Green House Effect in Hindi | ग्रीन हाउस प्रभाव | ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि का कारण

पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के जैव एवं अजैव घटकों के मध्य संतुलन पाया जाता है, लेकिन जब किसी कारण से इस संतुलन में बाधा उत्पन्न होती है तो पारिस्थितिकी के विभिन्न घटकों के मध्य का समांजस्य बिगड़ने लगता है, जिससे पारिस्थितिकी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। जब इसका प्रभाव ग्लोब या भूमंडलीय स्तर पर होता है तो इसे भूमंडलीय पारिस्थितिकी समस्याएं कहते हैं। वैश्विक जलवायविक अनिश्चितता के लिए भूमंडलीय पारिस्थितिकी समस्याएं ही मुख्यत: उत्तरदाई हैं।

भूमंडलीय पारिस्थितिकी समस्याओं के अंतर्गत निम्न दो समस्याएं अधिक गंभीर हैं।

  1.  ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि
  2.  ओजोन छिद्र या ओजोन क्षरण की समस्या

विश्व उष्मायण/ग्रीनहाउस प्रभाव

वायुमंडल से होकर सूर्य की लघु-तरंगे पृथ्वी के धरातल पर आसानी से पहुंचती हैं, लेकिन पृथ्वी के दीर्घ तरंगों के रूप में होने वाले विकिरण को वायुमंडल की कुछ गैसें अवशोषित कर लेती हैं, जिससे वायुमंडल पृथ्वी के औसत तापमान 15°C को बनाए रखते हैं, जिसके कारण धरती एवं वायुमंडल का तापमान संतुलन बना रहता है। यह प्रक्रिया ग्रीनहाउस प्रभाव कहलाती है। यह धारणा शीत प्रदेशों के ग्रीनहाउस से ली गई है, जहां ग्लास के ग्रीनहाउस में कृत्रिम परिस्थितियां उत्पन्न करके पौधों को प्रायोगिक स्तर पर विकसित किया जाता है। पृथ्वी का वायुमंडल भी ग्रीनहाउस के ग्लास की तरह कार्य करता है।

प्रमुख ग्रीन हाउस गैसें हैं : कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व सल्फर डाइऑक्साइड इत्यादि।

यदि यें ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में उचित परिमाण में हो तो पृथ्वी की जलवायु की स्थिरता तथा जीवन की स्थिरता के लिए अति आवश्यक है, लेकिन ये ग्रीनहाउस गैसें अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं तो पृथ्वी गर्म हो जाती है तथा वायुमंडल के तापमान में निरंतर वृद्धि होने लगती है, जिसके कारण पृथ्वी पर औसत से अधिक तापमान हो जाता है। इस घटना को ग्लोबल वार्मिंग या विश्व उष्मायण की समस्या कहते हैं। वैश्विक ताप में वृद्धि का व्यापक दुष्प्रभाव मानव सहित विभिन्न जीव जंतु तथा वनस्पति समूहों पर पड़ता है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने नवंबर 1988 में IPCC का गठन किया। इसमें विश्व मौसम संगठन का भी सहयोग लिया गया है। IPCC ने 1990 में अपनी रिपोर्ट दी थी, जिसमें मौसम परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण ग्रीनहाउस प्रभाव को माना गया था।

ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि का कारण

ग्रीनहाउस प्रभाव के लिए उत्तरदाई प्रमुख गैसें हैं।

  1.  कार्बन डाइऑक्साइड CO2
  2.  मिथेन CH4
  3.  नाइट्रस ऑक्साइड N2O
  4.  क्लोरोफ्लोरोकार्बन CFC
  5.  परफ्लोरोकार्बन PFC
  6.  हाइड्रोक्लोरो कार्बन HCFC
  7.  सल्फर हेक्साफ्लोराइड SF6

इनमें कार्बन डाइऑक्साइड ग्रीन हाउस प्रभाव के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी है। हालांकि यह सबसे कम खतरनाक है। यदि वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड के प्रभाव को एक माना जाए तो मिथेन गैस इनमें 21 गुना, नाइट्रस ऑक्साइड 290 गुना, CFC 1,13,500 गुना अधिक खतरनाक और हानि पहुंचाती हैं।

