पृथ्वी तल पर दृष्टिगत होने वाली विभिन्न स्थलाकृतियों को भू-आकृति कहते हैं। इसका निर्धारण पृथ्वी के समुद्र तल के संदर्भ में ऊंचे, गहरे क्षेत्र के आधार पर किया जाता है। भू-आकृतियों का विकास पृथ्वी के आंतरिक और बाहरी क्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है। आंतरिक क्रियाओं की उत्पत्ति पृथ्वी की भू-गर्भिक संरचना की जटिलताओं के कारण होती है, जबकि बाहरी क्रियाओं की उत्पत्ति का कारण पृथ्वी के परित: विकसित अपरदन के साधनों/कारकों एवं जलवायु के प्रभाव से होती है।
आंतरिक क्रियाओं को अंतर्जात बल और बाहरी क्रियाओं को बहिर्जात बल कहा जाता है। अंतर्जात बलों के फलस्वरुप भू-संचलन का कार्य होता है जिसमें प्रथम व द्वितीय श्रेणी की स्थलाकृतियों का विकास होता है। प्रथम श्रेणी की स्थलाकृतियों के अंतर्गत महासागर, नितल और महाद्वीप आते हैं। प्रथम श्रेणी की स्थलाकृतियों के ऊपर अंतर्जात बलों की सक्रियता के कारण द्वितीय श्रेणी की स्थलाकृतियों का विकास होता है, इनमें पर्वत, ज्वालामुखी, भ्रंश, पठार एवं उत्थित समप्राय: मैदान जैसी विभिन्न स्थलाकृतियों का विकास होता है।
स्पष्ट है कि भू-संचलन की क्रिया द्वारा पृथ्वी के भू-पटल के मौलिक स्वरूप में व्यापक परिवर्तन होता है और विशिष्ट भू-आकृतिक लक्षणों का विकास होता है। भू-गर्भिक संरचना के अध्ययन द्वारा अंतर्जात बलों की उत्पत्ति का मुख्य कारक प्लास्टिक दुर्बल मंडल से उत्पन्न तापीय ऊर्जा तरंगों को माना जाता है जबकि बहिर्जात बलों का प्रभाव अनाच्छादन क्रिया के रूप में होता है, जैसे ही पृथ्वी तल पर भू-संचलन का प्रभाव उत्पन्न होने लगता है। वैसे ही बहिर्जात बल सक्रिय हो जाते हैं। बहिर्जात बल भू-संचलन से उत्पन्न स्थलाकृतियों में कांट छांट एवं समतलीकरण का कार्य करता है जिसे तृतीय श्रेणी की स्थलाकृति कहते हैं। इसके अंतर्गत अपक्षय एवं अपरदन से निर्मित विभिन्न स्थलाकृतियां आती है। नदी, पवन, हिमानी, समुद्री तरंगे और भूमिगत जल जैसे अपरदनों के कारणों द्वारा विकसित सभी प्रकार की स्थलाकृतियां इसमें आती हैं।
स्पष्ट है कि पृथ्वी तल पर भू-आकृतियों का विकास अंतर्जात एवं बहिर्जात बलों की सम्मिलित क्रिया द्वारा होता है, इसे भू-आकृतिक प्रक्रम कहते हैं। पृथ्वी तल पर भू- आकृतियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भू-आकृतिक प्रक्रम की क्रिया सदैव चलती रहती है हालांकि अंतर्जात बल और बहिर्जात बल की सक्रियता में विशिष्टता पायी जाती है। आंतरिक क्रियाएं जब अधिक सक्रिय होती हैं, तब नवीन भू-आकृतियों का विकास होता है, इसी कारण इसे निर्माणकारी प्रक्रम कहा जाता है। जबकि बहिर्जात बल की अधिक सक्रियता की स्थिति में भू-आकृतियों में कांट-छांट एवं समतलीकरण का कार्य होता है, जिस कारण इसे विनाशकारी प्रक्रम कहते हैं।
इन स्थलाकृतियों के अध्ययन के आधार पर विभिन्न भू-गर्भिक कालों में घटित होने वाली आंतरिक क्रियाओं एवं उनके प्रभाव तथा अनाच्छादन के प्रभाव को समझा जाता है, इससे भविष्य में पृथ्वी तल पर होने वाली भू-पटलीय परिवर्तनों को भी समझा जा सकता है।