- लघु उद्योग
- अति लघु उद्योग
- कुटीर उद्योग
इसमें लघु और अति लघु उद्योग के लिए पूंजी सीमा निर्धारित थी, जबकि घरेलू या कुटीर उद्योग को समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम के साथ सम्मिलित कर दिया गया। 1977 की नीति से ग्रामीण औद्योगिक को बल मिला और पिछड़े जिलों में जिला औद्योगिक केंद्र की स्थापना की गई। ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी और प्रशिक्षण की सुविधाएं दी गई। फलस्वरुप देश के कई ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू उद्योग वाणिज्यिक रूप ले चुका है।
प्रादेशिक दृष्टिकोण से मैदानी भारत में हैंडलूम एवं हैंडीक्राफ्ट उद्योग का विकास विशेष समुदाय के लोगों के बीच बड़े स्तर पर हुआ है। कर्नाटक एवं जम्मू कश्मीर में कास्ट शिल्प उद्योग विकसित है। कर्नाटक का चंदन आधारित काष्ठ शिल्प उद्योग विश्वव्यापी है। जम्मू कश्मीर में कालीन उद्योग भी प्रमुख है। झारखंड, कर्नाटक एवं अन्य पठारी क्षेत्र में रेशम पालन एवं रेशम के धागे के उद्योगों का विकास हुआ है। इसी तरह जनजातियों द्वारा मधुमक्खी पालन, बीड़ी उद्योग, गोंद संग्रह उद्योग का विकास हुआ है। पंजाब और हरियाणा में तैयार वस्त्र उद्योग, ऊनी वस्त्र उद्योग का विकास मुख्य तक जालंधर एवं लुधियाना के ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है। उत्तर प्रदेश के पिलखुवा में हथकरघा उद्योग छोटे पैमाने पर विकसित हो रहा है। पश्चिम बंगाल के ग्रामीण अर्थव्यवस्था में दुग्ध उद्योग का भी काफी महत्वपूर्ण योगदान है। उसी प्रकार अगर देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में पीतल उद्योग एक अंतरष्ट्रीय उद्योग का रूप ले चुका है।
स्पष्ट था विभिन्न क्षेत्रों में कई प्रकार के घरेलू उद्योग का विकास हुआ है, लेकिन आधुनिकीकरण का नहीं होना, कच्चे माल की कमी होना, उत्पादन लागत का अधिक होना आदि प्रमुख समस्याएं हैं। पुनः कुटीर उद्योग को प्रतिस्पर्धात्मक नहीं बनाया जा सका है। अतः संरचनात्मक सुविधाओं के विकास एवं उचित नीति के द्वारा इस परंपरागत उद्योग को विकसित करने की आवश्यकता है। जैसे –