प्रवाही जल, अपरदन का सर्वप्रमुख दूत है डेविस ने अपनी सामान्य अपरदन चक्र की अवधारणा प्रवाही जल के संदर्भ में प्रस्तुत की थी। डेविस ने प्रवाही जल को अपरदन का सर्वप्रथम दूत माना और स्पष्ट किया कि प्रवाही जल या नदियां अपरदन, परिवहन या निक्षेपण कार्यों से विशिष्ट प्रकार की स्थलाकृतियों का विकास करती है।
डेविस ने स्थल आकृतियों के विकास की तीन अवस्थाएं बताई थी।
- युवावस्था,
- प्रौढ़ावस्था,
- वृद्धावस्था
इन तीनों अवस्थाओं में अपरदन की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं घटित होती हैं और विशिष्ट स्थल आकृतियों का विकास होता है।
पैंक ने भी प्रवाही जल के संदर्भ में ही अपरदन चक्र की अवधारणा प्रस्तुत की। स्थलाकृतियों के विकास में अपरदन एवं परिवहन क्षमता पर नदी के वेग का व्यापक प्रभाव पड़ता है, इसे निम्न सूत्र से समझा जा सकता है।
- अपरदन क्षमता समानुपाती,
- परिवहन क्षमता समानुपाती
इसमें प्रमाणित होता है कि नदी के वेग का प्रभाव परिवहन क्षमता पर सबसे अधिक पड़ता है नदियां अपने मार्ग में अपरदन चक्र की प्रक्रियाओं के अनुरूप अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण का कार्य करती हैं और यह क्रिया तब तक घटित होती है जब तक की आधार तल की प्राप्ति ना हो जाए अर्थात आधार तल के प्राप्ति के साथ ही अपरदन चक्र की क्रिया समाप्त हो जाती है और आकृति विहीन समतल प्राय मैदान का विकास होता है जिसे डेविस ने समप्राय मैदान तथा पेंक ने Indrump कहा।
सामान्य अपरदन चक्र की प्रक्रिया में नमोन्मेष की क्रिया के कारण यदि बाधा उत्पन्न होती है तो नवीन अपरदन चक्र प्रारंभ हो जाता है।
प्रवाही जल द्वारा विकसित स्थल आकृतियों को दो वर्गों में बांटते हैं।
- अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां
- निक्षेपण द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां
अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां :
- V आकार की घाटी : नदी युवावस्था में तीव्र तलीय कटान के द्वारा गहरी, संकरी घाटियों का विकास करती है सर्वप्रथम ‘I’ आकार की घाटी का विकास होता है जो अधिक गहरी संकरी V आकार की घाटी में परिवर्तित हो जाती है कटान की तीव्रता के कारण V आकार की घाटी क्रमश: अधिक संकरी और गहरी घाटियां, गार्ज एवं कैनियन में परिवर्तित हो जाती है।
इस प्रकार की घाटियों का विकास उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में होता है जैसे हिमालय क्षेत्र में सिंधु एवं सतलज नदी का गार्ज प्रमुख है।
कैनियन का उदाहरण USA का कोलोरेडो नदी का ग्रांड कैनियन है।
- जल प्रपात एवं रैपिड : जब नदी के ढाल में अचानक परिवर्तन होता है तो नदियां तीव्र वेग से नीचे गिरती है और जलप्रपात का निर्माण करती हैं। जलप्रपात के विकास के लिए कठोर एवं मुलायम चट्टानों का क्रमशः लंबवत एवं क्षेत्रीय रूप में पाया जाना आवश्यक है। यदि कठोर एवं मुलायम चट्टाने लंबवत रूप से स्थित हो तो ऐसे प्रपात स्थाई होते हैं। जैसे USA का येलोस्टोन नदी का ग्रांड जलप्रपात या फाल। यदि कठोर और मुलायम चट्टाने क्रमश: क्षैतिज रूप में होती हैं, तो ऐसे प्रपात अस्थायी होते हैं। जैसे USA का नियाग्रा जलप्रपात ऐसे प्रपात पीछे खिसकते हैं।
जब नदी के मार्ग में विषम संरचना या विषम धरातल स्थित हो तो नदी का जल विषम ढालो पर उछलती हुआ प्रवाहित होता है। इसे रैपिड या उच्छलिकाएं कहते हैं। ये प्राय: सभी पहाड़ी जगह पर पाए जाते हैं।
- जल गर्तिका एवं अवनमन कुण्ड : नदी अपने मार्ग में स्थित मुलायम चट्टानों का अपरदन कर देती है तो निर्मित गड्ढे को जल गर्तिका कहते हैं। जल गर्तिका के विकास में भंवर द्वारा छेदन क्रिया का योगदान होता है जब जल गर्तिका का विस्तार हो जाता है तो विस्तृत गड्ढे को अवनमन कुण्ड कहते हैं। अवनमन कुण्ड का विकास जलप्रपात के नीचे भी होता है। इसे प्रपात कुंड भी कहते हैं।
