ज्वालामुखी का अर्थ | ज्वालामुखी के प्रकार | ज्वालामुखी क्रिया से संबंधित स्थलाकृतियां

ज्वालामुखी का अर्थ


ज्वालामुखी क्रिया का तात्पर्य उस भूगर्भिक प्रक्रिया से है, जिसके अंतर्गत चट्टानी टुकड़े एवं लावा पदार्थ भूपटल की सतह पर ठोस रूप धारण कर विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण करते हैं।

ज्वालामुखी के प्रकार


लावा पदार्थ जो प्रक्रियाओं से सतह पर आते हैं : 

  1. दरारी उद्गार के द्वारा
  2. केंद्रीय उद्गार के द्वारा
  • दरारी उद्गार के द्वारा :  दरारी उद्गार के द्वारा क्षारीय लावा पतले दरारी मार्ग द्वारा धरातल पर आ जाता है। क्योंकि इसका गलनांक निम्न होता है। ये धरातल पर आकर वृहद क्षेत्र में फैल जाते हैं, जिससे ज्वालामुखी पठार का निर्माण होता है। इसे लावा पठार कहते हैं। भारत का दक्कन का पठार विश्व का वृहद लावा पठार है। USA का कोलंबिया का पठार एवं ब्राजील का पराना पठार भी लावा पठार ही है। लावा पठार में मेसा एवं बुटी जैसी स्थलाकृतियों का भी विकास होता है।
  1. मेसा (Mesa) :  जब लावा की परत का जमाव पूर्व स्थित चट्टानों पर होता है और यह टोपी के समान दिखाई देती है तो इसे ‘मेसा’ कहते हैं। यह मेज के आकार का होता है। मेसा आकार धरातलीय संरचना एवं अपरदन पर निर्भर करता है। मेसा मुख्यतः दो नदी घाटियों के मध्य स्थित होता है।
  2. बुटी :  लेकिन जब घाटियों का आकार बढ़ने लगता है, तब मेसा की आकृति छोटी होने लगती है। छोटा एवं संकुचित मेसा को बुटी कहते हैं।
  • केंद्रीय उद्गार के द्वारा :  केंद्रीय उद्गार के द्वारा अम्लीय लावा किसी छिद्र के माध्यम से सतह पर आता है, क्योंकि इसका गलनांक तापमान क्षारीय लावा से अधिक होता है, अतः यह गाढ़े एवं चिपचिपे होते हैं। फलत: इनका विस्तार कम क्षेत्र पर होता है। ये छिद्र के ऊपर पायरोक्लास्ट पदार्थों के साथ निक्षेपित एवं ठोस होकर सामान्यतः शंक्वाकार स्थलाकृतियों का निर्माण करता है। शंक्वाकार स्थलाकृतियों के निर्माण में पायरोक्लास्ट के साथ ही ज्वालामुखी धूल, राख और गैसीय पदार्थ का मिश्रण पाया जाता है। ज्वालामुखी उद्गार के समय भूपटलीय सतह के टूटने से जो चट्टान धरातलीय सतह पर आ जाते हैं उसे ही पायरोक्लास्ट कहते हैं। ज्वालामुखी उद्गार में भी विभिन्न प्रकार के आकार बनते हैं – ज्वालामुखी बम, लैपिली, प्यूमिस आदि। वृहद आकार के पायरोक्लास्ट को ब्रेसिया कहते हैं।

ज्वालामुखी क्रिया से संबंधित स्थलाकृतियां


ऊपर वर्णित पदार्थों के नीचे एवं ठोस होने से छिद्र को आधार मानकर विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है :

