Praval bhitti in Hindi | प्रवाल संरचना | प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति | प्रवाल भित्ति के प्रकार

प्रवाल भित्ति (Coral Reef) एक प्रकार की समुद्री स्थलाकृति है, जो चूना प्रधान जीवों के स्तरीकरण (Stratification) से विकसित होती है। इसका विकास उष्ण कटिबंधीय (Tropical) क्षेत्रों में पूर्वी घाट के किनारे बांध की भांति होता है। यह एक कटकनुमा आकृति है और निम्न ज्वार के समय ऐसे कटकीय स्थलाकृति के शीर्ष दृष्टिगत होते हैं। प्रवाल भित्ति और स्थल के बीच समुद्री जल पाया जाता है जो निम्न ज्वार के समय लैगून के रूप में दृष्टिगत होते है।

प्रवाल भित्ति (Coral Reef) का विकास मुख्यत: 30° उत्तर से 30° दक्षिण के मध्य हुआ है। लेकिन कुछ प्रवाल भित्ति मध्य और उच्च अक्षांश (Latitude) क्षेत्रों में भी पाए जाते हैं। इसका प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन या प्लेटो का विस्थापन है।


प्रवाल भित्ति के विकास के लिए आवश्यक दशाएं


प्रवाल भित्ति के विकास के लिए वे परिस्थितियां आवश्यक हैं, जो प्रवाल जीवों के लिए आवश्यक है, क्योंकि प्रवाली जीवो के अवशेष से ही प्रवाली स्थलाकृति विकसित होती है। प्रवाल जीवो के विकास के लिए निम्नलिखित परिस्थितियां आवश्यक है।

  1. आदर्श तापमान 20 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए, परंतु विशिष्ट परिस्थितियों में यह 18° से 25° सेल्सियस के मध्य में विकसित होता है।
  2. प्रवाल भित्ति के विकास के लिए समुद्र की आदर्श गहराई 45 से 55 मीटर वाली जाती है। इसका विकास उस समुद्री सतह तक होता है, जहां प्लैंगटेन का विकास होता है या सूर्य की किरणें पहुंच पाती है।
  3. प्रवाली जीवो का विकास अति लवणयुक्त समुद्री जल में नहीं होता। पूर्णता लवण विहीन समुद्री जल भी इसके लिए अनुकूल नहीं है। 27 से 40% लवणता वाले समुद्री जल अनुकूल परिस्थितियां बनाते हैं।
  4. प्रवाल का विकास वैसे छिछले सागरों में अधिक होता है, जहां पठारीनुमा आकृति हो अर्थात सतह का ढाल मन्द होता है।
  5. प्रवाली (Coral) जीवो के लिए अति स्वच्छ जल और मिट्टी युक्त जल हानिकारक है। स्वच्छता की स्थिति में लवण का अभाव होता है, जबकि मिट्टी की उपस्थिति में प्रवालों का मुख बंद हो जाते हैं और इसका विनाश हो जाता है। अतः इसी कारण से प्रवालों का विकास सतह से दूर होता है।
  6. इन जीवो के विकास के लिए प्लैंकटन का विकास अनिवार्य है। प्लैंकटन वनस्पति है जो प्रवाली जीवों का भी भोज्य पदार्थ है।

ऊपर वर्णित परिस्थितियों वाले प्रदेश में ही प्रवाली कीड़ों का विकास होता है और इन कीड़ों के विकास से प्रवाल भित्ति विकसित होती है। प्रवाली जीवों के अपशिष्ट के अलावा सूक्ष्म वनस्पतियों के अवशिष्ट भी मिश्रित होते हैं।


प्रवाल भित्तिओं के प्रकार


भौगोलिक स्थिति और विशिष्टता के आधार पर प्रवाल भित्ति को तीन भागों में बांटा जा सकता है।

  1.  तटीय प्रवाल भित्ति (Fringing reef)
  2.  अवरोधक प्रवाल भित्ति (Barrier reef)
  3.  वलयाकार प्रवाल भित्ति या एटोल (Atol)
  • तटीय प्रवाल भित्ति (Coastal Coral Reef) :