स्पष्टत: कार्बन डाइऑक्साइड इन ग्रीनहाउस गैसों में सबसे कम खतरनाक है, लेकिन वर्तमान में ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि तथा ग्लोबल वार्मिंग के लिए यह सर्वाधिक दोषी है। औद्योगिक क्रांति के बाद उत्पन्न ग्रीनहाउस प्रभाव में कार्बन डाइऑक्साइड की हिस्सेदारी 60% से अधिक है। मिथेन का योगदान 15% के लगभग है, जो दूसरा सबसे प्रभावी कारक है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है। औद्योगिक क्रांति के पहले वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 280 PPM थी, जो 1990 में बढ़कर 353 PPM हो गई है। 2002 में कार्बन डाइऑक्साइड औसत सांद्रता 371 PPM थी।

विश्व में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले मुख्यतः विकसित देश हैं। विकासशील देशों में भी तीव्र गति से होता हुआ औद्योगिक विकास तथा आर्थिक विकास ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि कर रहा है। विश्व के तीन प्रमुख कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन एवं रूस हैं। इसमें भारत छठे स्थान पर है। 

विश्व के प्रमुख देशों की स्थिति निम्न तालिका में देखी जा सकती है।
(देश)             (CO2 उत्सर्जन में प्रतिशत)

  • चीन                    : 30 प्रतिशत (लगभग 10,641 मिलियन मीट्रिक टन)
  • USA                     : 15 प्रतिशत (प्रति वर्ष 5,414 मिलियन मीट्रिक टन)
  • यूरोपियन यूनियन  : 10 प्रतिशत
  • भारत                    :  7 प्रतिशत (प्रति वर्ष 2,274 मिलियन मीट्रिक टन)

नवीनतम आंकड़ों के अनुसार :

(1) चीन  (2) अमेरिका  (3) यूरोपीय यूनियन  (4) भारत  (5) जापान (6) रूस (7) जर्मनी (8) ईरान (9) सऊदी अरब  (10) दक्षिण कोरिया

वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि के कई कारण हैं। जिनमें ईंधन का प्रयोग तथा वनों का विनाश आदि मुख्य कारण है। मिथेन ग्रीनहाउस प्रभाव के लिए दूसरा प्रमुख उत्तरदाई कारक है। मिथेन के उत्सर्जन का मुख्य कारण धान की कृषि, खनन कार्य तथा लकड़ी दहन जैसे मानवीय कारण हैं।
प्राकृतिक अवस्था में दलदली वन तथा सागर-महासागर भी वर्तमान में मीथेन गैस छोड़ते हैं।

नाइट्रस ऑक्साइड भी प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है, जिसका कारण कृषि कार्यों में बदलाव तथा नायलॉन का औद्योगिक उत्पादन है ‌।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन जो ओजोन क्षरण के लिए मुख्यत: उत्तरदाई है। यह परोक्ष रूप से ग्रीन हाउस प्रभाव को भी बढ़ाता है। इस तरह विभिन्न कारणों से ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि हो रही है। एक अनुमान के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की दर वर्तमान में बनी रही तो 2050 तक पृथ्वी तंत्र के लिए विपरीत परिणाम साबित होंगे।

ग्रीनहाउस गैस की वृद्धि के प्रभाव/भूमंडलीय तापन के दुष्प्रभाव

ग्रीन हाउस गैसों के वातावरण में अनुपात से अधिक वृद्धि के कारण निम्नलिखित दुष्प्रभाव उत्पन्न हुए हैं।

(1) विश्व की जलवायु में परिवर्तन : 

ग्रीन हाउस गैसों की अधिक मात्रा के कारण पृथ्वी और वातावरण का ताप संतुलन बिगड़ जाएगा, जिसके कारण विश्व के तापमान में अधिक वृद्धि हो जाएगी। जिसमें वृहद स्तर पर जलवायविक अस्थिरता उत्पन्न होगी। क्षेत्रीय तथा भूमंडलीय जलवायवीय परिस्थितियों में भारी परिवर्तन होगा। 

