वतीय तटीय भागों के सागर समीर से मिलकर घाटी समीर का वेग अधिक हो जाता है।
ट्रेवार्था ने घाटी से पर्वत की ओर चलने वाली पवनों को दो भागों में रखा है।
- तापीय उर्ध्वाधर पवन या अनावेटिक पवन
- घाटी समीर
अनावेटिक पवन की उत्पत्ति का कारण पर्वतीय ढालों तथा उपर स्थित स्वतंत्र वायु के तापमान में अंतर का होना है। जबकि घाटी समीर विस्तृत घाटियों के अक्ष के समानांतर प्रवाहित होने वाली पवन है। आल्पस एवं हिमालय के क्षेत्र में घाटियों में ग्रीष्म काल में दिन में धूप एवं धूपधार मौसम में घाटियों से बाहर की ओर ऐसी पवनें प्रवाहित होती हैं।
उष्ण स्थानीय पवनें
(I) फान एवं चिनूक
पर्वतीय क्षेत्रों में जहां चक्रवातीय तूफान प्रवाहित होती है, पर्वतों से उतरती हुई हवाएं, गर्म स्थानीय पवन को जन्म देती हैं। इन पवनों की उत्पत्ति का कारण पर्वतों की वायु विमुख ढाल की ओर वायु का अवतलन है। चक्रवातों से प्रवाहित लगभग सभी पर्वतीय क्षेत्र में इस प्रकार की स्थानीय शुष्क गर्म पवनें चलती है। आल्पस के उत्तरी भाग की ओर चलने वाली ऐसी पवन को फान तथा रॉकी में पूर्वी ढाल की ओर प्रवाहित होने वाली स्थानीय पवन को चिनूक कहा जाता है।
आल्पस पर्वत के उत्तरी ढाल पर प्रवाहित होने वाली फान पवन – स्वीटजरलैंड, ऑस्ट्रिया तथा जर्मनी को प्रभावित करती हैं। जब कोई चक्रवात आल्पस के उत्तर से गुजरता है तो उसकी ओर आने वाले दक्षिण की हवाओं को पर्वत को पार करना होता है। जिसके कारण वे पवने आल्पस की वायु अभिमुख ढाल पर ऊपर उठने लगती है। ऊपर उढ़ती हवाओं में संघनन की क्रिया होती है और प्राय: वर्षा भी हो जाती है। इन हवाओं में आरोहण क्रमशः होता रहता है। क्योंकि ऊपर उठती हवाओं में संघनन की गुप्त ऊष्मा मिल जाती है, जिससे वायु गर्म होकर ऊपर उठने लगती है। यें हवाएं ही आल्पस के उत्तरी ढाल पर उतरने लगती हैं जिसका प्रमुख कारण आल्पस के द्वारा उत्पन्न घर्षण बल है।
नीचे उतरती वायु संपीडन के कारण गर्म होने लगती है और इसके तापमान में शुष्क रूद्धोष्म दर से वृद्धि होती है। इसके आगमन से घाटी क्षेत्र के तापमान में 4.4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है, जिसके कारण हिम पिघलने लगते हैं तथा घाटी का मौसम सुहावना हो जाता है। फान हवाएं शीतकाल के अंत एवं बसंत काल के प्रारंभ में उत्पन्न होती है। बर्फ के बसंत काल में पिघल जाने से कृषि कार्य के लिए यह महत्वपूर्ण है। अंगूर की फसल पकने में यह सहायक होती है। इस पवन के कारण ही स्वीटजरलैंड की घाटियों को शीतकाल में जलवायु उद्यान कहा जाता है।
फान की तरह ही रॉकी के पूर्व ढाल पर गर्म एवं शुष्क पवने चिनूक प्रवाहित होती हैं। यह ग्रीष्मकाल में मुख्यतः प्रवाहित होती है। यह रॉकी के पूर्व में कोलोरेडो के दक्षिणी भाग से उत्तर में कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया तक प्रवाहित होती है। इसका औसत तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस होता है। लेकिन निचले मैदानों के निम्न तापमान की तुलना में यह अधिक गर्म होती है। अतः मैदानी भाग के बर्फ को पिघला देती है जो बसंतकालीन गेहूं की बुवाई के लिए लाभदायक होता है। बर्फ के पिघलने से मैदानों में देशी घास भी उग आती हैं। चिनूक को हिमभक्षीणी (Snow Eater) भी कहा जाता है।
इस तरह फान एवं चिनूक दोनों हवाओं के गर्म होने के दो मुख्य कारण हैं।
- वायु सम्मुख ढाल पर आरोही पवन में संघनन की गुप्त ऊष्मा द्वारा वायु के तापमान में वृद्धि,
