किसी भी देश के लिए बेरोजगारी की समस्या एक गंभीर एवं जटिल समस्या है। अल्प विकसित और विकासशील देशों में इसकी स्थिति आमतौर पर अधिक विस्फोटक होती है। विशेषकर ऐसे देशों में जहां जनसंख्या बहुत बड़ी है और तेजी से बढ़ रही है। भारत के साथ यह बात विशेष रुप से लागू होती है। भारत में बेरोजगारी गरीबी की तरह एक अभिशाप है। यह देश में व्यापक रूप से फैली हुई है और समय के साथ निरंतर यह बढ़ती भी जा रही है। वस्तुतः बेरोजगारी का भारत में व्यापक विस्तार है। कोई भी क्षेत्रीय वर्ग इससे मुक्त नहीं है। यह गांव में भी नजर आती है और शहरों में भी। इसी प्रकार यह शिक्षित वर्गों के बीच ही देखने को मिलती है और अशिक्षित वर्गों के बीच भी। बेरोजगारी, आर्थिक समस्या भी है और सामाजिक भी। आर्थिक और सामाजिक दोनों ही रूपों में इसके परिणाम बहुत गंभीर और घातक होते हैं।
व्यापक बेरोजगारी की दशा में राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा कम हो जाती है। जिसका पूंजी निर्माण व्यापार व्यवसाय और प्रगति आदि पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बेरोजगारी बढ़ने पर आर्थिक कष्ट लोगों की संवेदना और पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। यही नहीं सामाजिक सुरक्षा के अभाव में बेरोजगार व्यक्ति प्राय: चोरी, डकैती, बेईमानी, शराब खोरी तथा यहां तक की आत्महत्या तक करने के शिकार हो जाते हैं। मूल तथ्य यह है कि कोई व्यक्ति जो सिर्फ एक उपभोक्ता है परंतु उत्पादक नहीं है, वह एक अच्छा और जिम्मेदार नागरिक नहीं हो सकता। उत्पादक होने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति सामान्य अर्थ में कार्यरत हो या किसी के अधीन कार्य करें। सच कहूं तो पुराने जमाने में जिस प्रकार बेटी को एक अभिशाप माना जाता था, उसी प्रकार वर्तमान समय में किसी व्यक्ति के लिए बेरोजगारी एक अभिशाप से कम नहीं है।
बेरोजगारी का अर्थ एवं परिभाषा
जब हम बेरोजगार शब्द का प्रयोग करते हैं तो हम उन व्यक्तियों की ओर संकेत करते हैं जो 15 से 64 वर्ष की आयु के समूह में होते हैं। इस आयु समूह में आने वाले जो कार्य करने की इच्छा व योग्यता रखते हो, श्रम बल कहलाते हैं। इसी आयु समूह के लोग जो रोजगार में लगे होते हैं अर्थात रोजगार में लगे हुए श्रम बलों को कार्य बल कहते हैं। दूसरे शब्दों में श्रमबल के अंतर्गत आने वाला कोई व्यक्ति बेरोजगार तब माना जाता है, जब वह प्रचलित मजदूरी पर काम करने की इच्छा एवं योग्यता रखता हो, किंतु उसे काम नहीं मिलता, वह बेरोजगार कहलाता है और यह स्थिति बेरोजगारी कहलाती है।
मगर कुछ लोग स्वेच्छा से बेरोजगार होते हैं। वह भिक्षा मांग कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं या वे परजीवी जीवन को प्राथमिकता देते हैं। ऐसे लोगों को बेरोजगारों में शामिल नहीं किया जाता। उन्हें भी बेरोजगारों में शामिल नहीं किया जाता, जो केवल काम की इच्छा रखते हैं, पर उनमें योग्यता का अभाव होता है।
बेरोजगारी का स्वरूप :
भारत एक विकासशील किंतु अल्पविकसित देश है। इस कारण यहां बेरोजगारी का स्वरूप औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों से भिन्न है। भारत में बेरोजगारी का स्वरूप संरचनात्मक किस्म का है। यह देश के पिछड़े आर्थिक ढांचे के साथ संबंधित है और इस कारण यह दीर्घकालिक और स्थायी है। इसका अर्थ है कि देश में श्रमिकों की संख्या की तुलना में रोजगार की मात्रा न केवल कम है बल्कि यह किसी देश की अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई है। क्योंकि देश में पूंजी निर्माण की दर नीची है। इसलिए रोजगार की मात्रा भी कम है, जो थोड़ा बहुत काम धंधा है और जिसमें अधिकांश लोग लगे हुए हैं। वह इतना काफी नहीं है कि सबको उनकी क्षमता के अनुसार काम मिल सके।