1988 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम एवं विश्व मौसम संगठन ने जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए जलवायु परिवर्तन पर विभिन्न सरकारों के प्रतिनिधियों की एक समिति का गठन किया था। इस अध्ययन दल के अनुसार 2025 तक तापमान वर्तमान की अपेक्षा 1°C बढ़ जाएगा तथा 2100 तक 3°C बढ़ जाएगा। भूमि की सतह महासागरों की अपेक्षा अधिक तेजी से गर्म होगी। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी होने से धरती का तापमान 4°C बढ़ जाएगा। यह तापीय वृद्धि पृथ्वी की जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन उत्पन्न कर देगी। वैश्विक ताप वृद्धि के दुष्परिणाम वर्तमान में भी मौसमी घटना के रूप में सामने आ रहे हैं। जैसे – बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, जंगल में आग लगना तथा गर्मी से मृत्यु में वृद्धि कई रूपों में ग्रीनहाउस गैस प्रभाव का दुष्परिणाम सामने आ रहा है।

(2) समुद्री जलस्तर में वृद्धि : 

तापीय वृद्धि का प्रभाव समुद्र तल में जल स्तर में वृद्धि के रूप में भी सामने आयेगा। तापमान के बढ़ने से ध्रुवीय क्षेत्रों, ग्लेशियरों, उच्च पर्वतीय क्षेत्रों का बर्फ पिघलने लगेगा, जिससे समुद्र के जलस्तर में वृद्धि होगी। फलस्वरुप तटवर्ती क्षेत्र तथा द्वीपीय देशों के डूबने की संभावना रहेगी। ग्लेशियरों के पिघलने से प्रारंभ में नदियों में जल की अधिकता होगी और बाढ़ की समस्या उत्पन्न होगी, लेकिन ग्लेशियर के सूखने से गर्मी में नदियों का जल प्रवाह का अभाव हो जाएगा और जल संकट उत्पन्न करेगा तथा पेयजल की समस्या उत्पन्न होगी। तटवर्ती क्षेत्रों में तूफानों की तीव्रता में वृद्धि होगी।

(3) कृषि तथा वनस्पति पर दुष्प्रभाव : 

पृथ्वी के तापमान में वृद्धि तथा कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि से पृथ्वी तथा वनस्पतियों पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा। सूखा तथा आग के कारण कई वनस्पति तथा फसल प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी तथा कई नुकसानदायक जातियों की उत्पत्ति होगी। चारा के लिए उत्तम घास नष्ट हो सकते हैं, जिससे पशुपालन पर प्रभाव पड़ेगा। मृदा की उर्वरता में कमी आएगी, खेती खराब हो जाएगी। जिसके कारण खाद्यान्न की कमी होने के कारण भुखमरी की समस्या पैदा हो सकती है।

(4) अनावृष्टि तथा अतिवृष्टि की संभावना : 

ग्रीनहाउस द्वारा दुनिया के गर्म क्षेत्र में ज्यादा वर्षा होने की संभावना है। गर्म क्षेत्र में वर्तमान वर्षा का 15% अधिक वर्षा होने की संभावना है। यह बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करेगा। इसके साथ ही सूखे का प्रकोप भी बढ़ेगा। सूखे के कारण पेयजल का संकट उत्पन्न हो सकता है। सिंचाई के माध्यम प्रभावित होंगे। नगरीय जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। बाढ़ तथा सूखे में जानमाल का व्यापक नुकसान होगा।

(5) स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं : 

तापमान एवं नमी में थोड़ी वृद्धि से वायरस, बैक्टीरिया एवं कवक जैसे रोगकारक तत्व, मच्छर और चूहे जैसे रोग संवाहक तेजी से पनपते हैं। अत्यधिक तापीय वृद्धि से रोग का विस्तार होगा। विश्व का वृहद क्षेत्र रोग के चपेट में आ जाएगा। मलेरिया में वृद्धि के कारण तापीय वृद्धि ही है। स्पष्टत: तापमान वृद्धि के व्यापक दुष्प्रभाव उत्पन्न होंगे, जो मानवीय पर्यावरणीय तथा आदिवासी पारिस्थितिकी को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा।

नवीन शोधों में तापीय वृद्धि के दुष्प्रभावों का आकलन किया गया है, जो निम्नलिखित है।