- वायु विमुख ढाल पर उतरती हुई हवाओं में संपीडन के कारण तापमान में अतिरिक्त वृद्धि।
चिनूक जैसी हवाओं के कारण प्रभावित क्षेत्रो के तापमान में 24 घंटे में 22°C तक की वृद्धि सामान्य बात है।
(II) सिराको
यह सहारा मरुस्थलीय क्षेत्र से भूमध्य सागरीय क्षेत्र की ओर प्रवाहित होने वाली शुष्क एवं रेत भरी हवा है। यह पवन उत्तरी अफ्रीका को प्रभावित करती हुई भूमध्य सागर को पार करती इटली एवं स्पेन को प्रभावित करती है। जिस समय भूमध्य सागरीय चक्रवात उत्पन्न होते हैं, उस समय सिराको अधिक सक्रिय होता है। भूमध्यसागरीय चक्रवात सहारा मरुस्थल की अधिक गर्म एवं शुष्क वायु को खींचती है। ये धूल भरी आंधी चक्रवातों में अग्रभाग में आती है। भूमध्य सागर के दक्षिणी तटीय भागों में धूलभरी आंधियां लगातार कई दिनों तक चलती रहती है। सिराको का तापमान 3.7°C होता है। जब यें हवाएं भूमध्य सागर को पार करती हैं तो आर्द्रता ग्रहण कर लेती है। इससे दक्षिणी इटली में कभी-कभी वर्षा भी होती है। इटली में सिराको द्वारा लाए गए लाल रेत के कण जब नीचे बैठने लगते हैं तो उसे रक्त वृष्टि कहते हैं। इन हवाओं के कृषि एवं भवनों पर विनाशकारी प्रभाव होते हैं। इससे स्पेन और इटली में अंगूर एवं जैतून की फसलों को व्यापक हानि होती है।
इस पवन के विभिन्न नाम है। इसे इटली में सिराको, मिस्र में खासिन, लीबिया में गिबली, ट्यूनीशिया में चिली, अरब के रेगिस्तान में सिमुम, स्पेन में लेवीची या लेवेश कहते हैं। इसे मदिरा तथा कनारी द्वीप में लिस्ट कहते हैं।
(III) हरमट्टन
यह सहारा मरुस्थल में पूर्व से पश्चिम की ओर चलने वाली नम एवं शुष्क वायु है। इसकी उत्पत्ति शीतकाल में सहारा के पूर्वी भाग में होती है। जहां से यह गिनी तट की ओर चलती है। इस पवन से गिनी तट की उष्णार्द्र जलवायु में शुष्कता आ जाती है, जिससे मौसम अच्छा हो जाता है। इसी कारण गिनी तट के लोग इसे डॉक्टर पवन भी कहते हैं। इसी प्रकार की पवन को आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत में ब्रिकफील्डर कहा जाता है। उत्तरी अमेरिका में विशाल मैदान में उत्तरी- पश्चिमी या दक्षिणी-पश्चिमी पवन को जो तेज तथा धूल भरी आंधी के रूप में होती है, ब्लैक रोलर कहते हैं। न्यूजीलैंड में ऐसी पवनों को नारवेस्टर कहा जाता है।
अन्य गर्म पवनों में USA की सांत्ताआना, जापान की यामों, अर्जेंटीना की जोण्डा, मध्य यूरोप की ट्रमोण्टेन है। भारत के उत्तरी मैदान में लू गर्म पवन है जो ग्रीष्म काल में पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती है।
शीतल स्थानीय पवनें
(१) ड्रेनेज विन्ड्स या गुरूत्व पवन या अवरोही पवन
शीतऋतु में समुद्र तटीय भागों में जहां पठार एवं पर्वतों से घिरे मैदानी भाग हैं, वहां शीतऋतु में बड़ी मात्रा में शीतल वायु एकत्रित हो जाती है। पर्वतों एवं पठारों से हवाएं नीचे की ओर नदी घाटियों, पर्वतीय घाटियों में एकत्रित होने लगती है। सामान्य स्थितियों में ये पवन मंद गति की होती है। परंतु जब चक्रवातों के प्रभाव में आ जाती हैं तो चक्रवात के निम्न वायुदाब की ओर ठंडी एवं भारी वायु तीव्र वेग से प्रवाहित होने लगती है। संकरी घाटियों से प्रवाहित होने पर इसकी गति अधिक तीव्र होती है। इन पवनों को ड्रेनेज विन्ड्स, फाल विन्ड्स, अवरोही पवन या केटाबेटिक पवन के नाम से जाना जाता है। अटलांटिक महादीप के किनारे इसकी गति कहीं-कहीं 80 किमी प्रति घंटे तक हो जाती है। अलास्का में ऐसी पवनों को बिलीवाव कहा जाता है। बोरा एवं मिस्ट्रल ऐसी ही पवन है। यें अधिक ठंडी होतीं हैं।
