हमारी धरती प्राचीन काल से ही मनुष्य एवं अन्य जीव धारियों का आवास तथा जीवन का आधार रही है। धरती के वन एवं जल स्रोतों को धरती के प्राणियों ने समय समय पर संवारा व उपयोग किया। इन प्राकृतिक क्रियाओं के द्वारा धरती के समस्त जीवो एवं इनके प्राकृतिक संसाधनों के मध्य निरंतर एक संतुलन बना रहता है। इतिहास साक्षी है कि जब-जब यह प्राकृतिक संतुलन डगमगाया एक के बाद एक हमारी संस्कृतियों तथा वन्य जीव-जंतुओं व वनस्पतियों की प्रजातियां लुप्त होती गई। अन्य जीव धारियों की कीमत पर मनुष्य का वर्चस्व बढ़ने के साथ धरती पर सहारा, गोभी व थार जैसे मरुस्थल उभरने लगे। मेसोपोटामिया, मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा जैसी सभ्यता इसी असंतुलन के कारण लुप्त हुई। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया का भविष्य हमारी धरती के स्वास्थ्य पर निर्भर रहता है और यह स्वास्थ्य हमारी धरती के पर्यावरण पर।
आज जिन तरीकों से प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक उपयोग व विनाश हो रहा है, उसे अब मूक दर्शन बनकर नहीं देखा जा सकता है। पश्चिमी देशों के लिए पर्यावरण विकास का अर्थ वहां के जीवन यापन स्तर को ऊपर उठाना हो सकता है, किंतु भारत के लिए पर्यावरण का अर्थ यहां के लोगों की जीवन मृत्यु का प्रश्न है। इस तरह पर्यावरणीय शिक्षा का सही अर्थ व्यक्तियों के जीवित रहने का ज्ञान है। हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या गांव में निवास करती है तथा उनकी निर्भरता पूर्णतः प्राकृतिक संसाधनों पर है। अन्न का उत्पादन मुख्यतः पशुओं की भागीदारी से किया जाता है। इन जानवरों का चारा भी मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त किया जाता है। ईंधन, इमारती लकड़ी, वायु, जल तथा मिट्टी आदि सब प्राकृतिक उत्पादन है। इनकी उपलब्धता एवं आवश्यकताओं के मध्य एक प्राकृतिक साम्य है। इस साम्यावस्था के अंतर्गत हमारे प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा पर्याप्त है। महात्मा गांधी जी कहा करते थे – प्रकृति में हर एक की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन है, किंतु लालच पूरा करने के लिए नहीं।
इस लालची प्रवृत्ति ने संसाधनों का इस तरह दोहन किया है कि शायद ही विश्व का कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां प्राकृतिक आपदा नहीं आई है। आज धरती के कुछ विशेष क्षेत्रों में ही जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है। कृषि भूमि शहरों में और वन भूमि कृषि भूमि में बदलती जा रही है। कहीं-कहीं आर्थिक समृद्धि के लिए खनन ने प्रकृति को अत्यधिक विध्वंसित कर दिया है। मनुष्य की इस शोषण व प्रकृति विनाश की नीति के खिलाफ प्रकृति भी मनुष्य से बदला लेने लगी है। एक और जहां मृत्यु दर व रोगियों की संख्या घटाने का प्रयास किए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक आपदाओं जैसे – बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, महामारी, भूस्खलन, भू-संचलन आदि अनेक आपदाओं से स्थिति और अधिक बिगड़ती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में औद्योगिक क्षेत्रों में पलायन होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण ग्रामीण निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर से विश्वास उठ जाना है। ग्रामीण निवासी अब यह सोचने लग गए हैं कि उनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने का दम अब ग्रामीण पारिस्थितिकीय तंत्र अथवा ग्रामीण तंत्र में नहीं रह गया है।
- आजादी से पूर्व एक सपना था कि शैक्षिक स्तर बढ़ाया जाना चाहिए। इस परिपेक्ष में अनेक विश्वविद्यालय तथा विद्यालय अस्तित्व में आए, जिससे शैक्षिक स्तर भी बढ़ा, किंतु यह शिक्षा एक आत्मविश्वास पैदा नहीं कर सकी।
- यह हर्ष का कारण है कि हमारे नियोजन कर्ताओं और जागरूक लोगों ने स्थिति की विकटता को समय रहते पहचाना एवं गैर-पारंपरिक शिक्षा के रूप में पर्यावरण शिक्षा के महत्व को जाना।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में पर्यावरणीय शिक्षा के महत्व को देखते हुए विचार व्यक्त किया गया है कि पर्यावरण शिक्षा को निम्न स्तर से प्रारंभ कर विश्वविद्यालय स्तर तक परिचित कराया जाए। यह शिक्षा तभी प्रभावी बन सकेगी, जबकि पाठ्यक्रम प्रसांगिक एवं अर्थपूर्ण हो।
पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता :
विचारों के आदान-प्रदान के लिए शिक्षा एक आदर्श माध्यम है। शिक्षा का यह दायित्व भी हो जाता है कि शिक्षित व्यक्तियों में स्वालंबन की भावना उजागर हो सके। विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग 1987 के अनुसार, आज पर्यावरण चेतना में कमी आई है। आधुनिक तकनीकी एवं विकास के तरीकों ने भी दोहक की ही भूमिका निभाई है। जहां तक पर्यावरण का प्रश्न है, यह केवल वृक्षारोपण या वृक्ष संरक्षण तक सीमित नहीं है, अपितु यह वह प्रकृति का आधार है जिस पर मानव जीवन व जीव-जंतु जीवित रहते हैं। इस पर कृषि एवं औद्योगिक क्रांति भी निर्भर करती है। दुनिया के किसी भी हिस्से में जब-जब पर्यावरण संकट आया है। इसकी मार व विपत्तियां गरीब वर्ग पर ज्यादा पड़ी है। हमारे देश की कुल जनसंख्या का सर्वाधिक भाग इसी वर्ग का है जोकि पर्यावरणीय समस्याओं से ग्रसित है। समस्या की महत्ता को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि समाज के प्रत्येक वर्ग में पर्यावरण चेतना जागृत हो और इसमें बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबको सम्मिलित किया जाना चाहिए।
आज का पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम कल के स्वास्थ्य व सुखी जीवन के लिए चलाया जा रहा है। अतः यह आवश्यक है कि आज के स्कूली बच्चों व ग्रामीण बच्चों को उनके प्राकृतिक पर्यावरण के विभिन्न अवयवों व संसाधनों से परिचित कराया कराया जाए। इस तरह के पर्यावरण ज्ञान से ये युवा भविष्य में खुद अपने लिए एक स्वावलंबी योजना बना सकते हैं, जिससे उनके और उनके संसाधनों के मध्य एक संतुलन आदर्श संबंध कायम हो सके।
भारतीय पर्यावरण संस्था के सुझाव :
1981 में भारतीय पर्यावरण संस्था नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक पर्यावरणीय शिक्षा में पर्यावरण शिक्षा के विकास हेतु निम्नलिखित संस्तुति की गई।
- पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप इस तरह से होना चाहिए जिससे पर्यावरण नीति का विकास हो सके। जैसे मनुष्य का प्रकृति, समाज व मनुष्य के प्रति मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन। साथ ही मनुष्य यह अनुभव करें कि वह प्रकृति का अभिन्न अंग है न कि प्रकृति से अलग।
- पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप माध्यमिक स्तर पर तथा विश्वविद्यालय स्तर पर इस तरह से होना चाहिए कि जिसके अध्ययन से छात्रों में पर्यावरण जागरूकता पैदा हो सकें।
- पर्यावरण शिक्षा का आधार इस तरह से बनाना चाहिए जिससे छात्रों को पर्यावरण की विभिन्न संकल्पनाओं तथा सिद्धांतों का स्पष्ट ज्ञान हो जाए।
- पर्यावरण शिक्षा के स्वास्थ्य विकास हेतु अध्यापकों, डॉक्टर, इंजीनियर, नियोजकों, सामाजिक वैज्ञानिकों, नीति निर्धारकों तथा प्रशासकों में रि-ओरियंटेशन पाठ्यक्रम प्रारंभ किया जाए।
- विश्वविद्यालय स्तर पर छात्रों को मानव पर्यावरण के संबंधों का अध्ययन कराया जाए तथा उन्हें पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट तैयार करने का ज्ञान कराया जाए।
- पर्यावरण विज्ञान में प्रत्येक स्तर पर प्रार्थी को पर्यावरण जागरूकता तथा प्रशिक्षण देना चाहिए।
- पर्यावरण शिक्षा में छात्रों को स्थानीय पर्यावरण तथा स्थानीय पर्यावरण उपजों का ज्ञान कराया जाए।
पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप :
प्राय: हम एक ऐसे स्वावलंबी स्वत: अर्थ नियंत्रित तंत्र की कल्पना बहुतयत करते हैं, जिससे हमारे घर की समस्त आवश्यकताओं कि एक लंबे समय तक पूर्ति करने की क्षमता हो। ऐसी व्यवस्था तभी की जा सकती है जबकि प्रकृति से हमें लगाव हो तथा इसके उचित स्व:स्थापना के पहलुओं पर भी पर्याप्त विचार किया जा सके। आज हम जिस पर्यावरण में रहते हैं, उसके अंग न केवल जीव-जंतु व वनस्पति हैं अपितु उस क्षेत्र में निवास करने वाले मनुष्य भी इसके अंग हैं। प्रत्येक क्षेत्र के निवासियों के अपने जीवन यापन के अलग-अलग तरीके होते हैं, जिसको समय व पर्यावरण ने इतना बांध दिया है कि वह उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति बन गई है। उदाहरण के लिए मनुष्य की भोजन प्रवृत्ति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि बंगाल का व्यक्ति मछली और भात बड़े चाव से खाता है।