  1. वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रशांत तथा हिंद महासागर के बढ़ते तापमान के कारण अमेरिका, दक्षिण यूरोप, दक्षिण पश्चिम एशिया में 1998 से 2002 तक भयंकर सूखा पड़ा तथा 2003 में तापीय वृद्धि के कारण व्यापक जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रभाव उत्पन्न हुआ।
  2. यूरोप के ठंडे समझे जाने वाले देशों में गर्मी के कारण हजारों व्यक्ति की मृत्यु हो गई।
  3. जंगल में आग लगने में वृद्धि हुई। इसका प्रभाव अमेरिका यूरोप तथा एशिया में भी था।
  4. विश्व के प्राकृतिक धरोहर कोरल रीफ रंगीन हो रहे हैं तथा कई प्रजातियों का अस्तित्व संकट में है। वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार सभी प्रजातियां प्रभावित हो रही है। सभी जैविक प्राकृतिक प्रदेशों पर तापीय वृद्धि तथा जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव हो रहा है।

इस तरह ग्रीन हाउस प्रभाव में वृद्धि का दुष्परिणाम वर्तमान में भी सामने आ रहा है। यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वर्तमान दर को रोका नहीं गया तो भविष्य में भयानक दुष्परिणाम सामने आएंगे। यही कारण है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने तथा तापीय वृद्धि की समस्या के समाधान के लिए वैश्विक प्रयास किए जा रहे हैं।

जैसे स्कॉटहोम सम्मेलन 1972, वियना सम्मेलन 1985, पृथ्वी सम्मेलन 1992, क्यूब सम्मेलन 1997, क्योटा संधि 2005 में इस तरह के महत्वपूर्ण प्रयास किए गए।

ओजोन क्षरण की समस्या

ओजोन क्षरण : 

भूमंडलीय पारिस्थितिकी संतुलन की समस्या में ओजोन क्षरण की समस्या अत्यंत गंभीर समस्या है। ओजोन गैस मानव जीवन के अस्तित्व तथा जैव विविधता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। वायुमंडल में ओजोन का केंद्र 50 किमी की ऊंचाई तक, मुख्यत: समताप मंडल में है। यहां 20 से 35 किमी के मध्य की परत को ओजोन परत कहते हैं, क्योंकि ओजोन की सघनता यहां अधिक है। 

यह पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच की तरह कार्य करती है और सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों के अधिकांश भाग को अवशोषित कर लेती है। जिसमें मानव सहित पृथ्वी के जैव घटकों, जीव जंतुओं, वनस्पतियों पर पराबैंगनी किरणों की अत्यंत सीमित मात्रा पृथ्वी पर पहुंच पाती है, जो यहां के जीवधारियों के उपापचय के लिए हितकारी होती है। अल्प मात्रा में पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति से इरगेस्ट्रराल संश्लेषण विटामिन डी के रूप में होता है, जो हड्डियों के लिए अति आवश्यक है, लेकिन पराबैगनी किरणों की अधिक मात्रा से मनुष्य में विविध प्रकार के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न होती हैं तथा जैव विविधता को वृहद स्तर पर नुकसान हो सकता है। इसी कारण ओजोन को जलवायु का सुरक्षा कवच भी कहा जाता है।

वर्तमान में केवल मानवीय गतिविधियों के कारण ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है। विलासिता के विभिन्न साधनों के कारण वायुमंडल में ओजोन सहकारी पदार्थों जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन, हौलोन्स आदि के उत्सर्जन के कारण ओजोन की मात्रा में आनुपातिक कमी हो रही है, जिसे ओजोन ह्रास या ओजोन क्षरण कहा जाता है।

ओजोन का सर्वाधिक प्रभाव उच्च अक्षांशो के ऊपर दोनों गोलार्धों में 50 डिग्री से ध्रवों के मध्य तथा न्यूनतम सकेंद्रण विषुवत रेखा के ऊपर पाया जाता है। इसका कारण यह है कि विषुवत रेखीय क्षेत्रों के ऊपरी वायुमंडल 30 से 40 किमी से ओजोन की परत संचार द्वारा परिवहन ध्रुवीय क्षेत्रों में हो जाता है।

ओजोन ऑक्सीजन के 3 परमाणुओं से बनी, ओजोन परत की औसत मोटाई 230 डबसन है, किंतु विभिन्न वायुमंडलीय स्थितियों के कारण विभिन्न अक्षांशो में इसकी मोटाई में भिन्नता पाई जाती है। क्षयकारी पदार्थों के कारण ओजोन परत की मोटाई बहुत कम हो गई है, जिसे ओजोन छिद्र की संज्ञा दी गई है। 

