प्रदूषण का अर्थ | प्रकार | पर्यावरण प्रदूषण की समस्या

प्रदूषण का अर्थ

भूमंडलीय पारिस्थितिक संतुलन की समस्या में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या सर्वाधिक विनाशकारी है। प्रदूषण एक प्रकार का परिवर्तन है, जो पृथ्वी तंत्र के भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं को असंतुलित कर देता है। यह असंतुलन वायु, जल, भूमि के लिए प्रतिकूल अधिवासीय परिस्थितियां उत्पन्न करता है। यें प्रतिकूल परिस्थितियां जीवमंडल के सभी प्रजातियों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। वर्तमान में यह समस्या जैविक समुदाय के लिए अधिवास का संकट उत्पन्न कर रही है। प्रदूषण की उत्पत्ति दो कारणों से होती है। इस आधार पर प्रदूषण 2 प्रकार के होते हैं।

  • प्राकृतिक द्वारा प्रदूषण
  • मानव द्वारा प्रदूषण

प्राकृतिक प्रदूषण का कारण ज्वालामुखी क्रिया एवं ज्वालामुखी विस्फोटक, धान के खेत एवं जानवरों की जुगाली द्वारा मीथेन का निर्माण, जीवो द्वारा कार्बन का निर्माण, प्राकृतिक कारणों से मृदा क्षरण है।

मानव द्वारा प्रदूषण ही पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कार्य है। मानवीय गतिविधियों के कारण पृथ्वी तंत्र के पर्यावरण में विभिन्न प्रकार के अवांक्षित तथा हानिकारक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है। मानवीय गतिविधियों के कारण विभिन्न प्रकार की गैसें, तत्व तथा ठोस पदार्थ के रूप में जहरीले तत्व पर्यावरण के विभिन्न घटकों से मिल जाते हैं, जिसके कारण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है। इन जहरीले तत्वों में कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मिथेन, कार्बन फ्लोरोकार्बन, विभिन्न रासायनिक तत्व, परमाणु क्षरण, औद्योगिक एवं नागरीयकरण, कीटनाशक, रसायनिक उर्वरक जैसे विभिन्न तत्व शामिल है।

प्रदूषण के प्रकार

पृथ्वी तत्वों में उत्पन्न प्रदूषण की समस्या मुख्यतः 5 प्रकार से होती है।

  • वायु प्रदूषण
  • जल प्रदूषण
  • ध्वनि प्रदूषण
  • भूमि प्रदूषण
  • रेडियोधर्मी प्रदूषण

वायु प्रदूषण

पृथ्वी तल के वायुमंडल में विभिन्न गैसों का संतुलित मिश्रण पाया जाता है। परंतु वायु का यह संतुलित समिश्रण पर्यावरण द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक परिवर्तित हो जाता है, तब वायु प्रदूषित हो जाती है। इसका दुष्प्रभाव मानव सहित जैवमंडल के सभी जीवो एवं घटको पर पड़ता है। पर्यावरण शास्त्रीयों के अनुसार, पर्यावरण के संतुलन में 50% योगदान वायु प्रदूषण का ही है। इस प्रकार वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या है।

वायु प्रदूषण के कारण :

लकड़ी एवं जीवाश्म ईंधन का दहन, उद्योगों, कारखानों, मोटर वाहनों, ताप विद्युत गृह, तेल शोधन कारखानों से निकलने वाला धुआं तथा एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर आदि से निकलने वाली गैस है। इन कारणों के फलस्वरुप वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रोजन, सल्फर डाई ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन आदि की मात्रा बढ़ जाती है। फलस्वरुप वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है।

परिणाम : वायु प्रदूषण के कारण ही हरित गृह प्रभाव में वृद्धि, ओजोन क्षरण, अम्ल वर्षा, धूम, कोहरा जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। अतः वायु प्रदूषण भूमंडलीय परिस्थिति की समस्याओं के लिए भी उत्तरदाई है। महानगरों में सांस की बीमारी, स्वच्छ वायु का अभाव जैसी समस्याएं पाई जाती हैं। वर्तमान हालात के अनुसार अगर देखा जाए तो कोरोना नामक बीमारी भी इसी का परिणाम है। जिसके कारण मरीज को सांस लेने में परेशानी आती है। 

