ज्वार-भाटा | ज्वर भाटा किसे कहते है?

समुद्री जल में क्षैतिज एवं लंबवत गति पायी जाती है। ज्वार भाटा समुद्री जल की लंबवत गति है। जिसका कारण सूर्य एवं चंद्रमा का आकर्षण एवं पृथ्वी का अपकेंद्रीय बल है। सूर्य और चंद्रमा के आकर्षण शक्ति के कारण समुद्र का जल दिन में दो बार ऊपर उठता है तथा दो बार नीचे उतरता है। जल के ऊपर उठने को ज्वार तथा नीचे गिरने को भाटा कहते हैं। किसी स्थान पर प्रतिदिन दो बार ज्वार तो दो बार भाटा आता हैं। ज्वार भाटे की गति में एक क्रमबद्धता होती है तथा इस क्रमबद्धता में एक नियमित अंतराल होता है। प्रथम उच्च ज्वार की तुलना में दूसरा उच्च ज्वार 26 मिनट विलंब से आता है।

ज्वार भाटा की उत्पत्ति से संबंधित अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं जो निम्नलिखित हैं।

  • संतुलन सिद्धांत न्यूटन द्वारा
  • प्रगामी तरंग सिद्धांत विलियम वावेल द्वारा
  • नहर सिद्धांत एयरी द्वारा
  • स्थिर तरंग सिद्धांत हैरिस द्वारा

इसमें न्यूटन के संतुलन सिद्धांत को व्यापक मान्यता प्राप्त है।

संतुलन सिद्धांत : 

न्यूटन ने 1687 ईस्वी में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के आधार पर संतुलन सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार सभी आकाशीय पिंड एक दूसरे को आकर्षित करते है, और यही अंतराकर्षण संतुलन उत्पन्न करता है। यह अंतराकर्षण शक्ति पिंड के द्रव्यमान एवं दूरी पर निर्भर करती है। यदि किसी पिंड से किसी छोटे पिंड की दूरी अधिक बड़े पिंड की दूरी की अपेक्षा कम हो तो कम द्रव्यमान वाला पिंड ही अधिक आकर्षण उत्पन्न करेगा। यह पृथ्वी, सूर्य एवं चंद्रमा के संदर्भ में देखा जा सकता है।

पृथ्वी से सूर्य की दूरी 14.96 करोड़ किलोमीटर है, अतः यह कम द्रव्यमान का पिंड चंद्रमा की अपेक्षा कम आकर्षण शक्ति उत्पन्न करता है, क्योंकि चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नज़दीकी पिंड है, अतः छोटे आकार के बावजूद यह पृथ्वी पर अधिक आकर्षण उत्पन्न करता है। यही आकर्षण ज्वार उत्पत्ति का कारण है। चंद्रमा के आकर्षण का प्रभाव जल पर मुख्य रूप से पड़ता है, क्योंकि यह तरल होता है। अतः इसमें उछाल की प्रवृत्ति विकसित होती है।

न्यूटन ने यह भी बताया कि आकर्षण का प्रभाव पृथ्वी के स्थलीय भाग पर भी पड़ता है। अतः जब ठोस पृथ्वी चंद्रमा की ओर आकर्षित होती है, तब विपरीत गोलार्ध में तरल जल की उपस्थिति के कारण अपकेंद्रीय शक्तियां उत्पन्न होती है तथा विपरीत देशांतर पर इसी समय उच्च ज्वार उत्पन्न होते हैं। साथ ही चंद्रमा के सामने के देशांतर पर भी उच्च ज्वार उत्पन्न होते हैं । अतः एक ही देशांतर में 24 घंटे के अंदर एक बार चंद्रमा के सामने के कारण तथा एक बार चंद्रमा के विपरीत स्थिति के कारण उच्च ज्वार आते हैं। ‌ भाटे भी दिन में दो बार उत्पन्न होते हैं।

किसी एक देशांतर पर दूसरा उच्च ज्वार 26 मिनट अधिक समय लेने के बाद आता है। यह वृद्धि 27.5 दिन तक होती है अर्थात तब तक होती है, जब तक चंद्रमा अपने भ्रमण पथ पर घूमते हुए पुनः उसी अवस्था में नहीं आ जाता है। अतः यदि किसी जगह पर उच्च ज्वार 12:00 बजे दिन में आता है, तब अगला उच्च ज्वार 12:00 बजे दिन में 27.5 दिन के बाद ही आएगा। समय या अंतराल में वृद्धि का कारण चंद्रमा की मासिक गति या परिभ्रमण गति है। किसी भी देशांतर को विपरीत दिशा में जाने में पूर्णत: 12 घंटे लगते हैं, जबकि जब तक चंद्रमा अपने परिभ्रमण पथ पर आगे निकल चुका होता है, अतः उसी देशांतर को चंद्रमा के नीचे आने में 26 मिनट का अतिरिक्त समय लगता है। अतः प्रत्येक अगला ज्वार 26 मिनट के बाद आता है।

