भारतीय कृषि की विशेषताएं एवं समस्याएं

प्राचीन काल से ही कृषि भारत की प्रमुख आर्थिक क्रिया रही है। पिछले हजारों वर्षों के दौरान भौतिक पर्यावरण, प्रौद्योगिकी और सामाजिक सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के अनुसार खेती करने की विधियों में अनेक परिवर्तन हुए हैं। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक कृषि एक जीवन उपार्जन अर्थव्यवस्था थी अर्थात इसका प्रदर्शन बड़ा दयनीय था किंतु स्वतंत्रता के बाद अनेक कठिनाइयों के बावजूद कृषि में धीरे-धीरे प्रगति होनी शुरू हुई। आज भारतीय कृषि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में न केवल आत्मनिर्भर है, बल्कि निर्यात भी करती है। इतना ही नहीं यह विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल की आपूर्ति का महत्वपूर्ण स्रोत भी है। इसकी महत्ता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश की लगभग 55% जनसंख्या कृषि कार्य में संलग्न है और देश के लगभग 57% भूभाग पर कृषि की जाती है। यही नहीं भारतीय राष्ट्रीय उत्पाद का बहुत बड़ा भाग कृषि से प्राप्त होता है। सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान लगभग 15% है। राष्ट्रीय आय का इतना बड़ा भाग पैदा करने वाला यह क्षेत्र रोजगार और जीवन निर्वाह की दृष्टि से भी अधिक महत्वपूर्ण है। जनसंख्या के आधे से अधिक श्रमिक न केवल खेती पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर है बल्कि अन्य बहुत से लोग कृषि पदार्थों के व्यापार, परिवहन आदि का कार्य कर अपनी आजीविका कमाते हैं। इस प्रकार आप देख सकते हैं कि भारतीय कृषि देश के लोगों के लिए जीवन निर्वाह का सबसे महत्वपूर्ण साधन है। मगर वर्तमान समय में किसान एक ही बार में दो फसलों का उत्पादन कर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा रहे हैं। अगर देखा जाए तो आज के किसान पूर्व के किसानों के अपेक्षा काफी धनवान तथा विकसित है।

भारतीय कृषि की विशेषताएं

आजादी के समय भारतीय कृषि अत्यंत पिछड़ी अवस्था में थी। उसमें श्रम और भूमि की उत्पादकता कम थी। अधिकांश किसान पुराने रीति-रिवाजों से खेती करते थे। रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं के बराबर था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कृषि के स्वरूप को समझने के लिए उस समय की भूमि संबंधी कृषि जोतों का आकार, कृषि तकनीकों, कृषि सुविधाओं, ग्रामों में व्यापक ऋण ग्रहस्थता तथा महाजनी पूंजी की भूमिका इत्यादि पर विचार करना आवश्यक होगा। वस्तुत: भारतीय कृषि की अपनी अनेक विशेषताएं थी। इसके सहारे देश की कृषि के स्वरूप को समझा जा सकता है।

