भारत में आर्थिक सुधार | आर्थिक सुधार | भारत में LPG

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत एक पिछड़ा एवं अल्प विकसित देश था, जो मूल्यत: कृषि प्रधान देश था। जिसका औद्योगिक आधार कमजोर था। जिसमें भारी बेरोजगारी विद्यमान थी। जिसमें आधार संरचना सुविधाएं नाममात्र थी। अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक भारी धक्का लगने की जरूरत थी। यही कारण था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 40 वर्ष यानी 1951 से 1990 तक भारत में आर्थिक विकास के लिए किसी एक नीति का अनुसरण नहीं किया गया, बल्कि विकास के अनेक मार्गो को आजमाया गया।
परिणामत: अर्थव्यवस्था में किए गए इन प्रयोगों के वंचित परिणाम नहीं निकले। स्वतंत्रता के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार को औद्योगिक नीति 1956 के द्वारा केंद्रीय स्थान प्रदान किया गया। आर्थिक चिंतकों को यह अपेक्षा थी कि सार्वजनिक क्षेत्र, आर्थिक विकास के लिए एक इंजन का कार्य करेगा, किंतु 1970 के दशक के मध्य से ही उनका मोहभंग होना आरंभ हो गया और 1980 का दशक आते-आते इसके प्रति विरोध संगठित हो गया।

1980 के दशक में स्वतंत्रता के बाद से चली आ रही परंपरागत नीतियों में वर्तमान की आवश्यकता महसूस की जाने लगी, परंतु सरकार अभी कोई स्पष्ट निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थी। इधर 1980 के दशक के दौरान ही समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के मायाजाल टूटने के कारण विश्व में मिश्रित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति मोहभंग होने की प्रक्रिया त्वरित हो गई। 80 के दशक में ही पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारवादी प्रवृत्ति का प्रवेश हुआ।

1980 में नई औद्योगिक नीति घोषित की गई। जिसके द्वारा उद्योग को गति देने के लिए ₹15 करोड़ के मूल्य की स्थायी संपत्तियों वाले उद्योगों को लाइसेंस से पूर्ण रूप से मुक्त कर दिया गया। निवेश को आकर्षित करने के लिए फेरा कानूनों में उदार किया गया। इसके अतिरिक्त सभी स्रोतों से उदारतापूर्वक विदेशी पूंजी उधार ली गई। यही नहीं अप्रवासी भारतीयों ने देशभक्ति का परिचय देते हुए विदेशी मुद्रा भंडार को सुदृढ़ करने में बहुत योगदान दिया। 1984 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो परंपरागत नीति में परिवर्तन के विषय में स्पष्ट घोषणा की गई, लेकिन इसका दायरा सीमित रखा गया।

परिणाम यह हुआ कि 70 के दशक में जो वृद्धि दर 3.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, वह 80 के दशक में बढ़कर 5.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष हो गई। आयातो के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा की राशि संतोषजनक थी। इसके बावजूद 80 के दशक के दौरान अपनाई गई नीतियों में कुछ कमजोरियां दृष्टिगोचर होती है। इन नीतियों ने वृद्धि को प्रोत्साहन तो दिया, फिर भी ये नीतियां आंतरिक और बाहरी ऋणों पर निर्भर थी।

