हरित लेखांकन/Green A/C का अर्थ
आर्थिक विकास की प्रक्रिया में राष्ट्रीय उत्पाद को बढ़ाने में प्रकृति प्रदत संसाधनों – वन, संपदा, खनिज संपदा, जल संसाधनों आदि का लगातार अपक्षय होता रहता है। सामान्यतः कोई भी सरकार या देश राष्ट्रीय उत्पाद का आकलन करते समय अपक्षय हुए संसाधनों की लागत या उनकी भरपाई हेतु किए प्रयासों पर आई लागत पर विचार नहीं करता। हरित लेखांकन में इसी विसंगति को दूर करने का प्रयास किया गया है।
हरित लेखांकन/Green Accounting राष्ट्रीय आय आकलन की एक ऐसी विधि है, इसमें राष्ट्रीय उत्पाद की अभिवृद्धि में प्रयुक्त हुए प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की अपक्षय लागतों को राष्ट्रीय उत्पाद में से घटाया जाता है। जिन प्राकृतिक संसाधनों की पुनः पूर्ति की जा सकती है, उनकी पुनः पूर्ति हेतु किए गए प्रयासों पर आई लागतों को भी सकल राष्ट्रीय उत्पाद में से समायोजित किया जाता है।
सामान्य तौर पर जीडीपी का आकलन करते समय मानव विनिर्मित पूंजीगत अस्तियों के उपभोग को समायोजित किया जाता है। यदि इसमें प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन एवं उपभोग भी शामिल कर लिया जाए तो जो नए आंकड़े प्राप्त होंगे, वे पर्यावरणीय समायोजित सकल घरेलू उत्पाद या हरित जीडीपी कहलाएंगे। इन आंकड़ों की तुलना राष्ट्रीय आय के साथ करने पर यह पता लगाया जा सकता है कि किसी देश का विकास कहीं पर्यावरणीय क्षति की लागत पर तो नहीं हो रहा है।
दूसरे शब्दों में, ग्रीन अकाउंटिंग सिस्टम एक प्रकार का लेखा-जोखा है, जो परिचालन के वित्तीय परिणामों में पर्यावरणीय लागतों को हल करने का प्रयास करता है। यह तर्क दिया गया है कि सकल घरेलू उत्पाद पर्यावरण की उपेक्षा करता है और इसलिए नीति निर्माताओं को एक संशोधित मॉडल की आवश्यकता होती है जिसमें हरित लेखांकन या ग्रीन अकाउंटिंग सिस्टम का महत्वपूर्ण योगदान है। इस शब्द को पहली बार अर्थशास्त्री के प्रोफेसर पीटर वुड ने 1980 के दशक में लाया था।
भारत के पूर्व पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने पहली बार भारत में लेखांकन के मामले में हरित लेखांकन प्रणाली या ग्रीन अकाउंटिंग सिस्टम प्रथाओं को लाने की आवश्यकता और महत्व पर बल दिया था। [ Google Update ]