न्यूटन के अनुसार चंद्रमा का प्रभाव निर्धारक होता है, लेकिन अन्य आकाशीय पिंड भी प्रभाव डालते हैं। इसमें सूर्य ही महत्वपूर्ण है। अन्य पिंड का स्थान नगण्य है। पूर्णमासी एवं अमावस्या के दिन जब सूर्य, चंद्रमा एवं पृथ्वी एक ही सीध में होते हैं, तो आकर्षण शक्ति में वृद्धि होती है तथा आने वाला उच्च ज्वार सामान्य ज्वार से 20% अधिक होता है, इसे वृहत ज्वार कहते हैं। इन्हीं तिथियों में निम्न ज्वार के क्षेत्र में जल का स्तर 20% नीचे चला जाता है। इसी तरह शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की अष्टमी को सूर्य एवं चंद्रमा पृथ्वी के संपूर्ण पर अवस्थित होते हैं। ऐसी स्थिति में आकर्षण 2 दिशाओं में होता है, तथा उच्च ज्वार के क्षेत्र में सामान्य उछाल की तुलना में 20% कम उछाल आता है, तथा निम्न ज्वार के क्षेत्र में जल स्तर 20% नीचा होता है।

सामान्यतः प्रतिदिन एक देशांतर पर दो उच्च एवं दो निम्न ज्वार आते हैं जो निश्चित समय पर ही आते हैं। परंतु कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां उच्च ज्वार विलंब से आते हैं। पुनः कुछ क्षेत्रों में 2 से अधिक ज्वार भी आते हैं, यह क्षेत्र है- इंग्लिश चैनल तथा कच्छ की खाड़ी। यह परिस्थिति तब होती है, जब किसी देशांतरीय तट रेखा के सहारे द्वीपीय बाधाएं उपस्थित होती है। द्वीप की उपस्थिति से उठता हुआ जल बाधित हो जाता है तथा विलंब से पहुंचता है।

इंग्लिश चैनल में ब्रिटिश द्वीप समूह के कारण प्रथम उच्च ज्वार कम ऊंचाई के होते हैं, क्योंकि तब केवल इंग्लिश चैनल का जल ही उठता है। कुछ देर बाद अब रोधित जल भी इंग्लिश चैनल में प्रवेश करता है, तथा अधिक ऊंचाई का ज्वार आता है। अतः एक ही ज्वार स्थान पर कुछ अंतराल पर दो ज्वार आते हैं। कच्छ की खाड़ी में भी प्रथम ज्वार कम ऊंचाई का होता है, जबकि 10 मिनट बाद आने वाला दूसरा ज्वार अधिक ऊंचाई का होता है। दूसरा ज्वार यहां की तटीय स्थलाकृति का परिणाम है।

भारत के कच्छ की खाड़ी में ज्वार की ऊंचाई सर्वाधिक होती है। विश्व में फण्डी की खाड़ी में सर्वाधिक उच्च ज्वार आते हैं। यहां ढाल एवं गहराई अधिक है, जिसके कारण जल में अधिक उछाल आता है।

पुनः कुछ विशेष अवसरों पर ज्वार की ऊंचाई सामान्य से कुछ अधिक या कम होती है। यदि उच्च ज्वार के समय चक्रवात का आगमन हो तथा भूकंपीय तरंगे चले तो जल अधिक उछाल लेता है तथा तटीय क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जैसे न्यू-पापुआ गिनी में 1998 में आयी बाढ़ एवं 26 जनवरी 2005 को आने वाली सुनामी की तरंगों की ऊंचाई के अधिक होने का कारण ज्वारीय तरंगे भी थी। भारत की पूर्वी तटीय क्षेत्रों पर चक्रवात साथ ज्वार के प्रभाव से तटवर्ती क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। लेकिन यदि उच्च ज्वार के समय स्थलीय समीर चलती है, तो उच्च ज्वार की ऊंचाई सामान्य से थोड़ी कम होती है।

अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि उच्च और निम्न ज्वार का आगमन खगोलीय पिंडों के अंतराकर्षण से जुड़ा है, लेकिन ज्वार की बारंबारता, गहनता, ऊंचाई अन्य कारणों से भी जुड़ी है।

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