1991 का आर्थिक संकट

1991 में भारत को एक महान आर्थिक संकट के दौर से गुजरना पड़ा। अनेक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, स्वतंत्रता के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में यह सबसे गंभीर आर्थिक संकट था। वास्तव में जिन आर्थिक समस्याओं ने 1991 में संकट का रूप लिया था। वह अचानक नहीं उपस्थित हुई थी। बल्कि काफी वर्षों से अर्थव्यवस्था में मौजूद थी। दरअसल 1980 के दशक में अर्थव्यवस्था का जिस लापरवाही के साथ समष्टि प्रबंधन किया गया, उसके कारण ही समष्टि आर्थिक संतुलन उत्पन्न हो गया। इसके अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित नकारात्मक प्रभाव पड़े :
    1. राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 5 प्रतिशत से बढ़कर 8.5 प्रतिशत से अधिक हो गया।
    2. राजस्व घाटा वर्ष (1981-82) में सकल घरेलू उत्पाद 0.2 से बढ़कर 3.5 प्रतिशत हो गया।
    3. चालू लेखा घाटा (बाहरी भुगतान में) 1.2 प्रतिशत से बढ़कर 2.5 प्रतिशत हो गया।
सरकार के राजस्व और व्यय में बढ़ते हुए अंतर से निरंतर बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा उत्पन्न हुआ जिसे बड़ी मात्रा में घरेलू लोक ऋण के रूप द्वारा पूरा किया गया। इतना ही नहीं, समग्र अर्थव्यवस्था की आय और व्यय में निरंतर बढ़ते हुए अंतर के फलस्वरुप भुगतान संतुलन के चालू खाते में भारी घाटा उत्पन्न हुआ, जैसे विदेशी ऋण के द्वारा पूरा किया गया। अर्थशास्त्री दीपक नैयर के अनुसार, राजकोषीय स्थिति में आंतरिक असंतुलन और भुगतान स्थिति में बाहरी असंतुलन अर्थव्यवस्था के समष्टि प्रबंधन में विवेक के अभाव द्वारा परस्पर घनिष्ठ रूप से संबद्ध थे। वस्तुतः 1980 के दशक में इस बात को बिना समझे साधनों से कहीं ज्यादा खर्च करते हुए, अर्थव्यवस्था को चलाने की कोशिश की गई थी और इसके फल स्वरुप अर्थव्यवस्था पर गंभीर संकट छा गया। 
1990 के खाड़ी संकट ने भारत की समष्टि आर्थिक समस्याओं को और बढ़ा दिया। दूसरी ओर भारतीय राजनीतिक स्थिति भी अस्थिर थी। खाड़ी के देशों में संकट के कारण अंतरराष्ट्रीय वातावरण में परिवर्तन से गंभीर विदेशी मुद्रा का संकट उत्पन्न हुआ। खाड़ी देशों को होने वाला भारतीय निर्यात लगभग समाप्त हो गया, जिसके परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा के प्रभाव में अप्रत्याशित रूप से कमी आयी। प्रेषित धन, जो अप्रवासी भारतीयों द्वारा खाड़ी देशों से आते थे, समाप्त हो गए।
     
पेट्रोलियम तेल तथा स्नेहक या लुब्रिकेंट पदार्थों के आयात का बिल बढ़ गया। दूसरी ओर राजनीतिक क्षेत्र अस्थिरता ने पूंजी पलायन को प्रोत्साहित किया और अंततः इन सभी कारकों के संयुक्त प्रभाव से विदेशी मुद्रा कोष खाली हो गया। अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में भारत के साख को काफी धक्का लगा। अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक बैंकों ने नए ऋण देने से मना कर दिया। ऋण मूल्यांकन एजेंसियों ने भारत के अस्तित्व का मूल्यांकन कम करके किया। वर्ष 1991 के मध्य से भारत अपनी किस्तों का भुगतान न करने के कारण कटघरे में खड़ा होने के कगार पर आ गया। इससे सरकार की भुगतान शेष के प्रबंधन की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया। भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में जून, 1991 में पहली बार भुगतान शेष की समस्या गंभीर समस्या के रूप में उत्पन्न हुई। संक्षेप में इन आर्थिक संकट के स्पष्ट तीन रूप थे – 
  1. भारी राजकोषीय घाटा
  2. बड़ी मात्रा में भुगतान संतुलन के चालू खाते में घटा
  3. बढ़ती हुई मुद्रास्फीति
आंतरिक तथा बाहरी विश्वास को वापस स्थापित करने के लिए समष्टि आर्थिक उपाय और ढांचागत सुधारों की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। समष्टि आर्थिक उपाय व्यापक होते हैं। यह पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में राजकोषीय नीति, मौद्रिक नीति, विनिमय दर नीति तथा मजदूरी-आय नीति में परिवर्तन ही वे उपाय हैं, जो समष्टि आर्थिक संतुलन को स्थिर अथवा अस्थिर करते हैं। ढांचागत सुधारों के संदर्भ में व्यापार नीति, औद्योगिक नीति, सार्वजनिक क्षेत्र नीति, निदेशक कीमतों की नीति, शुल्क नीति तथा कारक-बाजार नीति आदि उल्लेखनीय हैं। अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए इन मुख्य नीतियों में सुधारों का सुझाव दिया गया, जो उस समय की बहुत बड़ी आवश्यकता थी।