  1. कृषि क्षेत्र में विभिन्नता या विविधता : भारत एक विशाल देश है। भौगोलिक दृष्टि से देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्नता पाई जाती है। विभिन्न प्रकार की मिट्टी और जलवायु के कारण अंतर इतने अधिक है कि एक राज्य के कुछ जिलों के लिए उपर्युक्त कार्यक्रम अन्य राज्यों की दृष्टि से बिल्कुल अनुपयुक्त हो सकते है। एक ही गांव में कम अधिक उपजाऊ भूमि देखने को मिलती है। इतना ही नहीं विभिन्न राज्यों में उत्पादन संबंध अलग-अलग है। इसी प्रकार खेतों के आकार तथा उपविभाजन एवं अपखंडन की दृष्टि से भी क्षेत्रीय विभिन्नताएं है।
  2. अर्द्ध व्यापारिक खेती : भारत में खेती न तो पूर्णता निर्वाह खेती है, और न पूरी तरह से व्यापारिक। यह दोनों का मिश्रण है। इसलिए भारतीय खेती को प्रायः अर्ध-व्यापारिक खेती ठहराया जाता है। इस विभेद का महत्व इस बात में है कि जहां निर्वाह खेती की स्थिति में किसान अपनी आवश्यकतानुसार उत्पादन क्रिया चलाते हैं, वही व्यापारिक खेती के संबंध में उत्पादन का रूप आकार बाजार कीमतों के आधार पर निर्धारित किया जाता है।
  3. खेती के पुराने तरीके या तकनीक : भारत में प्रति हेक्टेयर या प्रति श्रमिक हर दृष्टि से देश में कृषि उत्पादकता का स्तर बहुत नीचा है। विकसित देशों की तुलना में यह एक तिहाई या एक चौथाई अथवा इससे भी कम बैठता है। इस पिछड़ेपन का कारण पुराने औजारों का प्रयोग तथा कृषि संगठन का पुराना तरीका है।
  4. भारी असमानताएं : कृषि क्षेत्र में मौजूद असमान्यताओं को भी इसके स्वरूप के संदर्भ में देखा जा सकता है। इसका स्पष्ट बोध खेती के आकार में व्याप्त विषमताओं से होता है। उदाहरण के लिए कुल खेतों में छोटे सीमांत किसानों की खेतों का भाग तो 7.8 प्रतिशत बैठता है, लेकिन कुल भूमि का यह केवल 32% ही ठहरता है। इसके विपरीत बड़े किसान मुश्किल से 2% बैठते हैं जबकि यह 17% भूमि पर खेती करते हैं।
  5. प्रकृति या वर्षा पर कृषि की निर्भरता : देश की कृषि को आजादी के 60 साल बीत जाने के बाद भी प्रकृति की ओर से अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है। आज भी भारतीय कृषि का अधिकांश भाग अनिश्चित वर्षा पर बहुत अधिक निर्भर है।
  6. महाजनों का क्षेत्रीय अधिकार : स्वतंत्रता से पहले भारतीय किसान अपनी वित्त संबंधी जरूरतों के लिए महाजनों पर निर्भर होते थे। इसलिए उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर महाजन उनका भरपूर शोषण करते थे। आजादी के बाद सरकार ने महाजनों की गतिविधियों पर नियंत्रण लगाने के उद्देश्य से कई ठोस कदम उठाये। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कदम था, वैकल्पिक संस्थाओं का विकास अर्थात सहकारी समितियां और कृषि विकास बैंक की स्थापना। परंतु बहुत से छोटे किसान खेतिहर मजदूर आज भी अपनी ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए महाजनों पर ही निर्भर रहते हैं, जिसके कारण उन्हें अत्यधिक ब्याज देना पड़ता है।
  7. सामंतीय उत्पादन व्यवस्था : स्वतंत्रता से पूर्व भारत में कृषि सामंती प्रणाली पर आधारित थी। जमीदार काश्तकार का तरह-तरह से शोषण करके अधिकतम लगान वसूलने की कोशिश में रहते थे। स्वतंत्रता के बाद सरकार ने बिचौलियों को समाप्त करने के लिए कुछ कदम उठाये, परंतु वे अपर्याप्त थे। जमीदारों ने केवल अपना रूप बदल लिया और भूमि स्वामी बन गए। आज भी इन लोगों का देश के बहुत बड़े भूमि क्षेत्र पर अधिकार है। ये लोग पट्टे पर खेती करने वाले काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों का शोषण करते हैं।

भारतीय कृषि की समस्याएं

भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके बावजूद यह अत्यंत पिछड़ी हुई अवस्था में है। देश की कृषि के पिछड़ेपन में अनेक आर्थिक, सामाजिक व प्राकृतिक आदि बातों का स्थान रहा है। कृषि पारिस्थितिकी तथा विभिन्न प्रदेशों के ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर देश की कृषि के समक्ष अनेक समस्याएं हैं, जिन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है।