इसी तरह पंजाब का किसान गेहूं, ज्वार, बाजरा और मक्के की रोटी। इसका प्रमुख कारण यह है कि उस क्षेत्र विशेष में पर्यावरण की सीमाओं के अंदर इसी भोजन को स्वीकारने में अपनी सामर्थ्य समझी। इसी तरह से अर्थ तंत्र को देखें तो पता चलता है कि जहां बंगाल में मत्स्य पालन एक सफल कारोबार है, वहीं हिमाचल प्रदेश और कश्मीर में बागवानी। इससे स्पष्ट होता है कि पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र सीमित नहीं हो सकता है। यदि भौतिक विज्ञान व पर्यावरण विज्ञान दोनों को अलग-अलग माना गया है, किंतु व्यवहार में दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं।
पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप इतना लचीला होना चाहिए कि उसमें विज्ञान की सभी शाखाएं में सभी को समेटने की हर कदम पर विभिन्नता लिए हुए इसलिए पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में प्रसांगिक उदाहरणों को सभी जगह के लिए मानक नहीं बनाया जा सकता है किंतु यह कहा जा सकता है कि किसी भी व्यक्ति का संबंध क्रमशः घर, गांव, क्षेत्र, तहसील, जिला, प्रदेश से होता है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि स्वयं उस व्यक्ति के लिए उसे घर से लेकर विश्व तक का पर्यावरणीय ज्ञान उसके लिए मानक होगा।
अतः आय एवं विद्यालयी स्तर के साथ-साथ शिक्षा का स्तर वृहद किया जा सकता है। हमें इस बात का ज्ञान भी होना चाहिए कि यदि आज हम अपने पर्यावरण से छेड़छाड़ करते हैं तो हमारी भावी पीढ़ी को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। अतः शिक्षा में छात्रों के माध्यम से जनचेतना का कार्यक्रम भी चलाया जाना आवश्यक है। यदि इस तरह की चेतना समाज में उभर सकती है तो एक अच्छे भविष्य की कल्पना की जा सकती है।
महत्वपूर्ण तथ्य :
- पर्यावरण शिक्षा का सरल अर्थ वह शिक्षा है, जो हमें अपने संरक्षण, गुणवत्ता, संवर्द्वन और सुधार की व्याख्या करती है। मनुष्य प्रकृति से सीखे, प्रकृति के अनुसार अपने आपको ढाले और प्रकृति को प्रदूषित करने के बजाए उसका संरक्षण करें
- पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य – उसकी जानकारी प्राप्त करना या कराना ही पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य है। वास्तव में पर्यावरण शिक्षा से तात्पर्य उस शिक्षा से है जो विश्व समुदाय को पर्यावरण की समस्याओं के सम्बन्ध में जानकारी देता है।
- बच्चे के लिए पर्यावरण शिक्षा की भूमिका – पर्यावरण संरक्षण के लिए पर्यावरण की शिक्षा देना आवश्यक है। दूसरे शब्दो मे बच्चा अच्छी आदतें सीखकर उसका उपयोग घर मे करेगा। इससे उसके परिवार मे भी अच्छी आदतों का विकास होगा। बच्चों मे प्राथमिक स्तर से ही पर्यावरण संरक्षण की आदत विकसित करनी चाहिए।
- पर्यावरण शिक्षा का केंद्र, अहमदाबाद में तथा इसकी शुरुआत 1989 में हुई थी
- वायु प्रदूषण, कचरे का प्रबंधन, बढ़ रही पानी की कमी, गिरते भूजल टेबल, जल प्रदूषण, संरक्षण और वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता के नुकसान, और भूमि/मिट्टी का क्षरण प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में से कुछ भारत की प्रमुख समस्या है। भारत की जनसंख्या वृद्धि पर्यावरण के मुद्दों और अपने संसाधनों के लिए दबाव समस्या बढ़ाते है। आजकल एक नया प्रदूषण और आ गया है और वह है इलेक्ट्रॉनिक सामान का प्रदूषण।
- United Nations Environment program (UNEP), वर्ल्ड स्वास्थ्य संगठन (WHO) खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) आदि कुछ मुख्य अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियाँ हैं। UNEP का गठन यूनाइटेड नेशन्स जनरल असेंबली द्वारा यूनाइटेड नेशन्स की स्टॉकहोम, स्वीडन में हुआ।
One thought on “Environmental Education in Hindi | पर्यावरण शिक्षा क्यों जरूरी है?”
Comments are closed.