आर्थिक सुधार की नीतियां

भारतीय अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिए दो चरणों में प्रयास किया गया –
प्रथम चरण (1985-90 ईसवी तक) :
1984 में प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री राजीव गांधी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिए आर्थिक नीतियों में नई प्रवृत्तियों का समावेश किया। अर्थव्यवस्था में नई प्रवृत्तियों को सम्मिलित करने का सुझाव दिया गया। वह निम्न थी – 
  1. उत्पादिता में सुधार 
  2. आधुनिक तकनीक को आत्मसात करना और क्षमता के पूर्णता प्रयोग को एक राष्ट्रीय अभियान का रूप देना।
राजीव गांधी द्वारा आर्थिक क्षेत्र में किए गए नीति संबंधी परिवर्तनों में औद्योगिक लाइसेंस नीति निर्यात-आयात नीति, टेक्नोलॉजी उन्नति, प्रतिबंधों को हटाने और राजकोषीय एवं प्रशासनिक नियमन प्रणाली के सरलीकरण शामिल थे। इन सारे परिवर्तनों का उद्देश्य निजी क्षेत्र के लिए एक अवाध वातावरण तैयार करना था, ताकि अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए निजी क्षेत्र के विनियोग को एक जबरदस्त प्रोत्साहन प्राप्त हो सके तथा जिसके फलस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था का तीव्र गति से विकास हो सके।
इस संबंध में सरकार द्वारा नियम उपाय किए गए –
  • बड़े व्यापारिक घरानों पर परिसंपत्ति की अधिकतम सीमा ₹20 करोड़ से बढ़ाकर ₹100 करोड़ दी गई।
  • सीमेंट पर से नियंत्रण हटा लिया गया और बहुत सी इकाइयों को निजी क्षेत्र में अतिरिक्त लाइसेंस क्षमता की स्वीकृति दे दी गई।
  • खुले रुप में बेचे जाने वाली चीनी की मात्रा बढ़ा दी गई।
  • नई वस्त्र नीति 1985 ने लाइसेंस : उद्देश्यों के लिए कारखाना पावर लूम और हथकरघा क्षेत्र में भेद को लगभग समाप्त कर दिया गया और उसके साथ-साथ प्राकृतिक एवं संश्लिष्ट तंतुओं में भेद भी समाप्त कर दिया गया।  
  • जनवरी, 1985 से लाइसेंसों के विस्तृत वर्गीकरण की योजना लागू की गई। जिसके अधीन दो पहियों की गाड़ियों के निर्माताओं के कुल लाइसेंस प्राप्त क्षमता के भीतर 350 CC इंजन क्षमता तक किसी भी प्रकार के दो पहियों की गाड़ी, स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि बनाने की इजाजत दी गई। बाद में इसे चार पहियों वाली गाड़ियों पर भी लागू किया गया।
  • इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग को MRTP कानून से मुक्त कर दिया गया।
दूसरा चरण :
प्रथम चरण में लागू किए गए सुधारों के इच्छित परिणाम प्राप्त नहीं हुए। व्यापार घाटा कम होने के बजाय बढ़ गया। परिणामत: देश को एक गंभीर भुगतान शेष की स्थिति का सामना करना पड़ा। भारत ने विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भारी ऋण देने का आवेदन किया ताकि देश को आर्थिक संकट से बचाया जा सके। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने ऋण देने के साथ-साथ भारत को अपनी अर्थव्यवस्था में स्थिरता कायम करने की शर्त रखी। कांग्रेस की नई सरकार ने 21 जून, 1991 को सत्ता संभालने के बाद अर्थव्यवस्था के स्थायीकरण संबंधी उपायों की घोषणा की ताकि आंतरिक और विदेशी विश्वास प्राप्त किया जा सके। इसे नई आर्थिक नीति भी कहा जाता है।

 नई आर्थिक नीति (1991) :

