प्रादेशिक विकास की प्रक्रिया दीर्घकालिक उद्देश्यों की पूर्ति भी सुनिश्चित करती है, जहां मानव की वर्तमान आवश्यकताओं के साथ ही भविष्य की आवश्यकताओं की भी पूर्ति हो सके, साथ ही प्राकृतिक संतुलन भी बना रहे। अतः प्रादेशिक विकास या आयोजना को संपोषणीय या शाश्वत विकास के अनुरूप होना आवश्यक होता है। शाश्वत विकास, विकास की नवीन अवधारणा है, जो 1990 के दशक में प्रचलित हुई।
शाश्वत विकास (Sustainable Development) आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संतुलन के मध्य समांजस्य की बात करता है। किसी भी प्रदेश का विकास स्थायी तथा प्रगतिशील तभी हो सकता है, जब वर्तमान के साथ ही भविष्य भी सुरक्षित रहे। शाश्वत विकास इसी अवधारणा पर आधारित है। तीव्र गति की बढ़ती हुई जनसंख्या तथा संसाधनों पर जनसंख्या का बढ़ता दबाव, असंतुलित विकास का कारण है, जो कई पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न कर रहा है, जिसके संदर्भ में शाश्वत विकास का उत्पन्न हो जाना आवश्यक है।
विश्व में प्रादेशिक विकास की अवधारणा को समय-समय पर राजनीतिक विचारकों ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। वर्तमान समय में प्रादेशिक विकास का जो स्वरूप उभर कर आया है, वह विश्वव्यापी राजनीति से ओतप्रोत है। औपनिवेशिक राष्ट्रों का शोषण, अविकसित देशों के संसाधनों का दोहन, विनिर्माण प्रक्रिया एवं संपत्ति का शक्तिशाली राष्ट्रों में समूहन तथा विकास मॉडलों के अविवेकपूर्ण अध्यारोपण से प्रादेशिक विकास के परिणाम प्रभावित हुए हैं।
पाकिस्तान आज भी आर्थिक विकास हेतु पराश्रित है। बांग्लादेश भी स्वतंत्र होकर उसी दुष्चक्र का अंग बन गया। नेपाल, भूटान की भी यही स्थिति है। अफगानिस्तान समस्याओं से ग्रसित है। यही हाल ब्राजील, अर्जेंटीना, केरिबियन राष्ट् तथा अफ्रीकी देशों का है। विकासशील देशों में जहां प्रादेशिक विकास की गति तीव्र हुई है, वहां कई अन्य समस्याएं भी उत्पन्न हुई है। विकास का अंतिम उत्पाद विनाश के रूप में प्रकट हो रहा है। संसाधन का दुरुपयोग हुआ है। तथा पर्यावरण की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है। इस परिपेक्ष्य में शाश्वत विकास या दीर्घकालिक विकास की प्रक्रिया का अपनाया जाना आवश्यक प्रतीत होता है।
शाश्वत विकास की संकल्पना भौगोलिक संकल्पना है, जिसमें मानवीय और परिस्थितिकीय तत्वों के अंतर्क्रियात्मक संबंधों को इस प्रकार व्यवस्थित एवं नियोजित करने पर बल दिया जाता है, जिसमें आर्थिक विकास प्रतिरूप वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए आगामी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके। भौगोलिक संदर्भ में प्रादेशिक विकास मानव और उसकी विभिन्न विशेषताओं तथा प्राकृतिक पर्यावरण के तथ्यों के पारस्परिक कार्यात्मक संबंधों का परिणाम है। विकास की प्रक्रिया में कुछ क्षेत्रों में मानवीय क्षमता के अत्यधिक निवेश से पर्यावरण के तथ्यों का अधिकाधिक शोषण हुआ। मनुष्य ने वहां कम समय में चरम विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। वहां पुनः विकास के लिए संसाधनों की कमी सामने आने लगी है। दूसरी ओर विभिन्न पर्यावरणीय तथ्यों के अत्याधिक ह्रास से पारिस्थितिकीय संतुलन भी बिगड़ने लगा, जिससे मनुष्य के लिए खतरा उत्पन्न हो गया।