यह तट के किनारे विकसित होते हैं। इसकी मोटाई सामान्यतः कम होती है। अधिकतर मोटाई 50 से 55 मीटर तक हो पाई जाती है। यहां लैगून छिछले होते हैं और लैगून की सामान्य गहराई 0.3 से 1.5 मीटर तक होती है। इस लगून को वोट चैनल कहते हैं। लैगून की सतह पर प्रवाली चट्टानों के टुकड़े होते हैं। इसमें क्ले एवं मिट्टी का मिश्रण होता है। जीवित प्रवाल भी इस ढाल पर लुढ़ककर नीचे गिरते हैं और मिट्टी के मध्य मिलकर लैगून की सतह पर निक्षेपित हो जाते हैं। इसी प्रक्रिया के कारण लैगून छिछले होते हैं।

  • अवरोधक प्रवाल भित्ति (Barrier Coral Reef) :

इसका विकास भी तट के किनारे होता है, लेकिन यह तटीय प्रवाल भित्ति से तीन दृष्टि से अलग होती है।

  1.  प्रवाल संरचना की मोटाई अधिक होती है। यह सामान्यतः 50 मीटर से अधिक होती है। इसमें 160 मीटर तक संरचनात्मक मोटाई पाई जाती है। ग्रेट बैरियर रीफ में अधिकतम मोटाई 180 मीटर है।
  2.  लैगून भी अधिक गहरे होते हैं, लैगून की गहराई 60 मीटर तक पाई जाती है।
  3.  प्रवाल भित्ति का आंतरिक और बाह्य ढाल तीव्र हो जाता है। आंतरिक ढाल 15 डिग्री से 20 डिग्री और बाहर ढाल सामान्यतः 45 डिग्री होता है।

विश्व का सबसे लंबा अवरोधक भित्ति ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर 1900 किमी लंबा ग्रेट बैरियर रीफ है। दूसरा बड़ी प्रवाल भित्ति न्यूकैलिडोनियां भित्ती है।

  • वलयाकार प्रवाल भित्ति (Annular coral reef) :

एटोल का विकास सामान्यतः ज्वालामुखी द्वीप के चारों तरफ होता है। द्वीपों के किनारे प्रथम दो प्रकार की भित्ती भी विकसित हुई है, लेकिन वर्तमान समय में द्वीपों के किनारे अधिकतर एटोल भित्ति ही है। वह वलयाकार भित्ति जो स्थायी रूप से समुद्र की सतह से ऊपर है, वे एटोल द्वीप के नाम से जाने जाते हैं। ऐसे द्वीपों के आधारभूत चट्टान बेसाल्ट है। एटोल भित्ति पुनः अधिक मोटी होती है। इस भित्ति में किनारे के आंतरिक और बाह्य ढाल तीव्र होते हैं। लैगून की गहराई भी अधिक होती है। एटोल भित्ति अपने भौगोलिक स्थिति के अनुरूप पुनः तीन भागों में विभक्त किए जाते हैं।

  1. ऐसा वलयाकार भित्ति जिसके मध्य सिर्फ लैगून हो जैसे लक्ष्यदीप।
  2. ऐसी वलयाकार भित्ति जिसके मध्य लैगून और द्वीप दोनों स्थित है। प्रशांत महासागर में अधिकतर एटोल इसी प्रकार के हैं।
  3. मुख्य तट के किनारे विकसित एटोल

एटोल के समुद्र में पाए जाने के कारण समुद्र में जलमग्न बेसाल्ट निर्मित द्वीप है। उदाहरण के लिए मन्नार की खाड़ी, अण्डमान के पूर्वी तट पर, फ्लोरिडा के पूर्वी तट पर, दक्षिण पूर्वी एशिया के पूर्वी तट पर एटोल पाए जाते हैं।


प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत


प्रवाल भित्ति के विकास संबंधित अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं। इन सिद्धांतों को 3 प्रमुख वर्गों में रखा जा सकता है।

  1. अवतल सिद्धांत (Subsidence Theory) – डार्विन
  2. स्थिर स्थल सिद्धांत (Stand still Theory) – मर्रे
  3. हिम नियंत्रण सिद्धांत (Glacial control theory) – डेली
  • डार्विन का भू-अवतलन सिद्धांत :

यह सर्वाधिक मान्यता प्राप्त सिद्धांत है, क्योंकि यह अधिकतर प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति की व्याख्या करता है। डार्विन ने इस सिद्धांत का सर्वप्रथम प्रतिपादन 1837 में किया और कुछ प्रमाणों के आधार पर 1842 में कुछ संशोधन प्रस्तुत किये। डार्विन के अध्ययन का आधार विकनी द्वीप है, जो मार्शल द्वीप समूह का एक द्वीप है। बाद के वर्षों में इस सिद्धांत का समर्थन डाना एवं डेविस द्वारा किया गया। डेविस ने अपनी पुस्तक The coral Reef Problem में इसका वर्णन किया है।

डार्विन का भू-अवतलन सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि प्रवाल भित्ति का विकास भू-संचलन अथवा भू-अवतलन से जुड़ा हुआ है। इनके अनुसार उष्ण कटिबंध के छिछले सागरीय क्षेत्रों में सामान्यतः महाद्वीपों के पूर्वी तट पर प्रवाली जीवो का विकास होता है, क्योंकि आदर्श तापमान और लवणता को वाणिज्य हवाएं संतुलित रखती हैं। लेकिन पूर्व तट पर विभिन्न आकृति और मोटाई के प्रवाल भित्तिओं का विकास भू-अवतलन से जुड़ा है। जैसे-जैसे स्थलाकृति में धंसान होता है, वैसे-वैसे लैगून की गहराई में वृद्धि होती है, क्योंकि प्रवाली जीव एक दूसरे के ऊपर लगातार ऊपर उठते जाते हैं। प्रवाली भित्ति की मोटाई में वृद्धि होती जाती है और झील गहरी हो जाती है।

इस सिद्धांत के आधार पर हजारों मीटर मोटी वाली संरचना की व्याख्या संभव है। क्योंकि 1000 मीटर की गहराई पर प्रवाली जीव विकसित नहीं हो सकते हैंबिकनी द्वीप में सबसे मोटी प्रवाल भित्ति पाई जाती है, जो 1800 मीटर मोटी है। प्रवाल भित्ति बैसाल्ट एवं ग्रेनाइट दोनों प्रकार की शैलों पर विकसित होती है। तट के किनारे आधारभूत चट्टान होते हैं। डार्विन के पक्ष में सर्वाधिक प्रमाण डेविस द्वारा जुटाए गए। डेविस ने प्रशांत महासागर के अनेक द्वीपों के प्रवाल की मोटाई के आधार पर इस सिद्धांत की पुष्टि की है। पुनः डेविस ने यह भी बताया है कि अवरोधक भित्ति और एटोल के तटवर्ती क्षेत्र में तटरेखा अत्यधिक कटी-फटी है। यहां पर खिड़ी और गहरे सागरों का निर्माण हुआ है, जो भू-अवतलन की पुष्टि करते हैैं।

1950 से 1960 के बीच प्रशांत महासागर में अनेक दीपों पर पेट्रोलियम की खोज का कार्य शुरू हुआ जो प्रवाल भित्ति संबंधित ज्ञान के विकास का आधार साबित हुआ। बिकनी द्वीप में प्रवाल भित्ति की मोटाई 1800 मीटर तक पाई गई, लेकिन कुछ ऐसे द्वीप भी हैं जो डार्विन के सिद्धांत की पुष्टि नहीं करते। इसमें सोलोमन और पलाऊ द्वीपों में अगर भू-अवतलन के प्रमाण नहीं है, तो प्रवाली संरचना की गहराई भी अधिक नहीं है। 200 मीटर तक की गहराई की व्याख्या समुद्र तल के परिवर्तन से की जा सकती है, जो प्लीस्टोसीन हिमानी तथा बाद की परिस्थितियों में संभव हुआ है‌। यह प्रमाण डेविस ने दिया है।

  • स्थिर स्थल सिद्धांत (Stationary Site Theory) :

यह सिद्धांत मर्रे के चैलेंज अभियान पर आधारित है। मर्रे महोदय के अनुसार, विभिन्न प्रकार की प्रवाली संरचना का विकास छिछले सागर की स्थलाकृति और लैगून के जल के प्रभाव पर आधारित है। इस विचार का समर्थन सैंपर एवं आगासीज जैसे चिंतकों ने भी किया है। इस सिद्धांत के अनुसार, प्रवाल भित्ति के विकास के लिए स्थिर समुद्री प्लेटफार्म आवश्यक है। चबूतरे की गहराई 54 से 55 मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। ऐसे ही चबूतरे पर प्रवाली कीड़ों का झुंडो में विकास होता है। ये सभी झुंड मिलकर प्रवाल भित्ति का विकास करते हैं। अगर ये चबूतरे तट के नजदीक हो तो चबूतरो के बाहरी क्षेत्र में प्रवाल का विकास तेजी से होता है।

इस सिद्धांत को अगर प्रवाल भित्ति के विकास का आधार माना जाए तो तथ्यों का होना अनिवार्य है।

लैगून का संतुलन क्रिया का परिणाम है और प्रवाल भित्ति की अधिकतर गहराई 54-55 मीटर हो सकती है और लैगून की गहराई 54-55 मीटर से अधिक नहीं होगी। अधिकतर परिस्थितियों में यह मान्यता लागू नहीं होती। प्रथमत: समुद्र के लवणयुक्त जल में घुलन क्षमता न्यून होती है। दूसरा लैगून की तली पर घुलन रासायनिक क्रिया के बदले निक्षेपन के प्रमाण है और तीसरा अनेक लैगून की गहराई 100 मीटर या उससे अधिक है। इस सिद्धांत में जिस अंतराल की ढाल की कल्पना गई है, इससे अधिक आन्तरिक ढाल अनेक प्रवाली संरचना में देखने को मिलता है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर इस सिद्धांत को लगभग अस्वीकार किया जा चुका है। सोलोमन द्वीप समूह के अनेक द्वीपों पर यह सिद्धांत लागू होता है तथा मार्शल द्वीप समूह पर लागू नहीं होता।

महत्वपूर्ण तथ्य


  1. प्रवाल भित्तियाँ या प्रवाल शैल-श्रेणियाँ (Coral reefs) समुद्र के भीतर स्थित चट्टान हैं, जो प्रवालों द्वारा छोड़े गए कैल्सियम कार्बोनेट से निर्मित होती हैं। वस्तुतः यह इन छोटे जीवों की बस्तियाँ होती हैं।
  2. प्रवाल मुख्य रूप से प्रशांत महासागर में स्थित माइक्रोनेशिया, वानुआतु, पापुआ न्यू गिनी में भी प्रवाल पाए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर रीफ दुनिया की सबसे बड़ी और प्रमुख अवरोधक प्रवाल भित्ति है। भारतीय समुद्री क्षेत्र में मन्नार की खाड़ी, लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार आदि द्वीप भी प्रवालों से निर्मित हैं।
  3. लक्षद्वीप’ भारत के दक्षिण-पश्चिम किनारे पर स्थित हैं। यह भारत का एकमात्र मूँगा द्वीप हैं।
  4. इसके अलावा कच्छ की खाड़ी, मालवान और मन्नार द्वीप समूह आदि जगह पर ये स्थलाकृतियां है
  5. प्रवाल, पॉलिप कहे जाने वाले छोटे जीवों की एक बस्ती है. ये जीव सैकड़ों और हज़ारों के समूहों में रहते और काम करते हैं
  6. मूँगा, जिसे कोरल और मिरजान भी कहते हैं, एक प्रकार का नन्हा समुद्री जीव है, जो लाखों-​करोड़ों की संख्या में एक समूह में रहते हैं​।

प्रवाल विरंजन | जैव विविधता संरक्षणहिमालय का महत्वपारिस्थितिकी असंतुलनजैव विविधता 

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