1990-91 की संकटग्रस्त आर्थिक परिस्थितियों से निपटने के लिए भारत सरकार ने आर्थिक सुधारों को गंभीरता से लागू करने का निर्णय लिया। सातवीं योजना के आरंभ से देश के आर्थिक क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण नीतिपरक परिवर्तन लाए गए हैं। जिनका संबंध अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों से है। आर्थिक क्षेत्र में यह परिवर्तन इतने बड़े और प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किए गए कि इन्हें नई आर्थिक नीति अथवा आर्थिक सुधार की संज्ञा दी जाती है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के संबंध में 1991 में दिए गए अनेक सरकारी नीति विषयक उद्घोषणाओं में इस नई आर्थिक नीति को स्पष्ट और ठोस रूप प्रदान किया गया है।
आर्थिक सुधारों के लिए 1991 में घोषित की गई नीतियों में दो प्रमुख आर्थिक तत्व – समष्टि आर्थिक स्थितिकरण और ढांचागत सुधार को महत्व दिया गया।
समष्टि आर्थिक स्थितिकरण : समष्टि आर्थिक स्थितिकरण के लिए निम्नलिखित क्षेत्रों में लक्ष्य निर्धारित किए गए –
    1.  राजकोषीय नीति
    2.  मौद्रिक नीति
    3.  कीमत नीति
    4.  सामाजिक नीतिया
ढांचागत सुधार : अर्थव्यवस्था के पूर्ति पक्ष को ठीक करने के लिए जुलाई 1991 में व्यापक ढांचागत सुधार लागू किए जाने के निर्णय लिए गए। इसके अंतर्गत उद्योग, व्यापार, विदेशी निवेश, वित्तीय तथा सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार कार्य लागू किए गए।
  1.  औद्योगिक नीति में सुधार
  2.  विदेशी विनिवेश नीति
  3.  व्यापार नीति में सुधार
  4.  वित्तीय क्षेत्र में सुधार
नई आर्थिक नीति की मुख्य विशेषताएं :  नई आर्थिक नीति राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए नई दिशाएं निर्धारित करती है। इसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित है –

(1) उदारीकरण :

यदि आर्थिक गतिविधियों पर सरकारी नीतियों द्वारा प्रतिबंध लगाए जाते हैं, तो इस प्रणाली को प्रतिबंधित नीति कहते हैं। जब इनमें से कुछ प्रतिबंध हटा दिए जाते हैं अथवा उनमें ढील दे दी जाती है, तो इस प्रणाली को उदारीकरण के नाम दिया जाता है। ताकि निवेश, उत्पादन, बिक्री आदि के सिलसिले में निजी क्षेत्र अधिक स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें। तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने जुलाई-अगस्त 1991 तथा बाद में अप्रैल, 1993 में एक नई औद्योगिक नीति की घोषणा की थी। जिसमें निम्नलिखित क्षेत्रों में उदारवादी प्रावधान थे अथवा प्रोत्साहन देने वाली विशेषताएं थी –
    1.  व्यवसाय को लाइसेंस
    2.  विदेशी निवेश
    3.  विदेशी तकनीकी समझौता
    4.  प्रतिष्ठानों का बिलियन अथवा सम्मेलन
    5.  सरल निर्माण नीतियां

(2) निजीकरण :

देश के बहुत से सार्वजनिक उद्यमों के भावशून्य प्रदर्शन ने सरकार का ध्यान निजीकरण की ओर आकर्षित किया। इस संदर्भ में सरकार ने यह महसूस किया कि वह अनेक ऐसे क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रूप से परिचालन कर रही है, जहां नहीं करना चाहिए था। यही नहीं सरकारी उद्यम अपने लक्ष्य के अनुरूप स्तर तक का प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे। नई आर्थिक नीति द्वारा निजी करण को प्रोत्साहन दिया गया। इस नीति से बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए भी पर्याप्त अवसर खुल पाए हैं। निम्न बातों से निजी का बोध स्पष्ट होता है।
  1. निवेश के बंटवारे में निजी क्षेत्र के भाग में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि की गई है।
  2. अनेक कार्यकलाप जो अभी तक सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित थे। वे निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए हैं।
  3. विदेशी कंपनियों के साथ किए जाने वाले सहयोग समझौतों के संबंध में नियमों को काफी ढीला और उदार बना दिया गया है।

(3) वैश्वीकरण :