ओजोन छिद्र का पता लगाने का कार्य 1970 के दशक के अंत में हुआ था। अंटार्कटिका में ओजोन छिद्र का सर्वप्रथम 1979 में देखा गया था। सर्वप्रथम फारमान ने 1985 में अंटार्कटिका के ओजोन छिद्र से संबंधित महत्वपूर्ण आंकड़े दिए थे। इसके बाद कैरे ने 1988 में बताया कि आर्कटिक वायुमंडल में भी ओजोन परत का क्षरण हो रहा है। ओजोन परत का विनाश या ओजोन छिद्र का विनाश ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा आर्कटिक क्षेत्रों में भी हुआ है। 

स्पष्टत: ओजोन छिद्र की समस्या दक्षिणी एवं उत्तरी दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों के प्रभाव में पाई जाती है। 1979 में अंटार्कटिका में ओजोन की न्यूनतम मोटाई अक्टूबर में 260 डाबसन थी, जो 1985 में 150 टन हो गई। यह 40 प्रतिशत कमी को बतलाता है। वर्तमान में 100 डबसन यूनिट ही रह गया है। अंटार्कटिका क्षेत्र में ओजोन परत की मोटाई 100 डबसन यूनिट है, जो औसत में बहुत कम है।

ध्रुवीय क्षेत्रों में ओजोन छिद्र का कारण

दूरबीन क्षेत्र प्रदूषण रहित होने के बावजूद वहां ओजोन छिद्र पाया जाता है। इसके दो कारण हैं।

  1. विभिन्न क्षेत्रों से उत्सर्जित प्रदूषित गैसों ओजोन क्षय कारी गैसें हवाओं के साथ उड़कर समताप मंडल से प्रवाहित होकर ध्रुवीय क्षेत्रों में चली जाती है।
  2. बर्फ की उपस्थिति भी वहां ओजोन छिद्र का प्रमुख कारण है। ध्रुवीय क्षेत्रों में अधिक शीतल जलवायु तथा अत्यधिक कम ताप में ओजोन तथा क्लोरीन का संयोग अधिक तीव्रता में होता है।

ओजोन गैस की मात्रा वायुमंडल में परिवर्तनशील है। सामान्यतः इसमें सितंबर-अक्टूबर में अधिक कमी पाई जाती है। अक्टूबर में सर्वाधिक कमी होती है। पुनः ओजोन की मात्रा बढ़ने लगती है तथा नवंबर तक पूरी मात्रा में आ जाती है। जिस समय दक्षिणी गोलार्ध में ओजोन की सबसे अधिक कमी होती है। उसी समय उत्तरी गोलार्ध में भी सबसे अधिक कमी होती है।

ओजोन परत के क्षरण का कारण

ओजोन परत के क्षरण का मुख्य कारण ओजोन क्षयकारी पदार्थों का वायुमंडल में ओजोन से अभिक्रिया करना है। यह ओजोन क्षयकारी पदार्थ मुख्यतः मानवीय क्रियाकलापों के फलस्वरुप ही वायुमंडल में पहुंचते हैं।
ओजोन को मुख्य रूप से नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थ हैं।

  •  क्लोरोफ्लोरो कार्बन
  •  हैलोन्स
  •  नाइट्रस ऑक्साइड
  •  कार्बन टेट्राक्लोराइड
  •  मिथाइल क्लोरोफॉर्म
  •  हाइड्रोफ्लोरो कार्बन
  •  मिथाइल ब्रोमाइड

इसके अतिरिक्त कुछ नए रसायनों का भी पता चला है जो ओजोन को क्षति पहुंचाते हैं। इनमें N-propyl ब्रोमाइड, हेक्साक्लोरोब्यूटाडाइन, हैलोन 1220 आदि।