हरित गृह प्रभाव में वृद्धि के लिए मुख्यत: कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, मिथेन तथा ओजोन क्षरण के लिए क्लोरोफ्लोरो कार्बन, हेलोन्स अम्ल वर्षा के लिए, SO2 खनिज तेल का दहन, धुमकोहरे के लिए कार्बन, शीशा, धूलकण जिम्मेदार हैं।

महानगरों में मोटर वाहनों से निकलने वाले धुएं से सर्वाधिक वायु प्रदूषित होता है। भारत में वायु प्रदूषण महानगरों की प्रमुख समस्या है। कोलकाता महानगर में 70% लोग वायु प्रदूषण से उत्पन्न बीमारियों के शिकार हैं।

रोकने के उपाय :   महानगरों में मोटर वाहनों से जहरीले उत्सर्जन को रोकने के लिए यूरो मापक-1,2,3 अपनाया गया है। यूरोप में 1993 में ही यूरो-1 अस्तित्व में आ गया था। वर्तमान में वहां यूरोपीय स्थित में है यूरो मापक मोटर गाड़ियों के उत्सर्जन की सीमा तय करता है इसके अंतर्गत 4 प्रकार के उत्सर्जन की सीमा निर्धारित की गई है।

  • कार्बन मोनोऑक्साइड
  • हाइड्रोकार्बन
  • नाइट्रस ऑक्साइड
  • हवा में तैरने वाले कण

1981 में प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण कानून बनाया गया। इसके अतिरिक्त वाहनों में सीसारहित भरा जाना तथा 80000 किमी की सीमा भी निर्धारित की गई।

भारत में महानगरों में यूरो II लागू है। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के गैस एवं रसायनों के उत्सर्जन एवं उपयोग पर भी नियंत्रण तथा प्रतिबंध लगाने का अंतरराष्ट्रीय प्रयास हो रहा है।

            उत्सर्जन मानदंड                 वर्ष

  • Bharat 2000 (यूरो-1)        :  2000
  • Bharat Stage II (यूरो-2)    :  April 2005
  • Bharat Stage III (यूरो-3)  :  April 2010
  • Bharat Stage IV (यूरो-4)   :  April 2017
  • Bharat Stage V (यूरो-5)     :  अभी लागू नहीं किया गया
  • Bharat Stage VI (यूरो-6)   :  April 2020

