स्वदेशी आन्दोलन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन का था। ‘स्वदेशी’ का अर्थ है – ‘अपने देश का’। इस रणनीति का मुख्य उद्देश्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह सच है अगर किसी देश को परास्त करना है तो उस देश की आर्थिक ताकत को ख़तम करना होगा। यह अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था।वर्ष 1905 के बंग-भंग या बंगाल विभाजन विरोधी जनजागरण से स्वदेशी आन्दोलन को बहुत बल मिला। यह 1911 तक चला और गाँधी जी के भारत में आने से पूर्व सभी सफल आन्दोलनों में से एक था। अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आन्दोलन के मुख्य उद्घोषक थे। जिन्होंने इस आंदोलन को बल प्रदान किया। आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया। उन्होने इसे ‘स्वराज की आत्मा’ कहा है।
भारत में स्वदेशी आन्दोलन
जब 1905 में (लॉर्ड कर्ज़न द्वारा) बंगाल के विभाजन के बाद, बंगाल विभाजन के विरोध में देश में अंग्रेजी सरकार को जबाव देने के लिए इस आंदोलन को ज्यादा उजागर किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य अपने देश की वस्तु अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना था। यद्यपि स्वदेशी का यह विचार बंग-भंग से बहुत पुराना है। भारत में स्वदेशी का पहले-पहल नारा बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘वंगदर्शन’ 1872 ई. में ही विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था-“जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है।”
इसके बाद भोलानाथ चन्द्र ने 1874 में शम्भुचन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित ‘मुखर्जीज़ मैग्जीन’ में स्वदेशी का नारा दिया था।
‘स्वदेशी आंदोलन का विचार लोगो के मन में कांग्रेस के आने से पहले ही आ गया था, मगर जब 1905 ई. में बंग-भंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। उसी समय कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में अपने विचार दिए। स्वदेशी आन्दोलन भारतीय पूंजीपतियों के लिए बड़ा ही लाभकारी सिद्ध हुआ और उन्होंने भी इस आंदोलन को बढ़ावा दिया।
इन्हीं दिनों जापान ने रूस पर विजय प्राप्त की। उसका असर सारे पूर्वी देशों पर हुआ। भारत में बंग-भंग का विरोध तो चल ही रहा था । अब विदेशी वस्तु बहिष्कार आन्दोलन ने भी बल पकड़ा। वंदे मातरम् इस युग का महामन्त्र बना। 1906 के 14 -15 अप्रैल को स्वदेशी आन्दोलन के गढ़ वारीसाल में बंगीय प्रादेशिक सम्मेलन होने का निश्चय हुआ। यद्यपि इस समय वारीसाल में बहुत कुछ दुर्भिक्ष की हालत थी, फिर भी जनता ने अपने नेता अश्विनी कुमार दत्त को धन-जन से इस सम्मेलन के लिए सहायता दी। उन दिनों सार्वजनिक रूप से ‘वन्दे मातरम्’ का नारा लगाना गैर कानूनी था। प्रशासन ने वंदे मातरम का नारा लगाने पर सजा का प्रावधान रखा। किन्तु उग्र दल ने इसे स्वीकार नहीं किया। ज्यों ही प्रतिनिधि सभा स्थल में जाने को निकले, त्यों ही उन पर पुलिस टूट पड़ी और लाठियां बरसाने लगी। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर 200 रुपया जुर्माना हुआ। पहले दिन किसी तरह अधिवेशन हुआ, पर अगले दिन पुलिस कप्तान ने आकर कहा कि यदि “वन्दे मातरम्” का नारा लगाया गया तो सभा बन्द कर दी जायेगी। लोग इस पर राजी नहीं हुए, इसलिए अधिवेशन यहीं समाप्त हो गया। पर उससे जनता में और जोश बढ़ा। 30 जुलाई, 1921 को ‘The Bombay Chronical’ में ‘विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार’ का विज्ञापन प्रकाशित किया गया।
लोकमान्य तिलक और गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे भी इस सम्बन्ध में कलकत्ता पहुँचे और बंगाल में भी शिवाजी उत्सव का प्रवर्तन किया गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसी अवसर पर ‘शिवाजी‘ शीर्षक से प्रसिद्ध कविता लिखी। 10 जून को 30,000 कलकत्ता वासियों ने लोकमान्य तिलक का विराट जुलूस निकाला। इन्हीं दिनों बंगाल में बहुत से नये समाचार पत्र (हिताबादी, संजीवनी और बंगाली) के माध्यम से विचारों का प्रसार किया गया, जिनमें ‘वन्दे मातरम्’ और ‘युगान्तर’ प्रसिद्ध हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा ‘आमार शोनार बांग्ला’ की रचना की गई। तथा लोगों ने एकता के प्रतीक के रूप में एक-दूसरे के हाथों में राखी बांँधी।
अरविन्द के छोटे भाई वारींद्र कुमार घोष ने बंगाल में क्रांतिकारी दल स्थापित किया। इसी दल की ओर से खुदीराम बोस ने जज किंग्सफोर्ड के धोखे में कैनेडी परिवार को मार डाला, कन्हाईलाल ने जेल के अन्दर मुखबिर नरेन्द्र गोसाई को मारा और अन्त में वारीद्र स्वयं अलीपुर षड्यन्त्र में गिरफ्तार हुए। उनको तथा उनके साथियों को लम्बी सजाएँ हुईं।
अगर देखा जाये तो, यह आंदोलन मुख्य रूप से बंगाल तक ही सीमित था, लेकिन भारत के कुछ हिस्सों में भी इसका असर देखा गया जैसे :
- बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में पूना और बॉम्बे में
- लाला लाजपत राय और अजीत सिंह के नेतृत्व में पंजाब में
- सैयद हैदर रजा के नेतृत्व में दिल्ली में
- मद्रास में चिदंबरम पिल्लई के नेतृत्व में
बंगाल विभाजन रद्द होना
वर्ष 1911 में दिल्ली दरबार में लाॅर्ड हार्डिंग द्वारा बंगाल विभाजन को मुख्य रूप से क्रांतिकारी आतंकवाद पर अंकुश लगाने हेतु रद्द कर दिया गया था। बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग कर दिया गया तथा असम को एक अलग प्रांत बना दिया गया। मुस्लिम वर्ग इस घोषणा से खुश नहीं था, क्योंकि अंग्रेज़ों ने अपनी प्रशासनिक राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया, क्योंकि यह स्थान मुस्लिम गौरव से जुड़ा था। जिसके चलते यहाँ बहुत परिवर्तन आना जाहिर था जो मुस्लिम समाज के विरुद्ध था। मगर स्वदेशी आन्दोलन नहीं रुका, अपितु वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में परिणत हो गया।