- नदी वेदिका : नदी वेदिका का विकास नदी द्वारा निर्मित घाटी में उत्थान या नवोन्मेष की क्रिया के फलस्वरुप होता है यदि किसी नदी घाटी में उत्थान हो जाता है तो नदियां तलीय कटान के द्वारा पुनः घाटी का निर्माण करती हैं। इस स्थलाकृति को घाटी में घाटी या दो तल्ले वाली घाटी कहते हैं जैसे दामोदर घाटी। जब नवोन्मेष की क्रिया कई बार होती है तो नदी वेदिका का विकास होता है।
- संरचनात्मक सोपान : सोपानाकार घाटी का विकास नदी द्वारा विशैषिक अपरदन की क्रिया के फलस्वरुप होता है यदि नदी के पार्श्वों या किनारों पर कठोर एवं मुलायम चट्टाने स्थित हो तो संरचनात्मक या सोपानाकार घाटी का विकास होता है। इसे संरचनात्मक सोपान भी कहा जाता है।
- नदी विसर्प : नदी विसर्प प्रौढ़ावस्था में विकसित स्थलाकृति है जिसमें अपरदन और निक्षेपण दोनों ही क्रियाओं का योगदान होता है। नदी मैदानी भाग में प्रवेश करती है तो धरातलीय संरचनात्मक भिन्नता के कारण नदियां कई मोड़ बनाकर प्रवाहित होने लगती हैं, इसे नदी विसर्प कहते हैं। जब नदी अधिक मुड़ जाती है तो मुड़े हुए भाग से गोखुर झील या क्षाड़ण झील का विकास होता है। नदी विसर्प की स्थिति में यही नदी के तल में उत्थान हो जाता है तो विसर्प के अंतर्गत पुनः एक विसर्प का विकास होता है जिसे अध: कर्तित विसर्प कहते हैं यह नवोन्मेष से उत्पन्न स्थलाकृति है।
निक्षेप से निर्मित स्थलाकृतियां :
- जलोढ़ शंकु : यह प्रौढ़ावस्था में निर्मित स्थलाकृति है जिसका विकास पर्वत पाद प्रदेशों में मंद ढाल के कारण जल द्वारा कंकड़ पत्थर के निक्षेप से होता है यह शंकु के आकार का होता है।
- जलोढ़ पंख : पर्वतों के पाद प्रदेश में अधिक जलयुक्त नदी के द्वारा मंद ढाल के कारण बड़े क्षेत्र में कंकड़ पत्थर एवं जलोढ़को का निक्षेप हो जाता है। यह देखने में पंखाकार होता है। इसे जलोढ़ पंख कहते हैं। यह जलोढ़ शंकु का ही विस्तृत रूप है और कई जलोढ़ शंकु के मिलने से भी जलोढ़ पंखों का विकास होता है।
- गिरिपदीय जलोढ़ मैदान : पर्वतों के पाद प्रदेशों में जलोढ़ के निक्षेप के कारण वृहद मैदान का विकास होता है। कई जलोढ़ पंखों के मिलने से यह विकसित होता है। यहां मानव अधिवासित होते हैं।
- नदी विसर्प : यह निक्षेपण और अपरदन दोनों क्रियाओं द्वारा विकसित होता है।
- प्राकृतिक तटबंध : नदी के दोनों किनारों पर निक्षेपण क्रिया के फलस्वरुप बांध का विकास हो जाता है। इसे प्राकृतिक तटबंध कहते हैं। जब नदी में जल की मात्रा अधिक हो जाती है तो नदी का जल बांध को तोड़कर चारों ओर फैल जाता है, जिसे बाढ़ कहते हैं। बाढ़ का जल जब समाप्त हो जाता है, तो निर्मित मैदान को बाढ़ का मैदान कहते हैं।
- डेल्टा : नदी वृद्धावस्था में वेग की कमी और जलोढ़को के भार के अधिकता के कारण जलोढ़को का निक्षेप करने लगती है फलस्वरुप नदी की प्रमुख धारा कई धाराओं में बंट जाती है। इससे निर्मित स्थलाकृति को डेल्टा कहते हैं इसका विकास नदी के मुहाने के पास होता है।
- समप्राय मैदान : समप्राय मैदान का विकास अपरदन चक्र की समाप्ति पर होता है यह प्रवाही जल से निर्मित अंतिम स्थलाकृति है और अपरदन चक्र की समाप्ति का प्रतीक है नदियां जब आधार ताल को प्राप्त कर लेती है तो सीमित रूप से क्षैतिज अपरदन और निक्षेप की प्रक्रिया के फल स्वरुप आकृति बिहीन लगभग समतलप्राय मैदान का विकास करती हैं जिसे डेविस ने समप्राय मैदान कहा। समप्राय मैदान में कहीं-कहीं कठोर चट्टानी टिले अवशेष के रूप में रह जाते हैं इसे डेविस ने मोनेडनोक कहा।
इस तरह प्रवाही जल या नदियां सामान्य अपरदन चक्र की क्रिया के फलस्वरुप विशिष्ट प्रकार की स्थलाकृतियों का विकास करती हैं क्योंकि प्रवाहित जल परिभाषित रूप से अपरदन की प्रक्रियाओं और उससे उत्पन्न स्थलाकृतियों को स्पष्ट करती है। इसी कारण डेविस और पैंक ने प्रवाही जल के संदर्भ में ही अपरदन चक्र की अवधारणा प्रस्तुत की थी।