इसी तरह दूसरे बहुत से क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के वैज्ञानिक शोषण से भी परिस्थितिकीय संतुलन प्रभावित होने लगा। इस विषय परिस्थिति से निजात पाने के लिए वर्तमान समय में शाश्वत विकास की संकल्पना का जन्म हुआ है। यह एक विश्वव्यापी नारे के रूप में प्रचलित होती जा रही है, जिसमें परिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखना और जैवीय विविधता की सुरक्षा पर विशेष बल दिया जा रहा है। 1987 में बर्टलैंड कमीशन द्वारा और 1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन से इस संकल्पना को व्यापक आधार मिला है।
शाश्वत विकास (Ecologically Sustainable Development) का सामान्य अर्थ परिस्थितिकीय दृष्टिकोण से उपयुक्त दीर्घकाल तक अक्षुण्ण रहने वाला विकास है अर्थात इसमें विकास निर्वाह योग्य माना गया है, जो वर्तमान पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हुए भविष्य के लिए भी बना रहे। इसके अंतर्गत पारिस्थितिकी सम्मिलित है जो जैव समुदाय और उनके पर्यावरण के पारस्परिक अंतर संबंधों का अध्ययन है। यह ग्रीक शब्द ‘Oikos’ से बना है, जिसका अर्थ ‘Living Place’ होता है। अर्थात विभिन्न जैव समुदाय और पर्यावरण के बीच कैसा संतुलन विकसित हो जिससे दोनों का अस्तित्व अनवरत रूप से बना रहे। क्योंकि पहले से ही मानव प्रकृति के परिवर्तनशील अंतर संबंधों का अध्ययन करता रहा है। इसलिए विकास हेतु विभिन्न पर्यावरणीय तथ्यों का मानव द्वारा इस प्रकार उपयोग किया जाए कि परिस्थितिकी संतुलन भी बना रहे और मानव अपना विकास भी करता रहे।
दूसरा शब्द शाश्वतता (Sustainable) है, जिसका अर्थ अनवरत रूप से दीर्घकाल तक बना रहना है अर्थात ऐसा आर्थिक विकास जो दीर्घकाल तक जारी रहे। या दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यह सामाजिक – आर्थिक प्रत्यावर्तन की ऐसी प्रक्रिया है, जिसके परिणाम समान रूप से वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए उपलब्ध होते रहे। अर्थात यह उत्पादन के कारकों और उपभोग के तत्वों के बीच संतुलन के स्तर की ओर इंगित करती है।
संतुलन का स्तर इस प्रकार का होना चाहिए कि जिसमें विकास प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले सभी चर एक साथ बिना एक दूसरे से आगे निकले हुए एक दूसरे के पूरक के रूप में योगदान देते रहे, जब तक प्रमुख रूप से यह एक दूसरे के साथ विकासात्मक रूप से योगदान देते रहेंगे तब तक किसी भी तरह का कोई ऋणात्मक प्रभाव नहीं दिखाई देगा। इसके विपरीत विभिन्न चरों की पारस्परिक विकासात्मक प्रवृत्ति में यदि कोई एक चर आगे निकल जाएगा अथवा उसका अत्यधिक ह्रास होगा तो संपूर्ण संतुलन स्तर बिगड़ जाएगा, जिसका परिणाम भौतिक पर्यावरण पर दृष्टिगोचर होगा। इससे विकास प्रतिरूप भी दीर्घकाल तक बना नहीं रह पाएगा।
इस प्रकार शाश्वतता के अंतर्गत दो संकल्पना अंतर्निहित है –
- मूलभूत आवश्यकता की संकल्पना
- संसाधन उपयोग की प्रौद्योगिकी स्तर
मूलभूत आवश्यकता की संकल्पना के अंतर्गत माना जाता है कि मनुष्य की न्यूनतम मौलिक आवश्यकताओं को पूर्ण करना ही विकास है। वर्तमान समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हुए भावी पीढ़ियों के लिए भी संसाधनों को सुरक्षित छोड़ देना ही शाश्वत विकास है। यहां यह उल्लेखनीय है कि विभिन्न क्षेत्रों के मानव समाज में कुछ मूलभूत आवश्यकताएं समान रूप से हैं। जैसे – भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सुविधा आदि, लेकिन कई समाजों के उपभोग की परिवर्तनशील प्रवृत्ति और उसको पूरा करने के लिए संसाधनों का अंधाधुंध शोषण जारी रहने पर संसाधनों में ह्रास होगा और उनके दीर्घकाल तक चलते रहने की संभावना भी समाप्त होगी। इसलिए उपभोग के तत्व के प्रयोग पर नियंत्रण अथवा उनका परिमार्जन इस प्रकार किया जाना चाहिए ताकि विकास को प्रभावित करने वाला चर समाप्त न हो सके या उसका कोई दुष्प्रभाव न पड़ें।