अल्प विकास के संदर्भ में जब काम काज या नौकरियां उतनी रहती हैं अथवा उनमें नाममात्र की वृद्धि होती है। तब रोजगार की मात्रा लगभग स्थिर रहती है और वह भी निम्न स्तर पर क्योंकि हर व्यक्ति को पूरा काम नहीं मिल पाता। दूसरी ओर श्रमिकों की संख्या उपलब्ध रोजगार के अवसरों से न केवल अधिक होती है बल्कि वर्तमान जनसंख्या के कारण तेजी से बढ़ती रहती है। स्पष्ट है कि भारत में बेरोजगारी स्थायी और दीर्घकालिक है। इस दृष्टि से भारत में बेरोजगारी का मूल हल तेजी से आर्थिक विकास द्वारा ही संभव है।
बेरोजगारी के प्रकार
भारत में बेरोजगारी का स्वरूप संरचनात्मक है किंतु यह विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है। भारत में बेरोजगारी के विभिन्न रूप का वितरण इस प्रकार हैं –
- प्रच्छन्न बेरोजगारी : रेग्नर नर्क्स और आर्थर लुइस नेमीचंद बेरोजगारी की अवधारणा का विकास कृषि प्रधान देशों के संदर्भ में किया है। इनका मानना है कि कृषि प्रधान देशों में जितने भी लोग कृषि कार्य में लगे होते हैं। उन सभी का उत्पादन स्तर बनाए रखने के लिए इस व्यवसाय में लगा रहना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार की बेरोजगारी अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलती है। यहां सभी लोग ऊपरी तौर पर कृषि कार्य में लगे दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में सब लोगों के लिए पर्याप्त मात्रा में कृषि क्षेत्र में कार्य नहीं जुट पाता। क्योंकि इस प्रकार के लोगों की खेती में उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति का उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए ऐसे लोग उत्पादन स्तर को बनाए रखने के लिए अनावश्यक या फालतू होते हैं। यही फालतू या अनावश्यक श्रम जिसकी कृषि क्षेत्र में सीमांत उत्पादकता शून्य होती है, प्रच्छन्न बेरोजगारी कहलाती है।
- अल्प रोजगार : इसके अंतर्गत ऐसे श्रमिक आते हैं जिनको थोड़ा बहुत काम मिलता है और जिनके द्वारा वह थोड़ा बहुत उत्पादन में योगदान तो करते हैं। लेकिन इनको अपनी क्षमता अनुसार काम नहीं मिलता, या पूरा काम नहीं मिलता। उदाहरण स्वरुप एक इंजीनियर द्वारा दफ्तर के साधारण क्लर्क का कार्य किया जाना। ऐसे श्रमिक उत्पादन में योगदान तो करते हैं लेकिन उतना नहीं जितना कि वे कर सकते हैं। इसमें कृषि में लगे श्रमिक भी आते हैं। जिन्हें करने के लिए कम काम मिलता है। शहरों में भी ऐसे लोग होते हैं जो कुछ न कुछ काम करते हैं और उत्पादन कार्य में हाथ बढ़ाते हैं। लेकिन काम कम करने के कारण पूरी तरह रोजगार में लगे नहीं समझे जा सकते। इस प्रकार की स्थिति अल्प रोजगार स्थिति कहलाती है।
- मौसमी बेरोजगारी : कृषि कार्य में लगे बहुत से श्रमिक ऐसे होते हैं, जिन्हें पूरे वर्ष काम नहीं मिलता। इसका कारण यह है कि कृषि एक मौसमी व्यवसाय है। अर्थात कृषि में मौसम के अनुसार फसलें बोई और काटी जाती हैं। खाली मौसम में अक्सर कृषि में काम करने वाले कृषक और श्रमिक बेकार बैठे रहते हैं। जैसे फसल की कटाई के बाद और बुवाई से पहले। दूसरे शब्दों में भारत में बहुत कृषकों को वर्ष में कुछ समय ही काम मिल पाता है और शेष समय में वे बिल्कुल बेकार हो जाते हैं। इस प्रकार की बेरोजगारी को मौसमी बेरोजगारी कहा जाता है।
- खुली बेरोजगारी : खुली बेरोजगारी वह स्थिति है जिसमें श्रमिक काम करने के लिए तैयार होता है तथा उसमें काम करने की योग्यता भी होती है, परंतु उसे काम नहीं मिलता। इस प्रकार की बेरोजगारी खेतिहर मजदूरों में, शिक्षित व्यक्तियों में तथा उन लोगों में पाई जाती है जो गांव से शहरों में काम करने के लिए आते हैं, परंतु काम नहीं मिल पाने के कारण बेरोजगार पड़े रहते हैं।