यह सभी रसायन मानवीय क्रियाकलापों द्वारा समताप मंडल में पहुंचकर ओजोन छिद्र का निर्माण करते हैं। ओजोन क्षयकारी पदार्थ सूर्य की किरणों से विखंडित होकर क्लोरीन तथा ब्रोमीन के रूप में मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार स्वतंत्र हुआ क्लोरीन ओजोन से अभिक्रिया करके ऑक्सीजन तथा क्लोरीन मोनोऑक्साइड बनाते हैं।
ओजोन परत को क्लोरीन से थोड़ी राहत वर्षा के दिनों में मिलती है। जब क्लोरीन वर्षा के साथ घुलकर जमीन पर आ जाता है। इसी कारण वर्षा के बाद ओजोन की परत सर्वाधिक मोटी तथा वर्षा के ठीक पहले न्यूनतम होती है। 
यह स्पष्ट हो चुका है कि ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने में क्लोरीन की अभिक्रिया सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका जीवनकाल बहुत अधिक है, अतः उसको लंबी अवधि तक तोड़ती रहती है।
ओजोन क्षरण के दो प्रमुख कारण है।
  1.  प्राकृतिक कारण
  2.  मानवीय कारण

प्राकृतिक कारण : 

सौर कलंक के बढ़ने से सौर्य तापमान में वृद्धि होती है। यह वृद्धि सामान्यतः 11 से 23 वर्षीय चक्र में होती है। इस कारण वायुमंडलीय नाइट्रोजन का नाइट्रस ऑक्साइड में रूपांतरण हो जाता है, जो पवन संचार द्वारा समतापमंडल में पहुंचकर प्रकाश रासायनिक अभिक्रिया द्वारा ओजोन का विनाश करती है। गतिक क्रिया विधि द्वारा वायुमंडलीय संचार में ओजोन के वायुमंडल में पुनः वितरण से भी ओजोन परत को नुकसान होता है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के भूपटल से निकलने वाली मीथेन, हाइड्रोजन एवं नाइट्रोजन गैस भी ओजोन छिद्र के विकास में सहायक है।

नाइट्रस ऑक्साइड सामान्य स्थिति में क्लोरीन मोनोऑक्साइड को नष्ट कर ओजोन क्षरण की दर को कम करती है। परंतु अत्यंत कम ताप पर नाइट्रस ऑक्साइड बर्फ के साथ जम जाता है। फलस्वरुप क्लोरीन का अणु ओजोन क्षरण के लिए स्वतंत्र हो जाता है।

मानवीय कारण : 

माननीय कारणों से ही ओजोन का सर्वाधिक विनाश होता है। माननीय क्रियाकलापों के फलस्वरुप विस्तृत विभिन्न ओजोन क्षयकारी पदार्थों द्वारा ओजोन का क्षरण विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा होता है –

  1.  क्लोरीन प्रक्रिया
  2.  सल्फेट प्रक्रिया
  3.  नाइट्रस ऑक्साइड प्रक्रिया
  4.  अंतरिक्ष अनुसंधान

ओजोन क्षरण के दुष्परिणाम

यदि वायुमंडल में ओजोन का निश्चित अनुपात बना रहता है तो पृथ्वी पर पराबैंगनी किरणों से रक्षा होती है। लेकिन ओजोन क्षरण के कारण पराबैंगनी किरणों का प्रभाव पृथ्वी पर पड़ेगा, जिसके कई दुष्परिणाम हो सकते हैं – 

  1. पराबैंगनी किरणों के कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होगी, जिसके कारण ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ेगी।
  2. पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से मनुष्य एवं जीवो की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आएगी, जिसके कारण कई बीमारियां हो सकती है।
  3. मनुष्य में त्वचा कैंसर एवं नेत्र रोग में वृद्धि होगी।
  4. त्वचा के मूलसन, शरीर पर झुर्रियां, बुढ़ापे का खतरा आदि बीमारियां हो सकती हैं।
  5. मनुष्य के श्वसन तंत्र पर प्रभाव पड़ेगा।
  6. ओजोन क्षरण से पराबैंगनी-B विकिरण की पृथ्वी पर प्रभाव में वृद्धि हुई है। यह आनुवांशिक विकृति उत्पन्न कर सकता है।
  7. ओजोन क्षरण से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया लगभग बंद हो जाएगी, जिससे पेड़ पौधों की वृद्धि रुक जाएगी और स्वसन करने के लिए ऑक्सीजन की कमी हो जाएगी।
  8. स्थलीय एवं समुद्री परिस्थितिकी तंत्र पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, जिससे कई जीव जंतु तथा वनस्पतियों का अस्तित्व संकट में आ सकता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि ओजोन क्षरण की समस्या मानव सहित विभिन्न जीवो एवं वनस्पतियों के लिए अत्यंत नुकसानदायक तथा अस्तित्व का संकट उत्पन्न करने वाला है। अतः ओजोन परत की सुरक्षा आवश्यक है। इसके लिए ओजोन क्षयकारी पदार्थों का उपयोग कम से कम करना चाहिए और वैकल्पिक साधनों की खोज करनी चाहिए।