पश्चिमी देशों की उपभोक्ता संस्कृति इसका उदाहरण है। जहां उपभोग हेतु कई जातियों का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया है। इससे विश्व में जैव संतुलन का खतरा उत्पन्न हो गया है, विकसित औद्योगिक देशों द्वारा ही उपार्जित अपशिष्ट से ओजोन परत को हानि हो रही है। तथा वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो रही है। इसलिए शाश्वत विकास के अंतर्गत मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करते हुए उपभोग स्तर को भी नियोजित करना शामिल है।
संसाधन उपयोग की प्रौद्योगिकी स्तर के अंतर्गत विभिन्न उत्पादनों हेतु प्रयुक्त तकनीकी स्तर है। बहुत से देशों में तकनीकी स्तर अत्यंत उच्च स्तरीय है, जिससे वे कम लागत पर विभिन्न साधनों का शोषण करके अपने उपभोग स्तर में वृद्धि करते हैं, जबकि अन्य देश अपने देसी व परंपरागत तकनीक के प्रयोग से धीरे-धीरे यही कार्य करते हैं। भौगोलिक रूप में उत्पादन कार्यों के लिए इस प्रकार की तकनीकों का प्रयोग होना चाहिए, जिससे विकास के अन्य चरों को हानि न पहुंचे।
तीसरा शब्द ‘विकास’ का अर्थ जैसे पहले विश्लेषित किया जा चुका है, यह है कि विकास एक समन्वित प्रक्रिया है, जिससे मानव जीवन के अस्तित्व का एक निश्चित स्तर प्राप्त किया जा सकता है। अर्थात इसमें मानव और प्रकृति के मध्य उत्पादन, व्यवधान रहित और शोषण मुक्त चरों का समन्वित प्रतिरूप सम्मिलित है। अर्थात शाश्वत विकास के अंतर्गत पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न चरों का संरक्षण, अभिरक्षण, सुरक्षा एवं अक्षुण्ण रूप से निर्वहन सम्मिलित हैं। इस तरह अक्षुण्ण अर्थात शाश्वत विकास अर्थव्यवस्था के विभिन्न प्रतिरूपों (प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक) में समन्वय पर बल देते हुए इन्हें परिस्थितिकी तंत्र से सीधे बांधे रखने पर बल देता है। इस तंत्र को संरक्षित एवं पोषित करने की आवश्यकता है, ताकि विकास प्रक्रिया शाश्वत रूप से जारी रहे।
भूगोल एवं शाश्वत विकास
भूगोल में शाश्वत विकास की संकल्पना वर्तमान समय में दो कारणों से आई है –
(1) मानव और पर्यावरण तंत्र के असंगत संबंध में पारिस्थितिकीय संतुलन को बाधित किया है। वर्तमान मानव समाज के सम्मुख भोजन, जल, शुद्ध वायु और समुचित रहने की जगह आदि अनेक समस्याएं स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के तीव्र शोषण से अस्तित्व में आयी हैं। वनों और मिट्टियों का उत्पादक कार्यों में इतनी तीव्र गति से प्रयोग हो रहा है, जिससे वे तेजी से घटते जा रहे हैं। परिणाम यह है कि मनुष्य के लिए वे अनुपयोगी होते जा रहे हैं। क्योंकि प्रकृति द्वारा वे शीघ्रता से निर्मित नहीं किए जा सकते हैं। पशुचारण और अत्यधिक शस्यउत्पादन से अर्थव्यवस्था का स्रोत मृदा नष्ट होती जा रही है। ऊर्जा साधनों का औद्योगिकरण के कारण तेजी से ह्रास हो रहा है।