(२) बोरा एवं मिस्ट्रल
बोरा एक ठंडी एवं शुष्क स्थानीय पवन है जो उत्तर एवं उत्तर-पूर्व दिशा से एड्रियाटिक सागर के उत्तरी तट तक प्रवाहित होती है। उत्तरी इटली का भाग बोरा से सर्वाधिक प्रभावित होता है। ये अधिक तीव्र वेग वाली पवन होती है। वायु का वेग 128 से 196 किमी प्रति घंटा तक अंकित किया गया है। एड्रियाटिक सागर के उत्तरी-पूर्वी तट के नीचे युगोस्लाविया के पठार पर शीतकाल में प्रति चक्रवात की स्थिति रहने के कारण वायु अधिक शीतल हो जाती है। भूमध्यसागरीय शीतोष्ण चक्रवात के विकास के बाद प्रतिचक्रवातीय उच्च वायुदाब से चक्रवाती निम्न वायुदाब की ओर पवन प्रवाह होने लगता है, जो अत्यंत ठंडा होती है। यें शीतल भारी हवाएं नीचे उतरने पर कुछ गर्म भी हो जाती है, किंतु तटवर्ती क्षेत्रों के गर्म वायु की तुलना में उसका तापमान अधिक निम्न रहता है। एड्रियाटिक सागर से गुजरने के बाद यह कुछ आर्द्र भी हो जाती है।
मिस्ट्रल भी बोरा की तरह ही ठंडी एवं शुष्क वायु है, जो शीतकाल में फ्रांस की रोन घाटी में सर्वाधिक सक्रिय होती है। यह फ्रांस व स्पेन को सर्वाधिक प्रभावित करती है। शीतकाल में भूमध्य सागर के उत्तरी महाद्वीपीय भाग पर उच्च वायुदाब की स्थिति यानी प्रतिचक्रवात की स्थिति रहती है, जबकि भूमध्य सागर में निम्न वायुदाब की स्थिति होती है, जिसके कारण इस ठंडी हवा की उत्पत्ति होती है। मिस्ट्रल की सामान्य गति 60 किमी प्रति घंटे तक होती है। यह बोरा से कम गति वाली पवन है, लेकिन कभी-कभी यह भी 128 किमी प्रति घंटे की गति से प्रवाहित होने लगती है।
(३) ब्लिजार्ड (Blazzard)
ब्लिजार्ड ध्रुवीय ठंडी हिम झंझावत होते हैं जो तीव्र एवं हिम कणों से युक्त होते हैैं। इसका प्रवाह उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्रों, साइबेरिया, कनाडा तथा यूएसए में है। इसकी उत्पत्ति शीतकाल में शीतकालीन चक्रवातों के पृष्ठ भाग में स्थित प्रतिचक्रवातों में होती है। हिम कणों से युक्त होने के कारण इसमें दृश्यता समाप्त हो जाती है। इसकी गति 80 से 96 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। अत्यधिक ठंडी होने के कारण इसके आगमन से तापमान अचानक हेमांग से नीचे गिर जाता है तथा सतह वर्ष से अच्छादित हो जाती है। यूएसए में मध्यवर्ती मैदान में दक्षिणी प्रांत तक पहुंच जाती है जहां तापमान में तीव्र गिरावट हो जाती है। इन पवनों को यूएसए में नार्दन, साइबेरिया में बुरान, साइबेरिया में ही बर्फीली आंधियों को पुर्गा कहते हैं।
अन्य ठंडी स्थानीय पवनों में फ्रांस में साइज, दक्षिणी स्पेन में लेवांतर, अर्जेंटीना के पंपास में पैम्पीरो है। ब्राजील के कंपोज एवं मध्य अमेजन घाटी में मई-जून में चलने वाली शीत लहरी को फ्राईजेम कहा जाता है। भारत में शीतकाल में उत्तरी मैदानी भाग में ठंडी हवाओं को शीतल हरी कहते हैं।
स्पष्ट है कि स्थानीय पवनों की उत्पत्ति मुख्यतः स्थानीय कारणों से होती है, जिसका मुख्य कारण स्थानीय स्तर पर वायुदाब में अंतर होना है। लेकिन इसकी उत्पत्ति, सक्रियता तथा गति पर वायुमंडलीय एवं खगोलीय कार्य का व्यापक प्रभाव होता है। वायुमंडल का प्राथमिक एवं द्वितीयक संचरण में गतिरोध एवं बाधा ही स्थानीय वायु प्रवाह को उत्पन्न करती है। हालांकि स्थानीय स्थलाकृतिक, भौतिक दशाएं अनुकूल होना आवश्यक है। स्थानीय पवने भी जलवायु एवं मौसमी दशाओं को व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं तथा मानवीय जनजीवन को निर्धारित करती हैं।