जल प्रदूषण

जल प्रदूषण से तात्पर्य है, जल में विषाक्त तत्वों का समावेश तथा जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में अवांक्षनीय परिवर्तन। जल प्रदूषण वर्तमान में विश्वव्यापी समस्या का रूप ले चुका है।
कारण : 
जल प्रदूषण का कारण प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों है।
प्राकृतिक कारण :
जैसे आकस्मिक वर्षा, अम्ल वर्षा, बाढ़, तूफान, ज्वालामुखी विस्फोट, मृदा क्षरण, सूखा जैसे कारक अपने प्रभाव में आने वाले जल को प्रदूषित कर देते हैं। लेकिन जल प्रदूषण की समस्या भी मुख्यतः मानव जनित ही है। मानवीय गतिविधियां के कारण जल प्रदूषण की समस्या के निम्न कारण है।
  1. घरेलू अपशिष्ट पदार्थों का जल में मिलना
  2. औद्योगिक कचरा एवं अपशिष्टों का जल में मिलना
  3. कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग
  4. रसायनों का उद्योग से जल में मिलना
  5. जलपोतो से तेल का रिसाव
  6. औद्योगिक कचरा
  7. ताप विद्युत केंद्र
  8. जीवाश्म ऊर्जा का कचरा
भारत जैसे देश में 80% बीमारियां अशुद्ध जल के सेवन से होती हैं। यह स्थिति जल प्रदूषण के भयावह परिणाम को बताता है। एक आकलन के अनुसार, भारत में उपलब्ध जल संसाधन का 70% भाग प्रदूषित है। जिसमें 30% जल विषाक्त के स्तर तक पहुंच चुका है। भारत में सबसे अधिक मौतें संक्रमण रोगों के कारण ही होती हैं, जिसके फैलने का मुख्य कारण प्रदूषण जल ही होता है।
प्रभावित क्षेत्र :
जल प्रदूषण के 3 क्षेत्र है।
  1. नदी जल प्रदूषण
  2. भूमिगत जल प्रदूषण
  3. समुद्री जल प्रदूषण
जलाशय एवं नदी जल प्रदूषण का क्षरण उद्योगों का कचरा, रासायनिक उर्वरकों नदी-नालों एवं नगरीय अपशिष्टों आदि का नदी एवं जलाशयों में मिलना है। विभिन्न प्रदूषण तत्व जल के द्वारा भूमि के अंदर चले जाते हैं। जिससे भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है। भूमिगत जल के प्रदूषण के रसायनों एवं कीटनाशकों का रिसकर अंदर जाना एक महत्वपूर्ण कारण है। अम्ल वर्षा जो वायु प्रदूषण का दुष्परिणाम है, नदी, जलाशय तथा भूमिगत जल को दूषित करता है। भारत की 13 नदियां जल प्रदूषण का शिकार है। इनमें गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, दामोदर, स्वर्णरेखा, साबरमती, गोमती जैसी विभिन्न नदियां प्रदूषित हैं। दिल्ली में यमुना नदी एक नाले का रूप ले चुकी है। दिल्ली से आगरा तक यह इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि पीने एवं नहाने लायक भी नहीं है। नदियों के जल को प्रदूषित करने में नदियों के किनारे स्थित उद्योगों एवं कारखानों का मुख्य योगदान है। गंगा एवं यमुना नदियों में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए 1985 से गंगा कार्य योजना तथा 1993 से यमुना कार्य योजना चला रहा है। विश्व की अनेक नदियां झील भी प्रदूषित हैं। सेंट लॉरेंस नदी, राइन नदी विश्व की प्रदूषित नदियों में से एक हैं। ह्यूरिन तथा इरी झील भी प्रदूषित हो रही हैं।
समुद्री जल के प्रदूषण की भी समस्या बढ़ रही है। समुद्री जल के प्रदूषण के कारणों में प्रमुख समुद्री तट पर स्थित नगरों का कचरा, उद्योगों, कल कारखानों का कचरा, नदियों द्वारा लाया गया कचरा, महानगरों में जलयानो एवं तेलवाहक, जलयानो से तेल का रिसाव, समुद्री नाभिकीय विस्फोट, समुद्र में तेल खनन का कार्य, सैन्य की गतिविधियां, आर्थिक गतिविधियां इत्यादि। 
परिणाम : 
जल मानव सहित विभिन्न जीव जंतुओं के अस्तित्व के लिए आधारभूत आवश्यकता है, लेकिन उसके प्रदूषण के कारण इनके अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो सकता है। मनुष्य की संक्रमण बीमारियों का प्रमुख कारण प्रदूषित जल ही है।
जल प्रदूषण के विभिन्न परिणाम निम्न हैं।
  1. मानव एवं जीव जंतुओं के सामने पेयजल की समस्या।
  2. कृषि के लिए प्रदूषित जल का उपयोग फसलों को प्रभावित करता है।
  3. जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के जीव जंतु पर दुष्प्रभाव। हुगली, दामोदर, स्वर्णरेखा जैसी नदियों में मछलियों की संख्या में कमी, प्रजनन में कमी तथा उत्पादकता में कमी का कारण जल प्रदूषण है। यह तीनों नदियों के तटवर्ती प्रदेशों में उद्योगों का केंद्र है।
  4. प्रदूषित जल भूमि को भी प्रदूषित कर देता है। भारत में विभिन्न रासायनिक उद्योग से निकला हुआ, प्रदूषित जल द्वारा उर्वरक कृषि भूमि के प्रदूषित होने का उदाहरण जोधपुर क्षेत्र में सामने आया है।
  5. मानव के संक्रमण बीमारियां जैसे पीलिया, हैजा, टाइफाइड व पेचिश का कारण आदि।
  6. जैवविविधता में संकट उत्पन्न होता है। नदियों और समुद्रों में जीव-जंतु एवं सूक्ष्म जीवों के जीवन के संकट के साथ ही वनस्पतियों के समाप्त होने की भी समस्या उत्पन्न होती है।
  7. विश्व के समुद्री मार्ग में जल प्रदूषण के कारण मत्स्यन पर प्रभाव पड़ता है।
रोकने के उपाय :
अनेक देशों सहित भारत में भी जल प्रदूषण को रोकने के लिए कानून एवं व्यापारिक कदम उठाए जा रहे हैं अधिकतर देशों में राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में जल प्रदूषण नियंत्रण के उपाय किए जा रहे हैं, यूरोपीय देशों में नदी विकास कार्यक्रम के अंतर्गत कई नदियों को प्रदूषण से मुक्त कर दिया गया है जैसे बोल्गा, मस्कोवा, राइन, टेम्स विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से थी जिन्हें नगरीय कचरें से मुक्त कर दिया गया। वहां प्रदूषित जल को शुद्ध कर सिंचाई में प्रयोग किया जाता है तथा अपशिष्ट को अलग कर पानी का उपयोग किया जाता है यूरोपीय देशों में नगरिया जल प्रवाह के लिए उप सही पूर्वा विकसित किया जा किया है ताकि नदी में नगरीय कचरा ना मिल सके भारत में भी आठवीं योजना में नदी कार्य योजना प्रारंभ की गई थी, जैसे गंगा कार्य योजना 1985, यमुना कार्य योजना 1993.
भारत में 1979 में भारत सरकार द्वारा जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण कानून बनाया गया है। कारखाना अधिनियम में भी राज्य सरकारों को उद्योगों के कचरा तथा अपशिष्ट को निपटाने के लिए आवश्यक प्रबंध सुझाने का अधिकार दिया गया। इस तरह जल प्रदूषण को रोकने का कार्य किया जा रहा है। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं का भी योगदान होता है।
बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड :
जल प्रदूषण को रोकने के लिए बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड परीक्षण किया जाता है। जैसे-जैसे जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ती है, जल में सूक्ष्म जीवों की संख्या में वृद्धि होती है। फलस्वरुप ऑक्सीजन की खपत अधिक होने लगती है, अर्थात बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड बढ़ जाती है। और जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। यह जलीय जीवों तथा मछली आदि के लिए जीवन का संकट उत्पन्न करती है। पोषण की कमी के कारण मिथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड, NN3 कैसे प्रदूषण तत्व उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे जल में दुर्गंध उत्पन्न हो जाती है।