संरक्षण के उपाय

विश्व स्तर पओजोन परत के संरक्षण के लिए कई प्रयास किए गए। इसमें 1985 का वियना सम्मेलन सर्वप्रथम था। जिसमें ओजोन परत के क्षरण की समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय चिंता का कारण माना गया था। CFC को मुख्य करण के रूप में पहचाना गया। पुनः 16 सितंबर 1987 में मोंट्रियल प्रोटोकोल हुआ, जिसमें भारत, चीन, ब्राजील को छोड़कर विश्व के 24 औद्योगिक देशों ने मॉन्ट्रियल समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसके अंतर्गत विकासशील देशों को CFCS का उत्पादन एवं उपयोग 2000 तक बंद करने का निर्देश दिया गया। 

1992 में पृथ्वी शिखर सम्मेलन 1997 में क्योटा सम्मेलन तथा सन् 2005 में क्योटा संधि को लागू किया गया, जो ओजोन क्षरण के लिए महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देश हैं।

इस दिशा में अंतरराष्ट्रीय प्रयास तथा सहयोग अत्यंत आवश्यक है, ताकि विकासशील देश, आर्थिक समस्याएं तथा तकनीकी कमी के कारण पर्यावरण संरक्षण में पीछे न रह जाएं।

वर्तमान में CFCS के दो विकल्प का उपयोग किया जा रहा है।

  1.  HCFC हाइड्रोक्लोरोफ्लोरो कार्बन
  2.  HFC हाइड्रोफ्लोरो कार्बन

अम्ल वर्षा – सामान्यतः वर्षा का जल थोड़ा अम्लीय होता है और वर्षा के जल का pH मान 7 से कम होता है, लेकिन 5 pH मान तक के वर्षा को स्वच्छ जल माना जाता है, लेकिन 5 pH मान से कम वाली वर्षा को अम्लीय वर्षा कहते हैं। इस तरह अम्ल वर्षा का तात्पर्य वर्षा के जल में अमृता का वृद्धि होना तथा धरती पर गिरना है।

अम्ल वर्षा के लिए उत्तरदायी कारकों में सल्फर डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड मुख्य हैं। ये गैसें तेल शोधनशाला और डीजल पेट्रोल एवं कोयला के जलने से उत्पन्न होती हैं। सल्फर डाइऑक्साइड वायुमंडल की आद्रता से क्रिया करके सल्फ्यूरिक एसिड बनाती है, तथा नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, नाइट्रिक अम्ल बनाती है। इन अम्लों से वर्षा के जल के साथ घुलने से वर्षा का जल अम्लीय हो जाता है। यह अम्ल वर्षा के जल के साथ पृथ्वी के धरातल पर गिरता है, जिसका व्यापक दुष्प्रभाव पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है।

अम्ल वर्षा के दुष्प्रभाव :

  1. सल्फ्यूरिक अम्ल के कारण पृथ्वी के एलुमिनियम अलग हो जाते हैं, जो जल में पहुंच जाता है। इससे मछलियों के श्वसन क्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  2. अम्लों के कारण जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, भूमिगत जल प्रदूषण उत्पन्न होता है जिससे जीव, जंतु एवं वनस्पतियां भी प्रभावित होती है।
  3. फसलों पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।
  4. वनस्पतियों के पत्ते की स्टोमेटा बंद हो जाती है जिसके कारण पौधों का प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित होती है।
  5. संगमरमर तथा पत्थर पर भी प्रभाव पड़ता है। सफेद संगमरमर काले रंग का हो जाता है। आगरा के ताजमहल के रंग पर अम्ल वर्षा का प्रभाव पड़ा है। इसका कारण मथुरा तेल शोधनशाला एवं आगरा का चमड़ा उद्योग उत्तरदायी है।
  6. वैश्विक स्तर पर स्वीडन, नार्वे व अमेरिका में सर्वाधिक अम्ल वर्षा होती है।
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