समुद्री जलधारा | महासागरीय धाराएं एवं प्रभाव

समुद्री जलधारा समुद्री जल की क्षैतिज गति है और समुद्री सतह पर परिभाषित मार्ग का अनुसरण करती है। यह हजारों किमी तक चलने वाली जल प्रवाह है, जो समुद्री जल के तापीय तथा रासायनिक गुणों को संतुलित रखने की दिशा में कार्य करती है। इसकी उत्पत्ति कई कारकों के अंतरक्रिया का परिणाम है। इन कारकों को हम चार वर्गों में रखते हैं।

  • खगोलीय कारक
  • वायुमंडलीय कारक
  • समुद्री कारक
  • उच्चावच एवं स्थलाकृति कारक

खगोलीय कारक


जल धाराओं की उत्पत्ति के तीन महत्वपूर्ण खगोलीय कारण हैं।

  •  पृथ्वी की घूर्णन गति
  •  गुरुत्वाकर्षण
  •  विक्षेप बल
  1. पृथ्वी की घूर्णन गति – पृथ्वी के घूर्णन के कारण पृथ्वी पर स्थित सभी पदार्थ तरल या ठोस पृथ्वी के घूर्णन की दिशा के विपरीत गतिशील हो जाते हैं। घूर्णन का सर्वाधिक प्रभाव निम्न अक्षांश क्षेत्रों में होता है, क्योंकि वहां घूर्णन की गति सर्वाधिक होती है। इसी कारण निम्न अक्षांशीय प्रदेश में समुद्री धाराएं पृथ्वी की घूर्णन की दिशा के विपरीत गतिशील रहती हैं, जैसे-विषुवतीय गर्म जल धाराएं।
  2. गुरुत्वाकर्षण – के प्रभाव के कारण समुद्री जल में नीचे बैठने की प्रवृत्ति होती है। क्योंकि समुद्र की तली ठोस है अतः यह नीचे नहीं जा पाते तथा नीचे ना जा पाने के कारण क्षैतिज अपवाह विकसित करते हैं।
  3. विक्षेप बल – पृथ्वी के घूर्णन से तरल एवं हल्के पदार्थों में पृथ्वी की सतह को छोड़ने की प्रवृत्ति होती है। फेरल के नियम से ऐसे बाहर फेंकते हुए पदार्थ उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाएं तरफ तथा दक्षिणी गोलार्ध में बाएं तरफ मुड़ जाती है। यही कारण है कि कोई भी जलधारा सीधी रेखा (दिशा) में गतिशील नहीं है। वे प्रचलित वायु के समान उत्तरी गोलार्ध में मूल दिशा से दाएं तरफ तथा दक्षिणी गोलार्ध में बाएं तरफ मुड़ जाती है, एवं उसी दिशा में अपवाहित होती हैं।

वायुमंडलीय कारक


जल धाराओं के विकास में वायुमंडलीय कारकों का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ता है। वायुमंडलीय कारकों में वायु प्रवाह की दिशा तथा गति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वस्तुतः विश्व की सभी प्रमुख जल धाराएं प्रचलित वायु की दिशा की ओर अपवाहित होती है। जैसे उत्तरी अटलांटिक महासागर में पछुआ वायु का मार्ग तथा उत्तरी अटलांटिक प्रवाह दोनों एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। पुनः उत्तरी पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी संमार्गी वायु तथा उत्तरी एवं दक्षिणी विषुवतीय जलधारा समान मार्ग का अनुसरण करती है। विषुवतीय प्रदेश में व्यापारिक पवनों के अभिसरण के फलस्वरुप एक विषुवतीय पछुआ वायु चलती है, इसी के अनुरूप विषुवतीय प्रतिरोधी गर्म जलधारा भी चलती है।

अन्य जलवायु कारकों में वायुदाब और वर्षा का भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उच्च वायुदाब प्रदेश में जल की ऊपरी सतह नीचे जाने की प्रवृत्ति रखती है, जबकि तुलनात्मक रूप से निम्न वायु भार प्रदेश में जल ऊंचाई पर होता है तथा वे उच्च वायु भार प्रदेश की ओर गतिशील होता है। जैसे उत्तरी अटलांटिक में कनारी शीतल जलधारा। पुनः वर्षा प्रदेशों में जल की आपूर्ति अधिक होती है। ऐसी स्थिति में जल का प्रवाह अन्य प्रदेश में होता है। विषुवतीय प्रदेशों में वर्षा जल की अधिकता के कारण ही इस प्रदेश से गर्म धाराएं दूसरे प्रदेश की तरफ अपवाहित होती हैं, जैसे- गल्फस्ट्रीम। पेरू जलधारा को दक्षिणी चिली के भारी वर्षा से अधिक जल की प्राप्ति होती है।