ध्वनि प्रदूषण

ध्वनि प्रदूषण वर्तमान में विश्वव्यापी समस्या बन चुकी है। औद्योगिकरण, नगरीकरण, परिवहन संस्थाओं एवं संख्या में तीव्र वृद्धि विभिन्न उपकरणों का उपयोग जैसे कारकों ने वातावरण में अनियंत्रित शोर की तीव्रता में वृद्धि की है। अनियंत्रित शोर के कारण प्राकृतिक वातावरण में उत्पन्न अशांति या बाधा ही ध्वनि प्रदूषण है। इस प्रकार सुविधाजनक एवं शोर युक्त आवाज को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं। यह अनियंत्रित शोर या ध्वनि प्रदूषण इतना प्रभावी है कि मानव सहित समस्त समस्त मंडल को प्रभावित करता है। प्रयोगात्मक परीक्षाओं से पता चलता है कि 80 डेसीबल से कम तीव्रता वाली ध्वनि का मानव जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है, परंतु 90 डेसीबल से अधिक तीव्रता वाली ध्वनि पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डालती है और ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न करती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन :
WHO ने सुरक्षा की दृष्टि से दिन में 55 डेसीबल ध्वनि तथा रात्रि में 45 डेसिबल ध्वनि का मानक ध्वनि स्वीकृत किया है। जबकि महासागरों में यह 90 से 100 डेसिबल पाई जाती है। ध्वनि प्रदूषण मुख्यतः महानगरीय क्षेत्रों की ही समस्या है। अतः यह महानगरीय प्रदूषण कहलाता है।
भारतीय मानक संस्थान :
ISI ने आंतरिक वातावरण के लिए 55 डेसिबल तथा बाहर वातावरण के लिए 60 डेसीबल ध्वनि स्तर को निर्धारित किया है। लेकिन मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई जैसे महानगरों में 90 से 100 डेसीबल के मध्य ध्वनि पाई जाती है, जो प्रदूषण है।
ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख कारण तथा स्रोत :
  1. उद्योग की गड़गड़ाहट, निर्माण कार्य, मिसाइल परीक्षण
  2. मोटर गाड़ियां, वायुयान, जेट की आवाज 140 डेसिबल।
  3. घरेलू मनोरंजन के साधन जैसे रेडियो, टेलीविजन।
  4. सामाजिक-धार्मिक कार्यों में लाउडस्पीकरों की आवाज
  5. राजनीतिक गतिविधियों में सभा, चार में लाउडस्पीकर