  • सिन्डर शंकु :  इसका विकास पायरोक्लास्ट से होता है, इसमें तरल और चिपचिपा लावे का योगदान नहीं होता है। तरल लावा पदार्थ छिद्र के अंदर ही रह जाते हैं। छिद्र के नजदीक बड़े चट्टानी टुकड़े एवं छोटे-छोटे टुकड़े राख एवं धूल दूर तक फैल जाते हैं। इसका ढाल क्रेटर की ओर अवतल होता है। जैसे – माउन्टनोवो (इटली) एवं जोरेल्लोपर्वत (मेक्सिको) इसके उदाहरण है।
  • अम्लीय गुम्दाकार शंकू :  जब उद्गार से निकला लावा काफी गाढ़ा चिपचिपा होता है, तो फैलाव अधिक दूर तक नहीं हो पाता तथा छिद्र के सहारे पायरोक्लास्ट का जमाव होता है। पुनः उसके ऊपर लावा का जवाब होता है। तीव्र ढाल वाले शंकु का निर्माण होता है। इसे स्ट्रांबोली प्रकार का शंकु भी कहते हैं, जैसे – रियूनियन दीप ज्वालामुखी।
  • क्षरीय लावा गुंबद :  जब छिद्र मार्ग से क्षारीय लावा का बहाव होता है, तो ये तरल होने के कारण दूर तक फैल जाते हैं। ऐसा सामान्यतः पतले भूपटल वाले क्षेत्र में होता है, जहां कम सिलिका युक्त लावा छिद्र से सतह पर आ जाता है। कम ऊंचाई के लावा गुंबद का निर्माण होता है। इसे हवाना प्रकार का लावा शंकु भी कहते हैं, जैसे हवाई दीप का शील्ड दीप।
  • मिश्रित लावा शंकु :  ये सामान्यतः अधिक ऊंचे होते हैं। इसमें पायरोक्लास्ट तथा लावा वैकल्पिक परत में पाए जाते हैं। इसे परतदार शंकु भी कहते हैं। सुषुप्त ज्वालामुखी क्षेत्र में ही मिश्रित ज्वालामुखी का विकास होता है, जैसे जापान का फुजियामा।
  • परिपोषिक शंकु :  जब ज्वालामुखी शंकु का अधिक विस्तार हो जाता है, तब मुख्य छिद्र की ऊंचाई में भी वृद्धि हो जाती है। जब उसी छिद्र से पुनः विस्फोट की प्रवृत्ति होती है, तब कुछ लावा सहायक छिद्र या उपछिद्र का विकास कर मुख्य शंकु की ढाल पर उपशंकु का निर्माण कर लेता है, क्योंकि इन सहायक शंकुओं को लावा की आपूर्ति मुख्य छिद्र से होती है, अतः इसे परिपोषित शंकु कहते हैं। जैसे USA का माउंट शस्ता, इटली का माउंट एटना, जापान का फुजियामा।
  • डाट गुम्बद :  जब लावा के जमाव से ज्वालामुखी का मुख्य छिद्र भर जाता है और ठोस रूप ले लेता है तो उसे ‘डाट’ या प्लग कहते हैं। पुनः जब लावा पदार्थ का दबाव ऊपर की ओर कायम रहता है तब वह तुलनात्मक दृष्टि से अधिक ऊंचा हो जाता है या अपरदन से डाट शेष रह जाता है। वस्तुतः क्रेटर के मध्य उठे हुए गुम्बदाकार स्थलाकृति को ही डाट गुंबद कहते हैं। जब डाट गुंबद की ढाल और ऊंचाई अधिक हो तो उसे ज्वालामुखी ग्रीवा कहते हैं, यह ज्वालामुखी पाइप में मैग्मा का जमाव है, जैसे USA का माउंट टेलर
  • घोंसलादार काल्डेरा :  इसे शंकु में शंकु भी कहते हैं। जब एक शंकु या काल्डेरा के अंदर एक से अधिक काल्डेरा या शंकुओं का विकास हो जाता है, तब इसे घोंसलादार काल्डेरा कहते हैं। इसके लिए ज्वालामुखी क्रिया का बार बार होना आवश्यक है साथ ही बाद वाले ज्वालामुखी उद्गार की तीव्रता पहले वाले से कम होनी चाहिए तथा यह तीव्रता क्रमशः घटते रहना चाहिए। सुषुप्त ज्वालामुखी क्षेत्र में ही इसका विकास संभव है।
  • काल्डेरा और क्रेटर :  क्रेटर का विस्तृत भाग ही काल्डेरा है। कुछ विद्वानों के अनुसार काल्डेरा का विकास ज्वालामुखी के शांत होने के बाद क्रेटर के चारों ओर चट्टानों के धंसने से हुआ। एक मान्यता यह भी है कि धंसने के साथ ही अपरदन की क्रिया भी इसके विकास में सहायक है। जब क्रेटर का विकास होता है तब वृहद क्रेटर का निर्माण होता है, तो उसे कल्डेरा कहते हैं।
    जबकि ज्वालामुखी छिद्र के ऊपर अवस्थित गर्त ही क्रेटर है। यह कीपाकार होता है। ढाल 25 डिग्री से 30 डिग्री होता है। उपयुक्त दोनों ही परिस्थितियों में ज्वालामुखी शंकु के शीर्ष पर गलत या झील का विकास होता है क्रेटर की तुलना में काल्डेरा का झील विस्तृत होता है, जैसे भारत की लोनार झील, USA का ओरेगन झील इसके उदाहरण है।

ज्वालामुखी क्रिया से भूगर्भ के अंतर्गत भी लावा के जमकर ठोस होने से विभिन्न आकृतियों का निर्माण होता है। इन्हें अभ्यांतरित आग्नेय चट्टानों की श्रेणी में रखा जाता है, जैसे बैकोलिथ, लोपोलिथ, फैकोलिथ, सीडार, बांस, डाइक, सील व सीट इत्यादि।

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