समुद्री कारक


समुद्री कारकों में समुद्री जल का तापमान, दबाव, प्रवणता, लवणता तथा हिमशिला खण्डो का पिघलना भी महासागरीय जल में गति उत्पन्न करते हैं। वे समुद्री क्षेत्र जहां तापीय प्रभाव अधिक होता है, वहां समुद्री जल में फैलाव होता है। इसके विपरीत निम्न ताप और उच्च भार के क्षेत्र में समुद्री जल में नीचे जाने की प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्थिति में अधिक तापीय प्रदेश का जल निम्न या मध्य तापीय प्रदेश की ओर अपवाहित होता है, जैसे गल्फस्ट्रीम एवं क्यूरोशिवो गर्म जलधारा। अधिक गर्म जल में समुद्री दबाव कम होता है, तथा ठंडे जल में दबाव अधिक होता है।

अतः जो दाब प्रवणता उत्पन्न होती है, वही जल धाराओं की उत्पत्ति का कारण बनता है। अधिक लवणता के समुद्री जल तुलनात्मक रूप से अधिक घनत्व रखते हैं तथा उसमें भी बैठने की प्रवृत्ति रहती है। इसके विपरीत कम लवणता के जल में बैठने की प्रवृत्ति नहीं होती है, तथा वे अधिक लवणता के जल की तरह गतिशील हो जाते हैं, जैसे अटलांटिक महासागर से भूमध्य सागर की ओर जल प्रवाह।

उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों के समुद्र में बड़े-बड़े हिमशिला खंड होते हैं, उनके पिघलने से जल की आपूर्ति अचानक बढ़ जाती है। परिणाम स्वरूप ठंडी जलधारा उत्पन्न होती है, जैसे लैब्रोडोर और ओयाशिवो जलधारा। हिम के पिघलने से जब जल की मात्रा बढ़ जाती है, तो वे गतिशील हो जाते हैं। यह ठंडे जल धाराओं की उत्पत्ति का कारण है।


उच्चावच एवं स्थलाकृति कारक


स्थलाकृतिक संरचना का पर्याप्त प्रभाव समुद्री धाराओं पर पड़ता है। यह उनकी उत्पत्ति में सहायक नहीं है, लेकिन उनके दिशा निर्धारण में सहायक होते हैं। इसे संशोधक कारक भी कहा जाता है। जैसे अटलांटिक महासागर में उत्तरी विषुवतीय गर्म जलधारा का अपवाह क्षेत्र 0 डिग्री से 12 डिग्री उत्तरी अक्षांश के बीच है। लेकिन जब यह धाराएं मध्य कटक के पास आती है। तब इसकी दिशा उत्तर की तरफ मुड़ जाती है, और यह 25 डिग्री N अक्षांश तक प्रवाहित होती है। जब मध्य कटक की ऊंचाई में कमी आती है, तब ये धाराएं मध्यवर्ती कटक को पार कर पूर्व के मार्ग पर अर्थात 0 डिग्री से 12 डिग्री N अक्षांश के मध्य चलने लगती है।

तटवर्ती स्थल आकृतियों के प्रभाव से भी जलधाराएं संशोधित हो जाती हैं। जैसे दक्षिणी पूर्वी मानसूनी जलधाराएं तथा विषुवतीय जलधारा जो महाद्वीपीय स्थलाकृति के पास आते ही संशोधित हो जाती है। महाद्वीपीय अवरोध न होने के कारण दक्षिणी गोलार्ध में पश्चिमी वायु प्रवाह की जलधारा एक विश्व स्तरीय जलधारा है। यह एकमात्र जलधारा है जो विश्व स्तरीय जलधारा है और जो पूरे गोलार्ध में घूमती है। जबकि  विषुवतीय जलधाराएं तथा पछुआ वायु के प्रभाव से चलने वाली जलधाराएं स्थल आकृतियों द्वारा संशोधित होती है।

कई जल धाराओं पर द्वीपों की स्थिति का प्रभाव पड़ता है जैसे उत्तरी विषुवतीय जलधारा, उत्तरी अटलांटिक में कैरीबियन सागर की तरफ मूड़ती है, तो वहां अनेक द्वीपों की स्थिति के कारण वे कई भागों में विभक्त हो जाती है।

पुनः मेक्सिको की खाड़ी में द्वीपों की कमी आने पर वह धाराएं मिल जाती है तथा गल्फ स्ट्रीम जैसी जलधारा बनाती है। इसी प्रकार क्यूरोशिवो गर्म जलधारा ताइवान एवं जापान के द्वीपों के प्रभाव से संशोधित हो जाती है। अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है, कि जल धाराओं की उत्पत्ति विस्तार तथा दिशा निर्देशन क्रियाएं कई कारकों की अंतरक्रिया का परिणाम है।

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