वैश्वीकरण का सामान्य अर्थ देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना है। भारत के संदर्भ में वैश्वीकरण की प्रक्रिया में तेजी, भारत सरकार द्वारा जुलाई, 1991 में लागू की गई। नई आर्थिक नीति के परिणामस्वरूप आयी जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के दबाव के कारण अपनाई गई थी। वैश्वीकरण निम्नलिखित बातों की अनुमति देता है –
  1. वस्तुओं को मुक्त प्रवाह की अनुमति देने के लिए व्यापार के रुकावटों में कमी।
  2. प्रेरक वातावरण तथा प्रस्तावों की आसान स्वीकृतियों द्वारा सावधि निवेश के रूप में विदेशी पूंजी का मुक्त प्रवाह।
  3. तकनीकी का मुक्त प्रवाह।
  4. श्रम तथा मानव शक्ति की मुक्त गतिशीलता।
सरकार द्वारा घोषित पूरक व्यापार नीति में 20 मदों पर से इस शर्त को हटा दिया गया कि उनका आयात केवल सरकारी एजेंसियों के माध्यम से हो सकता है। इसके अलावा सरकार ने विभिन्न चरणों में धीरे-धीरे आयात शुल्क की अधिकतम दर को कम किया है। आयात शुल्क दरों में कटौती के अलावा, भारत सरकार ने, विश्व व्यापार संगठन के सदस्य होने के नाते, 1997 से शुरू होने वाले 6 वर्षों में मात्रात्मक प्रतिबंध को समाप्त करने की वचनबद्धता दी। सरकार ने 1991 में उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की सूची तैयार की। जिनमें विदेशी इक्विटी को 51 प्रतिशत तक करने की व्यवस्था थी। इस सीमा को बहुत से उद्योगों के लिए बाद में 74 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया।
अब अधिकतर क्षेत्रों में 100 प्रतिशत तक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की छूट है। जिन क्षेत्रों में विदेशी निवेश पर प्रतिबंध है, वह खुदरा या फुटकर व्यापार, परमाणु ऊर्जा, लॉटरी, व्यवसाय, जुआ का सट्टा।
 

महत्वपूर्ण तथ्य : 

  1. 1991 में आर्थिक सुधारों के समय भारत के प्रधानमंत्री नरसिंहराव तथा वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह थे।
  2. वर्ष 1991 में भारत को विदेशी ऋणों के बोझ का सामना करना पड़ा। जिसमें पेट्रोल, डीजल जैसी आवश्यक वस्तुओं के आयात हेतु सामान्य रूप से रखा गया विदेशी मुद्रा रिजर्व 110 करोड डॉलर था जोकि 15 दिन के लिए ही पर्याप्त था। इसके अलावा भारत के पास कोई भी धनराशि नहीं थी ताकि व्यापार हो सके।
  3. वर्ष 1948 में 23 देशों ने मिलकर एक संगठन गेट (GATT) का निर्माण किया जिसका उद्देश्य व्यापार को आसान बनाया था। बाद में गेट का नाम WTO या विश्व व्यापार संगठन रख दिया गया। भारत 1 जनवरी, 1995 में WTO का सदस्य बना।
  4. 1991 के बाद अर्थव्यवस्था के खुलने से FDI (Foreign Direct Investment) तथा FII (Foreign Institutional Investment) में तेजी से वृद्धि हुई। FDI से आशय भारतीय उद्योगों के निवेश से संबंधित है जबकि FII से आशय केवल पूंजी बाजार में निवेश से संबंधित है।
  5. 1991 के बाद परिवहन एवं रेलवे, परमाणु खनिजों का खनन, परमाणु ऊर्जा को छोड़कर निजी क्षेत्र को लाइसेंस और अन्य प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया गया। तथा प्रतिस्पर्धा व गुणवत्ता बढ़ाने हेतु सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण कर दिया गया।
  6. विगत सरकार ने 8 नवंबर, 2016 को मोदी सरकार द्वारा नोटबंदी का ऐलान किया गया तथा इसके तहत 86% करेंसी को अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिया गया।
  7. 2017 में डिजिटल इंडिया और कैशलैस इकोनामी पर जोर दिया गया।
  8. 1 जुलाई, 2017 में मोदी सरकार ने जीएसटी को लागू कर अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में बड़े बदलाव की नींव रखी थी।

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