नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ नीति को आगे बढ़ाने के लिए कैबिनेट प्रस्ताव पारित किया है। अगर इसे लागू किया जाता है तो यह भारतीय राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं होगी। 1951-52 से 1967 तक लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव ज़्यादातर एक साथ ही होते थे।
1957 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने एक साथ चुनाव कराने के लिए कुछ राज्य विधानसभाओं को भंग कर दिया था और यह सभी राजनीतिक दलों की सहमति से किया गया था। जिन राज्यों की विधानसभाओं को लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की सुविधा के लिए उनके कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग कर दिया गया था, उनमें बिहार, बॉम्बे, मद्रास, मैसूर, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल थे।
भारत में दूसरे आम चुनावों पर ECI की रिपोर्ट (खंड I) के अनुसार, ‘आयोग ने 13 नवंबर, 1956 को नई दिल्ली में अखिल भारतीय राजनीतिक दलों का एक सम्मेलन बुलाया, ताकि आम चुनाव कराने के लिए फरवरी-मार्च, 1957 में सबसे सुविधाजनक अवधि पर उनके विचार प्राप्त किए जा सकें। राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने एकमत से कहा कि चुनाव बिना किसी लंबे अंतराल के लगातार होने चाहिए।’ 1962 में ECI की रिपोर्ट में भी सभी राजनीतिक दलों की सहमति से एक साथ चुनाव कराने की वकालत की गई थी।
भारत के विधि आयोग ने 1999 में ‘चुनावी कानूनों में सुधार’ पर अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि ‘हर साल और बेमौसम चुनावों के इस चक्र को खत्म किया जाना चाहिए। हमें उस स्थिति में वापस जाना चाहिए, जहां लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। यह सच है कि हम उन सभी स्थितियों और घटनाओं की कल्पना या प्रावधान नहीं कर सकते जो अनुच्छेद 356 के उपयोग के कारण उत्पन्न हो सकती हैं (जो निश्चित रूप से एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद काफी हद तक कम हो गई है) या अन्य कारणों से, फिर भी विधान सभा के लिए अलग से चुनाव कराना अपवाद होना चाहिए न कि नियम। नियम यह होना चाहिए कि ‘लोकसभा और सभी विधानसभाओं के लिए पांच साल में एक बार चुनाव होना चाहिए।’ 2015 और 2018 में विधि आयोग की रिपोर्ट ने भी एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया।