यदि किसी क्षेत्र में वन काटे जाएं किंतु उसी अनुपात में यदि वनों की पुनर्स्थापना एवं विकास नहीं हो तो उसे वन विनाश कहते हैं, अर्थात वन विनाश का तात्पर्य (Meaning) वनों में होने वाली कमी से है। यह कमी मानवीय गतिविधियों (Activities) के कारण वनों की कटाई से होती है। वन विनाश के प्राकृतिक कारण भी हैं, परंतु मानवीय कारण ही वनों के विनाश के लिए मुख्यत: उत्तरदाई होते हैं। वनों से पर्यावरणीय संतुलन बना रहता है तथा मनुष्य को वनों से विविध प्रकार के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होते हैं। अतः वन विनाश की समस्या न केवल पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न करती है, बल्कि मानवीय आदिवासीय परिस्थितियों को विपरीत रूप से प्रभावित करती है, बल्कि मानव की आधारित आवश्यकताओं की पूर्ति में भी कमी लाती है।
वन के महत्व को 5 आवश्यक रूप से समझा जा सकता है।
वनों से हमें ऑक्सीजन, जल, मृदा, चारा तथा फल आदि प्राप्त होते हैं।
वन में एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र होता है, जहां पूर्णतः संतुलित प्राकृतिक व्यवस्था पाई जाती है। इसी पारिस्थितिकी तंत्र में पेड़-पौधे, जीव-जंतु, सूक्ष्मजीव, सूक्ष्म वनस्पतियां तथा प्राकृतिक पर्यावरण आदि का आपस में जटिल अंतर्संबंध की अव्यवस्था पाई जाती है। जहां यह सभी आपस में सामंजस्य की स्थिति में होते हैं। इसका लाभ मानवीय परिस्थिति को प्राप्त होता रहता है।
पेड़-पौधे मृदा उर्वरता को बढ़ाते हैं, जिससे भूमि उपजाऊ होती है। पौधों की जड़ें मिट्टी को जकड़े रहती हैं और मृदा अपरदन को रोकती हैं। वृक्षों की जड़े पानी को भी संचित रखती है। इस तरह बाढ़ नियंत्रण एवं भूस्खलन के कारण नियंत्रण से सहायक होता है। पुनः वनस्पतियां वायुमंडलीय नमी को बनाए रखती हैं तथा वर्षा में सहायक होती हैं। यह वायुमंडलीय आर्द्रता, तापमान तथा वर्षा को प्रभावित करता है। अतः वन प्रमुख जलवायु एक नियंत्रक कारक है। मनुष्य को स्वच्छ ऑक्सीजन की प्राप्ति वनस्पतियों के कारण ही प्राप्त होती है। स्पष्टत: वनों के विविध महत्व है। वनों में पाए जाने वाले विविध प्रकार के जीव-जंतु, पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी पर्याप्त महत्व रखते हैं। कीड़े-मकोड़े (Insects) तथा पक्षी, पौधों के बीजों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाकर वनों के विस्तार में सहयोग देते हैं। सूक्ष्म जीवाणु वृक्षों को अपघटित कर मृदा में मिलाकर मृदा को उर्वर बनाते हैं, जिससे वनस्पतियों का सतत विकास प्राकृतिक रूप से होता रहता है।
स्पष्टत: वनों के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की क्रियाएं स्वयं होती रहती हैं और यह संपूर्ण क्रियाएं तथा व्यवस्था एक चक्रीय रूप में घटित होती है। वनों की इस प्राकृतिक व्यवस्था में मानवीय हस्तक्षेप के कारण बाधा उत्पन्न होती है तथा वनों की कटाई या किसी भी कारण वनस्पतियों को होने वाली क्षति को वन विनाश कहते हैं।
वन विनाश के कारण
वन विनाश के कारणों को 2 वर्गों में बांटते हैं। मानवीय कारक तथा प्राकृतिक एवं अन्य कारक।
मानवीय कारक
मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों का दोहन (Exploitation) करता रहा है, परंतु औद्योगिक क्रांति के बाद वनों के विनाश की दर में वृद्धि हो गई है। वर्तमान में नगरीकरण, कृषि भूमि का विस्तार, औद्योगिकरण, खनन, बहुउद्देशीय परियोजनाएं, ईंधन के लिए लकड़ी का उपयोग जैसे विभिन्न कारणों से वनों के विनाश की गति तीव्र हो गई। फलस्वरुप वनों के विनाश के कई दुष्परिणाम सामने आए, जिनमें पर्यावरणीय समस्या प्रमुख मानवीय कारणों को ही वनों के विनाश का प्रमुख कारक माना जाता है। जैसे –
- ऊर्जा के लिए वनों का विनाश
वन की लकड़ी मानव सभ्यता के प्रारंभिक काल से ही ऊर्जा का स्रोत रही है। ईंधन की लकड़ी का उपयोग वर्तमान समय में भी विभिन्न क्षेत्र में हो रहा है। विशेषकर विकासशील देशों में ग्रामीण जनसंख्या अपने आसपास के वनों को काटकर ही उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। पर्वतीय वन क्षेत्र की जनजातियां (Tribes) तथा अन्य जनसंख्या द्वारा बड़े पैमाने पर लकड़ी की कटाई यूनियन के रूप में खाना पकाने के लिए की जाती है। भारत के ग्रामीण क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली ऊर्जा का लगभग 60 प्रतिशत भाग इनकी लकड़ी से ही प्राप्त होता है। एक आकलन के अनुसार हिमालय क्षेत्र की उर्जा का 99 प्रतिशत भाग इंधन की लकड़ी से ही प्राप्त होता है वनों के विनाश का यह एक प्रमुख कारण है।
इसके अतिरिक्त वन आधारित शक्ति गृहों के लिए भी वनों का विनाश हो रहा है। हालांकि यह प्रक्रिया भारत में नहीं अपनाई जाती है, परंतु कई देशों में Wood Fuel Power Plant स्थापित किए गए थे। इस प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में लकड़ी की आवश्यकता होती है। वनों की कुछ ऐसी प्रजातियां (जेट्रोफा) भी हैं, जिनमें हाइड्रोकार्बन होता है। इन हाइड्रोकार्बन से वैज्ञानिक विभिन्न विधियों के द्वारा पेट्रोल बनाया जाता है। यह अभी प्रायोगिक स्तर पर है, लेकिन भविष्य में इन प्रजातियों के वृक्षों का विनाश संभव है।
- बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं एवं बांधों का निर्माण
बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं वृहत क्षेत्रों में क्रियान्वित की जाती है, जिसमें बड़े जलाशय बांध का निर्माण कर जलसंचय किया जाता है। इससे बड़े क्षेत्रों में वनों का विनाश होता है क्योंकि बांधों का निर्माण पर्वतीय क्षेत्रों में ही किया जा सकता है और पर्वतीय क्षेत्र व अन्य क्षेत्र भी होते हैं। इससे वनों का व्यापक पैमाने पर विनाश हो जाता है और वन जल में डूब जाते हैं। एक आकलन के अनुसार देश में स्वतंत्रता के बाद 12 प्रतिशत वनों का विनाश केवल नदी घाटी क्षेत्रों में बांध परियोजनाओं से ही हुआ है, जैसे टिहरी बांध तथा नर्मदा सागर बांध आदि। टिहरी बांध परियोजना के स्थापित होने से यहां के निवासियों के लिए देहरादून की घाटी में सैकड़ों हेक्टेयर भूमि को काटकर इन्हें बसाया गया था।
- कृषि भूमि के विस्तार के लिए वनों का विनाश
तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए कृषि भूमि की आवश्यकता होती है। अतः प्राचीन काल से ही वनीय क्षेत्रों को काटकर कृषि भूमि में बदला जा रहा है। ऐसा पर्वतीय एवं वन्य क्षेत्रों में कृषि भूमि की कमी के कारण होता है। यह समस्या कृषि प्रधान देशों में मुख्यतः है, जहां कृषि प्रमुख आर्थिक व्यवस्था है। तथा जनसंख्या दबाव अधिक है। भारत में स्वतंत्रता के बाद 1990 तक व्यापक स्तर पर वनों का विनाश कृषि के लिए हुआ। हिमाचल प्रदेश में लगभग 18000 हेक्टेयर, जम्मू कश्मीर में 8700 हेक्टेयर, उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों अर्थात वर्तमान का उत्तरांचल राज्य में लगभग 43 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र का अतिक्रमण के कृषि कार्य के लिए किया गया।
- औद्योगिक कच्चे माल के रूप में वनों का विनाश
औद्योगिक क्षेत्रों में लकड़ी उद्योग कागज उद्योग में लकड़ी की मांग रहती है भारत एवं अन्य विकसित और विकासशील देशों में वन आधारित उद्योग का विकास हुआ है। इसमें कच्चे माल के रूप में वनों की लकड़ी की खपत की जाती है। स्पष्ट रूप से यह वनों का विनाश होता है। भारत विश्व का चौथा लकड़ी उत्पादक देश है। बहुत से उद्योग ऐसे हैं, जो लकड़ी पर ही आधारित है। जैसे प्लाईवुड उद्योग, इमारती लकड़ी उद्योग, कागज उद्योग, जड़ी-बूटी उद्योग, चंदन की लकड़ी तथा विभिन्न प्रकार की पूजा सामग्री के लिए लकड़ियों का उपयोग किया जाता है।
- सड़क एवं रेल मार्गों के निर्माण तथा नगरों के विस्तार के कारण वनों का विनाश
सड़क एवं रेल मार्ग के निर्माण के कारण भी हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्रों का नुकसान होता है। पर्वतीय एवं वन्य क्षेत्रों से गुजरने वाले परिवहन मार्ग के निर्माण के समय बड़े पैमाने पर कटाई की जाती है। पुनः नगरीय क्षेत्रों के विस्तार के लिए भी आस-पास की भूमि व जंगली भूमि का उपयोग किया जाता है। ग्रामीण बस्तियों के फैलाव से भी वनों का विनाश होता है। भारत में उत्तरांचल, पूर्वांचल व हिमाचल प्रदेश में वनों के विनाश का एक प्रमुख कारण है।
- पशुचारण के कारण वनों का विनाश
चरागाह क्षेत्रों की कमी के कारण पशुओं को वनीय क्षेत्रों में छोड़ दिया जाता है। पशु के द्वारा अनियमित चराई के कारण, वनों का विनाश पर्वतीय क्षेत्रों की प्रमुख समस्या है। अतः पशु के खुरों से मृदा क्षरण भी होता है और मृदा के कटने से नग्न चट्टानें शेष रह जाते हैं।
- खनन उद्योग के कारण वन विनाश
विभिन्न खनन क्षेत्रों में खनिजों के दोहन के लिए खदानों के क्षेत्र के वनों की कटाई कर दी जाती है। जैसे छोटा नागपुर के पठार में वन विनाश का एक प्रमुख कारण है खनन उद्योग।
- झूम कृषि के कारण वनों का विनाश
झूम कृषि के अंतर्गत कृषक मुख्यतः जनजातियां वनों के कृषि क्षेत्र को काटकर या जलाकर वहां राख-युक्त मिट्टी में कृषि करते हैं और दो-तीन वर्षों में उस भूमि की उर्वरता समाप्त हो जाने पर उसे छोड़ देते हैं। भारत में उत्तर-पूर्व में यह प्रमुख समस्या है। दक्षिण-पूर्वी एशिया में इसे झूम कृषि कहते हैं। झूम कृषि के कारण ही चेरापूंजी में वर्षा की मात्रा में कमी आई है। चेरापूंजी के सघन वनीय क्षेत्र के समाप्त होने का कारण झूम कृषि ही है। मध्य प्रदेश, झारखंड एवं दक्षिण के राज्यों में भी झूम कृषि के कारण वनों का विनाश हुआ है, लेकिन वर्तमान में उत्तर-पूर्वी राज्यों को छोड़कर भारत के सभी क्षेत्रों में झूम कृषि लगभग समाप्त हो चुकी है। वर्तमान में सरकार ने झूम कृषि पर पाबंदी लगा दी है।
प्राकृतिक एवं अन्य कारक
प्राकृतिक कारणों से भी वनों का विनाश होता है। लेकिन यह व्यापक पैमाने पर नहीं होता और मानवीय कारकों की अपेक्षा कम उत्तरदाई है। प्राकृतिक घटनाओं में जगह भू-स्खलन, हिमस्खलन, तूफान, जंगली आग जैसे कारक उत्तरदाई है। इसमें जंगल में आग से व्यापक नुकसान होता है, लेकिन सर्वेक्षण से यह पता चला है कि जंगल में आग की घटना मानवीय भूलों से ही होती है। इसके अतिरिक्त जंगली पशुओं द्वारा भी वन का विनाश होता है। वर्तमान में पर्यावरणीय समस्याओं में तापीय वृद्धि, ओजोन छिद्र समस्या, वर्षा की अनियमितता और बाढ़ एवं सूखे की स्थिति जैसे कारक भी वनों के विनाश के लिए उत्तरदाई है। अतः स्पष्ट है कि वनों के विनाश के लिए कई कारक उत्तरदाई हैं। जिनमें मानवीय कारकों सर्वोत्तम माना गया है तथा मानव अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का विनाश करता रहा है।
वन विनाश के प्रभाव
वनस्पति को जलवायु का वास्तविक सूचक माना जाता है और वन पारिस्थितिकी का महत्वपूर्ण घटक है। अतः वन विनाश की स्थिति पारिस्थितिकी असंतुलन को उत्पन्न करती है, क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र का प्रत्येक घटक जटिल रूप से अंतर संबंधित होते हैं। अतः किसी एक घटक के होने वाला नुकसान अन्य घटकों को भी नुकसान पहुंचाता है, जिससे वैश्विक पर्यावरण समस्या उत्पन्न हो सकती है।
वन विनाश के कारण निम्न समस्याएं उत्पन्न हो रही है।
- पर्यावरण असंतुलन की समस्या
- पर्यावरणीय क्षरण की समस्या तथा स्थानीय मौसम परिवर्तन की समस्या
- भू-क्षरण की समस्या (Soil erosion problem)
- हिमस्खलन की समस्या (Avalanche problem)
- बाढ़ एवं सूखे की समस्या
- भूमिगत जल की कमी की समस्या
- वन्यजीव संकट की समस्या (Problem of wildlife crisis)
- जैव विविधता में ह्रास की समस्या (Biodiversity degradation problem)
- ईंधन की समस्या
- कृषि भूमि की दशाओं एवं कृषि के लिए जल की कमी की समस्या
- चरागाहों (Grassland) की कमी की समस्या और पशुपालन पर प्रभाव
- वन्य संसाधनों की कमी की समस्या अर्थात वन आधारित उद्योग के सामने कच्चे माल की समस्या
- जनजातीय क्षेत्रों में आर्थिक संकट की समस्या जो वनों पर निर्भर है।
वन संरक्षण एवं सामाजिक वानिकी
वन संरक्षण से तात्पर्य वनों के ऐसे उपयोग से है, जिससे मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही वनों की आदर्श प्रकृति की स्थिति बनाए रखा जा सके अर्थात आवश्यक वन क्षेत्र को बनाए रखते हुए मानवीय विकास में अन्य संसाधनों का उपयोग करना ही वन संरक्षण है।
वन संरक्षण के कार्य
- वनों के विनाश की प्रक्रिया को रोका जाए।
- वनीकरण के द्वारा विनाश हुए वनों को पुनः लगाया जाए।
- वानिकी कार्यक्रम अपनाए जाएं ताकि वनीय संसाधनों में वृद्धि हो सके।
वन के विनाश को रोकने के लिए वन कानून को सख्त बनाया जाए तथा पूर्णतः लागू कर लिया जाए, जिसके लिए प्रशासनिक, राजनीतिक कार्यों की आवश्यकता है। वन सुरक्षा कानून 1980 और इसके संशोधन 1981 और 1991 में किए गए ताकि वनों को संरक्षित किया जा सके। राष्ट्रीय वन नीति 1988 में अस्तित्व में आई। इसका निर्माण करने का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा करते हुए पारिस्थितिक संतुलन को संरक्षित करना है।
वानिकी से संबंधित महत्वपूर्ण कार्य निम्न है।
- सामाजिक वानिकी
सामाजिक वानिकी (Social forestry) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम वेस्तावी ने 1965 में राष्ट्रमंडल वनिकी सम्मेलन में किया था। इनके अनुसार सामाजिक वानिकी एक ऐसी वानिकी है, जिसका उद्देश्य सामुदायिक हितों का पुनर्सर्जन एवं पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देना है। वर्तमान में सामाजिक वनिकी का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत वनीकरण, मृदासंरक्षण, हरित क्रांति का विकास, जल प्रबंधन, ग्रामीण रोजगार, कुटीर उद्योग का विकास, ग्रामीण आत्मनिर्भरता जैसे उद्देश्य आते हैं। सामाजिक वानिकी, समुदाय को वानिकी कार्यक्रम से जोड़ने पर बल देती है। यह महसूस किया गया है कि जब तक वनों के आसपास रहने वाले ग्रामीण तथा जनजातीय लोगों की भागीदारी एवं सहयोग नहीं प्राप्त हो जाता तब तक सामाजिक कार्यक्रमों को सफलता नहीं मिल सकती है। इसी कारण सामाजिक वनिकी के अंतर्गत निम्न कार्यक्रम अपनाए गए हैं।
- कृषि वानिकी
- ग्रामीण वनिकी
- शहरी वनिकी
- क्षतिपूर्ति वनिकी
क्षतिपूर्ति वनिकी का उद्देश्य वैसे क्षेत्रों में वनीकरण करना है, जहां विकास के लिए वनों को नुकसान पहुंचाया गया है या काटा गया है। इसके अंतर्गत विभिन्न परियोजनाओं में सम्मिलित वन विनाश का आकलन कर उतने क्षेत्र में, उतनी मात्रा में वृक्ष लगाए जाने का कार्य किया जाता है ताकि पर्यावरण संतुलन बना रहे तथा वनों का क्षरण नहीं हो सके। इस तरह यह कार्यक्रम मानव पर्यावरण के मध्य संतुलन स्थापित करने का प्रयास है। भारत में भी 1980 से यह कार्यक्रम प्रारंभ है।
- संयुक्त वन प्रबंध
देश के विभिन्न वन नीति एवं वानिकी कार्यक्रमों में वनों के क्षेत्र को बढ़ाने, वन एवं पर्यावरण का संरक्षण, ग्रामीण गरीबी के स्तर को घटाने, वनीकरण से समाज को जोड़ने जैसे बुनियादी कार्यों पर बल दिया गया है। इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप 1990 के दशक में संयुक्त वन प्रबंधन योजना का मार्ग प्रशस्त हुआ। [ मानव विकास सूचकांक ]
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 1990 को ‘संयुक्त वन प्रस्ताव’ पारित किया था, जिसमें वनों के संरक्षण तथा नष्ट हुए वन भूमि के विकास में वनों के समीप रहने वाले ग्रामीण समुदाय की सक्रिय भागीदारी की बात कही गई है। इसमें वनों के लाभ में समुदाय की भी हिस्सेदारी की बात है।