सागरीय तटवर्ती क्षेत्रों में सागरीय तरंगों, धाराओं, ज्वार इत्यादि समुद्री जल की गतियों के कारण तटवर्ती क्षेत्रों में अपरदन का कार्य होता है। फलस्वरुप तटवर्ती क्षेत्र में अपरदनात्मक स्थलाकृतियों का विकास होता है। लोटती हुए तरंगों द्वारा तटवर्ती क्षेत्र में अपरदित पदार्थों का तट से समुद्र की ओर निक्षेपित करने की क्रिया होती है, जिससे निक्षेपात्मक स्थलाकृतियों का विकास होता है। स्थलाकृतियों के विकास में सर्वाधिक योगदान समुद्री तरंगों का होता है। यें तरंगे तट से टकराती हैं और अध: प्रवाह के रूप में वापस लौटती है जो स्थलाकृतियों के विकास के लिए मुख्यत: उत्तरदायी है। वेलांचली धारा और ज्वार का प्रभाव भी स्थलाकृतियों के विकास पर पड़ता है।
स्पष्टत: अपरदन के अन्य दूतों के सामान्य ही समुद्री तरंग भी एक प्रमुख दूत है और सामान्य अपरदनचक्र की क्रिया तटवर्ती प्रदेशों में भी घटित होती है।
तटवर्ती स्थलाकृतियों को दो भागों में बांटा जा सकता है।
- अपरदन से निर्मित स्थलाकृतियां
- निक्षेप से निर्मित स्थलाकृतियां
अपरदन से निर्मित स्थलाकृति या निम्नलिखित हैं।
- तटीय भृगु – तटीय क्षेत्र में समुद्री तरंगों के द्वारा तटीय चट्टानों पर प्रहार किया जाता है, जिससे तीव्र ढाल वाले तत्वों का निर्माण होता है, इसे तटीय भृगु कहते हैं। भृगु के आधार पर तरंगों के द्वारा और अपरदन की क्रिया से गड्ढे या गर्त का निर्माण होता है जिसे खांचा या दांता कहते हैं। जब खांचा अधिक विस्तृत हो जाता है तो भृगू लटकता हुआ दिखाई देता है, जिसे लटकती भृगु कहते हैं।
- तरंग धार्षित वेदिका – तरंगों के द्वारा खांचे के अधिक विस्तार हो जाने पर लटकती हुई भृगु को टूटकर नीचे गिरने लगती है। फलस्वरुप पुनः खड़े ढाल वाले भृगु का निर्माण होता है। तरंगों द्वारा पुनः खांचे का निर्माण किया जाता है और यह प्रक्रिया चलती रहती है। इसके फलस्वरुप आधार के चट्टानों का निरंतर स्थल की ओर विस्तार होता चला जाता है। जिससे निर्मित चट्टाने चबूतरे के क्षेत्र को तरंग घर्षित वेदिका कहते हैं।
- लघु निवेशिका – यह तटवर्ती क्षेत्र में कठोर और मुलायम चट्टाने क्रमश: स्थित हो तो कठोर चट्टानों के पीछे स्थित मुलायम चट्टानों का तरंगों द्वारा अपरदन हो जाता है। फलस्वरुप अंडाकार गर्त का विकास होता है, जिसमें समुद्र का जल प्रवेश कर जाता है, इसे लघु निवेशिकों कहते हैं। कठोर चट्टानों के अवशेष छोटे द्वीप के रूप में शेष रह जाते हैं, क्योंकि इसका अपरदन नहीं होता है।
- कंदरा मेहराब और बात छिद्र – जब स्थल से कोई चट्टानी क्षेत्र समुद्र की ओर निकला होता है तो ऐसे में समुद्री तरंगों के द्वारा की गई अपरदन क्रिया के फलस्वरुप खोखली आकृति का निर्माण होता है, जिसे कंदरा कहते हैं। जब कंदरा में समुद्री जल आर-पार प्रभावित होने लगता है तो कन्दरा की छत पुल की तरह दिखाई देता है जिसे मेहराब कहते हैं। जब मेहराब की छत टूट जाती है तो चट्टाने स्तंभ की तरह खड़ी रह जाती हैं, जिसे स्टैक या स्कैरी कहते हैं।
कंदरा में जल के साथ हवाओं के प्रवेश करने से कंदरा के छत पर दबाव बनता है जिससे कभी-कभी हवाएं कंदरा की छत में छेद बनाती हुई बाहर निकलती है इससे बात छिद्र कहते हैं। बातछिद्र से तेज सीटी की आवाज आती है।
निक्षेप से निर्मित स्थलाकृतियां निम्न है।
- पुलिन एवं कस्पपुलिन – यह एक निक्षेपात्मक स्थलाकृति है जिसका विकास स्थलीय तटीय पदार्थ का समुद्र की ओर नीचे होने से होता है जब पुलिन का विस्तार समुद्र की ओर कटक के रूप में लंबत हो जाता है तो इसे कस्प पुलिन कहते हैं।
- रोधिका – रोधिका बांध की तरह निक्षेपित स्थलाकृति है जिसका विकास तट के करीब या तट से दूर तट के समानांतर होता है। तट से दूर स्थित रोधिका को अपतट रोधिका का कहते हैं।
- स्पीट, हुक, मिश्रित, हुक – समुद्र के जल की ओर निक्षेप की क्रिया इस प्रकार हो कि समुद्र में जिह्य की तरह निक्षेप हो जाए तो इसे स्पीड कहते हैं। यह लंबा संकरा होता है जब स्पीड तट की ओर मुड़ जाता है तो इसे हुक कहते हैं। एक हुक में जब कोई हुक विकसित हो जाता है तो उसे मिश्रित हुक कहते हैं।
- लुप एवं लुप रोधिका – जल स्पीड मुड़कर तट से लगभग मिल जाता है, तो इसे लुप कहते हैं। जब किसी द्वीप के चारों ओर लुप का विकास हो तो इसे लुप रोधिका कहते हैं।
- संयोजन रोधिका – दो स्थलीय भाग को जोड़ने वाली रोधिका को संयोजक राधिका कहते हैं। तटीय भाग को द्वीप से जोड़ने वाली राधिका टॉमबोलो कहलाती है।
- उभयाग्र रोधिका – संलग्न रोधिकाओ को उभयाग्र राधिका कहते हैं, इसे डंगनेस भी कहा जाता है।
इस तरह तटवर्ती प्रदेश में समुद्री तरंगों एवं धाराओं के द्वारा विशिष्ट अपरदनात्मक एवं निक्षेपात्मक स्थलाकृतियों का विकास होता है। अतः स्तरीय: तटीय देश में समुद्र तरंगे अपरदन का सर्वप्रमुख दूत है।
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