- शिक्षित बेरोजगारी : शिक्षित बेरोजगार ऐसे श्रमिक हैं जिनके शिक्षण प्रशिक्षण में बड़ी मात्रा में संसाधन इस्तेमाल किए जाते हैं। और उनकी काम करने की क्षमता दूसरे से अधिक होती है किंतु उनको अपनी योग्यता अनुसार कार्य नहीं मिलता और वे बेरोजगार हो जाते हैं। भारत में शिक्षित बेरोजगारी एक गंभीर समस्या है। हाल ही में आया कोरोनावायरस के कारण बहुत से युवाओं को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। इस दौरान सरकार ने भी 10वीं और 12वीं में पढ़ रहे छात्रों को बिना किसी परीक्षा कराए अगली परीक्षा में प्रवेश करने का मौका दिया। इससे भी आने वाले समय में शिक्षित बेरोजगारी बढ़ जाएगी।
- औद्योगिक बेरोजगारी : इसके अंतर्गत उन व्यक्तियों को शामिल किया जाता है जो उद्योगों, खनिज, यातायात, व्यापार, निर्माण आदि व्यवस्थाओं में काम करने के इच्छुक हैं किंतु उन्हें काम नहीं मिल पाता। इसका कारण यह है कि भारत में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि हुई है और भारत में अभी इतने उद्योग स्थापित नहीं हुए हैं कि इन सारी बढ़ी हुई श्रमिक शक्ति को रोजगार उपलब्ध करा सके।
- चक्रीय बेरोजगारी : इसका संबंध आर्थिक गतिविधियों में चक्रिय परिवर्तनों से है। मंदी की चक्रीय अवस्था के दौरान बेरोजगारी की अधिक मात्रा हो सकती है। यह बेरोजगारी व्यापार चक्र के उस चरण से उत्पन्न होती है, जब व्यापार क्षेत्र में मंदी की स्थिति होती है। मांग में कमी इसका मुख्य कारण है।
- संरचनात्मक बेरोजगारी : संरचनात्मक बेरोजगारी वह स्थिति है जो देश की आर्थिक संरचना में परिवर्तन होने के कारण उत्पन्न होती है। विशेषकर (1) प्रौद्योगिकी में परिवर्तन (2) मांग के प्रतिमान में परिवर्तन से संबंधित।
- संघर्षात्मक बेरोजगारी : यह श्रमिकों की गतिशीलता में बाधा के कारण उत्पन्न होती है। वर्ष में कुछ समय के लिए श्रमिक बेरोजगार हो सकते हैं। क्योंकि एक काम से दूसरे काम में जाने में समय लगता है। इसे संघर्षात्मक बेरोजगारी कहा जाता है।
बेरोजगारी के कारण
भारत में बेरोजगारी की स्थिति अत्यंत गंभीर है। यह विकास को अवरुद्ध करता है। इस समस्या के समाधान के लिए इसके कारणों को जान लेना आवश्यक है। भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।
- धीमा आर्थिक विकास
- जनसंख्या में तीव्र वृद्धि
- कम बचत तथा निवेश
- कृषि एक मौसमी व्यवसाय
- कुटीर और लघु उद्योगों का पतन
- संयुक्त परिवार प्रणाली
- नई तकनीकों का प्रयोग
- शिक्षा प्रणाली में दोष
बेरोजगारी दूर करने के उपाय
बेरोजगारी दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं।
- उत्पादन में वृद्धि
- पूंजी निर्माण की ऊंची दर
- छोटे और ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहन
- जनसंख्या पर नियंत्रण
- औद्योगिक तकनीक में परिवर्तन
- शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन
- स्वरोजगार में लगे लोगों की अधिक सहायता
बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकार द्वारा अपनाए गए कार्यक्रम :
- जवाहर रोजगार योजना – (28 अप्रैल, 1989)
- रोजगार आश्वासन योजना – (2 अक्टूबर, 1993)
- स्वर्णजयंती शहरी रोजगार योजना – (1 दिसम्बर, 1997)
- संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना – (1 सितंबर, 2001)
- जयप्रकाश रोजगार गारंटी योजना – (2002-3)
- प्रधानमंत्री रोजगार योजना – (18 नवंबर, 1995)
- महिला स्वयं सिद्धा योजना – (12 जुलाई 2000)
- नरेगा अब मनरेगा – (2 फरवरी 2006)
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