भूमि प्रदूषण के प्रभाव : 

  1. मनुष्य की श्रवण शक्ति का हास एवं बहरेपन की समस्या। 80 डेसिबल से अधिक ध्वनि मनुष्य को बहरा बना सकती है।
  2. नींद की समस्या तथा नाड़ी संबंधी अन्य रोग
  3. मानसिक तनाव, ह्रदय रोग में वृद्धि, सोचने की क्षमता में कमी, ब्लड प्रेशर आदि की समस्या
  4. विभिन्न जंतुओं में भी हृदय, मस्तिष्क तथा लीवर की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  5. नवजात शिशु के जन्म पर प्रभाव पड़ता है।
  6. तीव्र ध्वनि से सूक्ष्म जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं, जिससे मृत अवशेषों के अपघटन में बाधा उत्पन्न होती है।
एक अध्ययन के अनुसार शिकागो महानगर में 60% लोगों के बीच मानसिक तनाव तथा चिड़चिड़ापन की समस्या पाई जाती है। भारत में भी दक्षिण भारत के औद्योगिक नगरों के करीब 25% श्रमिक बहरेपन से ग्रस्त है।

ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपाय :

पश्चिमी यूरोपीय देशों तथा अमेरिका में ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए शोर पर नियंत्रण के लिए कानून बनाए गए हैं। विभिन्न विकसित देशों में ध्वनि की अधिकता अधिकतम सीमा 75 से 80 डेसीबल निर्धारित की गई है। भारत में ध्वनि के स्तर के निर्धारण के लिए कोई निश्चित कानून या नियम नहीं बनाए गए हैं। भारतीय मानक संस्थान द्वारा ध्वनि की मानक सीमा 40 से 55 डेसीबल निर्धारित की गई है, लेकिन महानगरों में मानक से अधिक 90 से 100 डेसिबल ध्वनि पाई जाती है। लाउडस्पीकरो के रात्रि में उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है, लेकिन वाहनों में होने वाली ध्वनि अनियंत्रित हैं। उद्योगों, हवाई अड्डों की स्थापना अधिवासीय क्षेत्रों से दूर किया जा रहा है। अधिकतर हवाई अड्डों का विकास महानगरो से 20 किमी की दूरी पर किया जा रहा है। विश्व स्तर पर सड़क परिवहन के लिए ऐसे इंजन का विकास किया जा रहा है, जिसका ध्वनि स्तर 65 डेसीबल से अधिक नहीं होना चाहिए। यदि ट्रैफिक नियमों का पालन किया जाए तो तीव्र ध्वनि वाले होरन की आवश्यकता नहीं है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आम, इमली, ताल, नारियल, नीम आदि के वृक्ष वातावरण में 10 से 15 डेसीबल शोर कम कर देते हैं। अतः वृक्षारोपण कार्य भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस तरह शोर प्रदूषण के विभिन्न कारणों के संदर्भ में ही नियंत्रण के उपाय किए जाने चाहिए।