आर्थिक विकास के लिए आवश्यक ये तत्व प्रकृति द्वारा लाखों करोड़ों वर्षों में निर्मित किए गए हैं। इनका शीघ्रता से पुनर्निर्माण नहीं किया जा सकता। परमाणु ऊर्जा से नि:सृत रेडियोधर्मिता से जल व वायु प्रदूषित होकर मानव के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहे है। अनियंत्रित कृषि और तीव्र औद्योगिकरण से धरातल, जल और वायु प्रदूषित हो रही है। महासागर जो भावी जनसंख्या के लिए भोजन के स्रोत है। एक तरह से कूड़े कचरे के गड्ढों में परिवर्तित हो रहे हैं।
जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरण के उपयोग की कोई सीमा नहीं है। यह अनुमान किया जा सकता है कि 2050 तक विश्व की 80% आबादी नगरों में निवास करने लगेगी। इससे वर्तमान समस्याएं घनीभूत होंगी तथा मलिन बस्तियों का फैसला होगा। ये सभी तथ्य मानव और पर्यावरण के असंगत संबंधों के परिणाम है। वर्तमान विकास की संकल्पना इसलिए प्राकृतिक और मानवीय चरों के पारस्परिक विकासात्मक अन्संतर्संबंध को नियोजित करने को प्रेरित करती है।
(2) विकास का एकमात्र उद्देश्य धन का एकीकरण है, क्योंकि धन या पूंजी ही मानव के तीव्र सामाजिक आर्थिक विकास को प्रभावित करती है। लेकिन वास्तव में विकास के अस्तित्व के लिए अत्यधिक धन या पूंजी प्राप्त करना ही ध्येय नहीं होना चाहिए क्योंकि जॉन पुश्चिर के अनुसार छलपूंजी जो धन संचय का परिणाम है – एक ऋणात्मक धन है। यह एक ऐसी पूंजी है जो मानव के लिए पृथ्वी की उपयोगिता समाप्त कर देती है। इसलिए प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि अथवा किसी भी प्रकार राष्ट्रीय आय में वृद्धि ही विकास का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। इस तरह अधिक धन संचय, अधिक उत्पादन और अधिक उपभोग का दुष्चक्र भौतिक विकास का आधार है।
इस विकास की कोई अंतिम सीमा नहीं है। इसकी न्यूनतम सीमा तो मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने तक मानी जा सकती है। लेकिन ऊपरी सीमा अदृश्य है। इस अदृश्य सीमा को प्राप्त करने के लिए पश्चिमी समाज संसाधनों का अंधाधुंध शोषण करके पर्यावरण संतुलन को विकृत कर रहा है। इसके प्रतिकार के लिए भी शाश्वत विकास की संकल्पना का अस्तित्व संभव हुआ है। इसके अंतर्गत विकास प्रक्रिया मानव द्वारा संचालित किया जाना तो आवश्यक है, क्योंकि बिना इसके मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। लेकिन मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि विकास प्रक्रिया दीर्घकाल तक अक्षुण्ण बनी रहे क्योंकि अन्य जैव समुदायों पर मानव की श्रेष्ठता तभी तरह रह पाएगी। यहीं शाश्वत विकास की उपयुक्त संकल्पना का उपयोग किया जाता है, जो मनुष्य और पर्यावरण के अंतर संबंधों पर आधारित है।
पर्यावरण शब्द का यहां भूतंत्र के रूप में विस्तृत अर्थ रखता है जिसमें भू-पारिस्थितिकी और सामाजिक, आर्थिक तंत्र सम्मिलित है। भू-पारिस्थितिकी में प्राकृतिक तथ्य है, और सामाजिक आर्थिक तंत्र में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दशाएं, विज्ञान, तकनीक और राजनीतिक परिस्थितियां सम्मिलित हैं। इसलिए मेकेलिन ने कहा है कि भूगोल पर पर्यावरण के विभिन्न तथ्यों के सम्मिलित विज्ञान के रूप में शाश्वत विकास का अध्ययन करने का श्रेष्ठ माध्यम प्रदान करता है। इस प्रकार शाश्वत विकास में मानव प्रजाति के अक्षुण्ण विकास हेतु भू-पारिस्थितिकी और मानव पारिस्थितिकी तंत्र के अंतर संबंधित एवं संतुलित उपयोग सम्मिलित हैं।