वाताग्र का अर्थ
जब दो भिन्न स्वभाव वाली वायुराशियां विपरीत दिशाओं से आकर अभिसरण का प्रयास करती हैं, तब ये पूर्ण रूप से मिश्रित नहीं हो पाती एवं उनके सीमांत प्रदेश में ढलुआं सीमा सतह का निर्माण होता है, जिसे वाताग्र कहते हैं। सीमाग्र या वाताग्र वह सतह है, जहां दो विपरीत दिशा से आने वाली वायु राशियों के गुणों का मिश्रण होना प्रारंभ होता है। वाताग्र की उत्पत्ति की प्रक्रिया को वाताग्र जनन कहते हैं।
वाताग्र उत्पत्ति के लिए दो दशाओं का होना अति आवश्यक है।
- दो वायुराशियां विपरीत तापक्रम वाली होनी चाहिए। एक वायु ठंडी, भारी एवं शुष्क जबकि दूसरी वायु गर्म, हल्की तथा आर्द्र होनी चाहिए।
- दो विपरीत दिशाओं से वायु का अभिसरण होना चाहिए।
इस तरह विकसित वाताग्र के प्रमुख लक्षण निम्न है।
- वाताग्र एक रेखा में नहीं होते, बल्कि 3 मील से 50 मील तक चौड़े होते है।
- वाताग्र में 50-80 किमी प्रति घंटा की गति पायी जाती है।
- वाताग्र उर्ध्वाधर रूप में भी गतिशील होते हैं।
- वाताग्र प्राय: धरातल से 3000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर नहीं बनते हैं।
- जब वाताग्र के गुण नष्ट हो जाते हैं, तब वाताग्रों की भी समाप्ति हो जाती है।
वाताग्र की उत्पत्ति एवं विकास की 6 अवस्थाएं होती हैं। यह 6 अवस्थाएं शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति की भी अवस्थाएं होती है। इस संदर्भ में ध्रुवीय वाताग्र सिद्धांत दिया गया है। अंतिम अवस्था में वाताग्र की समाप्ति हो जाती है। वाताग्रों की समाप्त होने को वाताग्र क्षय कहते हैं।
वाताग्र के चार प्रकार
- उष्ण वाताग्र – जब वाताग्र के सहारे गर्म वायु आक्रमक हो तो वह ठंडी वायु के ऊपर चढ़ जाती है एवं उष्ण वाताग्र का निर्माण होता है। यह मंद ढाल का होता है। प्रभाव अधिक क्षेत्र पर होता है।
- शीत वाताग्र – जब वाताग्र के सारे ठंडी वायु आक्रमक होती है, तो वह गर्म वायु को ऊपर उठा देती है, एवं शीत वाताग्र का निर्माण होता है। यह तुलनात्मक रूप से तीव्र ढाल वाला होता है। प्रभाव कम क्षेत्र पर होता है।
- संरोधित वाताग्र – जब कभी शीत वाताग्र अपनी तीव्र गति के कारण उष्ण वाताग्र तक पहुंचकर उसमें मिल जाता है, तब संरोधित वाताग्र का निर्माण होता है। गरम वायु पूर्णतः ऊपर उड़ जाती है तथा धरातल से संपर्क समाप्त होता है। ऊपर उठती वायु के संघनन से बादलों का निर्माण होता है तथा वर्षा होती है।
- स्थायी वाताग्र – जब दो विपरीत वायु राशियां वाताग्र के रूप में इस प्रकार अलग हो जाती है, कि वह एक दूसरे के समानांतर होती हैं तो स्थायी विताग्र का निर्माण होता है। कई दिनों तक बादल छाए रहते हैं। फुहार तथा वर्षा होती रहती है।
वाताग्रों में मौसमी दशाए
- उष्ण वाताग्र – गर्म वायु ऊपर उठ जाती है। संघनन से मेघ बनते हैं और वर्षा होती है, वर्षा स्तरी मेघों का विकास होता है। ढाल हल्का होने के कारण वर्षा लंबे समय तक विस्तृत क्षेत्रों में एवं हल्की होती है। वाताग्र के गुजर जाने पर वर्षा रुक जाती है एवं मौसम साफ हो जाता है।
- शीत वाताग्र – इसके तीव्र गति से आगे बढ़ जाने पर मौसम शीघ्र ही साफ हो जाता है। लेकिन रुक जाने पर तीव्र वर्षा होती है, लेकिन अल्पकालीन होती है। वर्षा, कपासी वर्षा मेघ से होती है। तड़ित झंझा उत्पन्न होते हैं। मेघगर्जन के साथ वर्षा होती है, तापमान गिर जाता है। वाताग्र के गुजर जाने पर वर्षा रुक जाती है एवं ठंडी हवा चलने लगती है।
वाताग्रों का वितरण
विश्व में वाताग्रों के 3 प्रमुख प्रदेश पाए जाते हैं।
- आर्कटिक वाताग्र प्रदेश – आर्कटिक क्षेत्र में सागरीय ध्रुवीय एवं महाद्वीपीय ध्रुवीय वायु राशियों के मिलने से इस वाताग्र प्रदेश का निर्माण होता है। यूरेशिया तथा उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भागों पर विस्तृत है। यह अधिक सक्रिय नहीं होता है।
- ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश – 30-45 डिग्री अक्षांशो के बीच ध्रुवीय ठंडी वायु एवं उष्ण कटिबंधीय गर्म वायु राशियों के मिलने से यह वाताग्र उत्पन्न होता है। अधिक शीतकाल में सक्रिय है – उत्तरी अटलांटिक एवं उत्तरी प्रशांत महासागर क्षेत्र प्रमुख है। यहां शीतोष्ण चक्रवातों की उत्पत्ति होती है।
- अन्त: उष्ण कटिबंधीय वाताग्र – विषुवतीय निम्न वायुदाब क्षेत्र में उत्तरी पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों के अभिसरण में यहां वाताग्र का निर्माण होता है। यह गर्मी में उत्तर एवं जाड़े में दक्षिण की ओर खिसकता है। यहां उष्ण चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। [ वायुमंडलीय परिसंचरण का अर्थ ]