भूमि प्रदूषण

भूमि प्रदूषण की समस्या मुख्यतः हरित क्रांति का परिणाम है। मिट्टी पारिस्थितिकी तंत्र का आधार होता है, इसमें विभिन्न प्रकार के खनिज, लवण, कार्बनिक पदार्थ, जल, वायु एवं ह्यूमस का निश्चित अनुपात होता है। यदि इन पदार्थों एवं अनुपात में प्रतिकूल परिवर्तन होता है तो मृदा प्रदूषण कहलाता है। मृदा प्रदूषण न केवल वनस्पतियों एवं पौधों के लिए हानिकारक है, बल्कि मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवों के लिए भी हानिकारक है। अतः यह पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करता है।
मृदा प्रदूषण के कारण : निम्नलिखित कारण है।
  1. मृदा क्षरण की क्रिया
  2. वनों का विनाश
  3. नहर सिंचाई एवं जलजमाव
  4. कृषि का अवैज्ञानिक तरीका, झूम खेती
  5. रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशकों का प्रयोग
  6. अम्ल वर्षा, जल प्रदूषण एवं वायु प्रदूषण
उपरोक्त कई कारण मृदा प्रदूषण उत्पन्न करते हैं, लेकिन मृदा प्रदूषण हरित क्रांति का ही परिणाम है। भूमि पर जनसंख्या का दबाव निरंतर बढ़ रहा है। अतः अत्यधिक खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए हरित क्रांति एवं नवीन कृषि व्यवहारों के अंतर्गत रासायनिक उर्वरक एवं सिंचाई साधनों से जलापूर्ति में नहर सिंचाई का विकास, संकर बीजों का विकास, कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है। यह सभी संरचनात्मक कारक मृदा प्रदूषण को उत्पन्न करते हैं। हरित क्रांति के देशों में भूमि में लवणता तथा अम्लीयता की समस्या उत्पन्न हो रही है, जिससे रेह एवं कल्लर भूमि का विकास हुआ। यह समस्या नहर सिंचाई के देशों में जल जमाव से हुई है एवं भूमि में उत्पादकता कम हो गई है। बीजों के प्रयोग के लिए इनकी अधिक आवश्यकता होती है। मृदा प्रदूषण के दुष्परिणाम कृषि उत्पादकता तथा विभिन्न घटकों पर प्रतिकूल रूप से पड़ता है।
भारत में हरित क्रांति के क्षेत्र, अन्य नहर सिंचित क्षेत्र, मिश्र दक्षिण कोरिया जैसे देशों में भी हैं। UNEP के अनुसार, भूमि प्रदूषण की गंभीर समस्या भारतीय उपमहाद्वीप में है। अतः आवश्यकता है कि भूमि प्रदूषण के लिए उत्तरदाई कारणों को नियंत्रित किया जाए तथा हरित क्रांति के संरचनात्मक चरों का उपयोग संतुलित रूप से किया जाए अर्थात कृषि के क्षेत्र में टिकाऊ हरित क्रांति की नीति बनाई जाए ताकि पारिस्थितिकी संतुलन भी बना रहे तथा उत्पादन में वृद्धि हो सके।

रेडियोधर्मी प्रदूषण

मानव द्वारा परमाणु ऊर्जा के उपयोग विभिन्न उपयोगों तथा एक्स-रे के अत्यधिक प्रयोग से विकिरण का दुष्प्रभाव मानव के साथ ही पर्यावरण पर भी पड़ता है। वर्तमान में नाभिकीय विकिरण के विभिन्न कृत्रिम स्रोत परमाणु परीक्षण, रेडियो आइसोटोप का निर्माण, परमाणु उर्जा संयंत्र, परमाणु कचरा एवं रेडियोधर्मी अवशिष्ट है।
परमाणु विकिरण के कारण कैंसर, बांझपन, चर्म रोग, श्वास तंत्र में गड़बड़ी, प्रजनन तंत्र की समस्या, जख्म का शीघ्र नहीं भरना, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी जैसी विभिन्न स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न होती है। परमाणु इंधन खनन केंद्रों तथा परमाणु ऊर्जा उत्पादन केंद्र में जहां रेडियोधर्मी प्रदूषण अधिक पाए जाते हैं। वहां इस तरह की समस्या पाई जाती है।
इस तरह पर्यावरण प्रदूषण की समस्या तंत्र गंभीर समस्या है जिसके विभिन्न कारण है। लेकिन मानवीय गतिविधियां तथा आर्थिक क्रियाकलाप ही मुख्य प्रदूषण के लिए उत्तरदाई कारक है। अतः हमें रोकथाम एवं नियंत्रण के उपाय भी मानव को ही करना होगा। इसके लिए सर्वप्रमुख आवश्यकता है, विकास की गतिविधियों का प्रकरण के साथ संतुलन बनाए रखना, ताकि विकास भी बाधित ना हो तथा पर्यावरण समस्या भी नहीं हो सके और पारिस्थितिकी संतुलन बना 
रहे।
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