  1. भूमि सुधारों की कमी : भूमि के असमान वितरण के कारण भारतीय किसान लंबे समय से शोषित है। औपनिवेशिक काल के दौरान, तीन भू-राजस्व प्रणालियों – महालवाड़ी, रैयतवाड़ी व जमीदारी में से जमीदारी प्रथा किसानों के लिए सबसे अधिक शोषणकारी रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भूमि सुधारों को प्राथमिकता दी गई। लेकिन ये सुधार कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में पूर्णतः फलीभूत नहीं हुए। अधिकांश राज्य सरकारों ने राजनीतिक रूप से शक्तिशाली जमीदारों के खिलाफ कठोर राजनीतिक निर्णय लेने में टाल-मटोल किया। भूमि सुधारों के लागू न होने के फलस्वरुप कृषि योग्य भूमि का असमान वितरण जारी रहा, जो कृषि के विकास के लिए बाधक सिद्ध होता रहा है।
  2. खेत का छोटा आकार : पिछड़ी हुई कृषि का एक बहुत बड़ा कारण है यहां के खेतों का छोटा आकार। भारत में सीमांत तथा छोटे किसानों की संख्या अधिक है। 60% से अधिक किसानों के पास 1 हेक्टेयर से छोटे खेत हैं और लगभग 40% किसानों की जोतों का आकार 0.5 हेक्टेयर से भी कम है।
  3. वित्तीय सुविधाओं का अभाव : कृषि कार्य के सुचारू रूप से संचालन एवं कृषि विकास के लिए वित्तीय ऋण की आवश्यकता पड़ती है। देश में वित्त संबंधी सुविधाओं का बड़ा अभाव रहा है और काफी सीमा तक आज भी है। प्रायः छोटे किसानों के समक्ष यह समस्या और भी जटिल है। पर्याप्त मात्रा में और ठीक समय पर उन्हें उधार नहीं मिल पाता। ऐसे किसानों को ऋण प्राप्ति के लिए स्थानीय साहूकार या महाजन पर निर्भर रहना पड़ता है। साहूकार लोग न केवल अधिक ब्याज लेते हैं बल्कि अनेक ढंगों से किसानों का शोषण भी करते हैं। इस दूर्व्यवस्था के कारण किसान समय पर कृषि कार्य हेतु आवश्यक चीजें नहीं खरीद पाते, जिसके फलस्वरूप उत्पादन कम होता है।
  4. अनिश्चित मानसून पर निर्भरता : भारत में कृषि क्षेत्र का केवल एक तिहाई भाग ही सिंचित है। शेष कृषि क्षेत्र प्रत्यक्ष रुप से मानसूनी वर्षा पर निर्भर करता है। मॉनसून की अनिश्चितता अनियमितता से गैर सिंचित क्षेत्र की सिंचाई प्रभावित होती है। दूसरी तरफ राजस्थान तथा अन्य क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम तथा अधिक अविश्वसनीय है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी काफी उतार-चढ़ाव पाया जाता है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखा एक सामान्य परिघटना है, लेकिन यहां कभी कभार बाढ़ भी आ जाती है।
  5. निम्न तकनीकी और अपर्याप्त निवेश : देश के किसानों में व्याप्त गरीबी और अज्ञानता, साधनों की अपर्याप्त उपलब्धि एवं निम्न तकनीक के कारण कृषि में उचित मात्रा में आवश्यक साधनों का निवेश नहीं हो पाता और उन्नत तौर तरीके व्यवहार में लाए जाते हैं। साधारणतया न तो उत्तम बीजों का प्रयोग होता है और न उन्नत तौर-तरीके अपनाए जाते हैं। सिंचाई के साधनों का भी अभाव है। आधुनिक कृषि में लागत बहुत आती है। सीमांत और छोटे किसानों में कृषि बचत बहुत कम तथा न के बराबर है। अतः वे कृषि में निवेश करने में असमर्थ होते हैं।
  6. कृषि में वाणिज्यकरण का अभाव : अधिकतर किसान अपनी जरूरत या स्वयं उपभोग हेतु फसलें उगाते हैं। इन किसानों के पास अपनी जरूरत से अधिक उत्पादन के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है। अधिकतर सीमांत तथा छोटे किसान खाद्यान्नों की कृषि करते हैं जो उनकी पारंपरिक जरूरतों को पूरा करती है। यही कारण रहा है कि कुछ निर्यातकों का हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है।
  7. कृषि योग्य भूमि का निम्नीकरण : भारत में कृषि भूमि का निम्नीकरण एक गंभीर समस्या है। सिंचाई और कृषि विकास की दोषपूर्ण नीतियों के कारण मृदा की उर्वरता में कमी आ रही है। यह समस्या सिंचित क्षेत्रों में और भी भयानक है। कृषि भूमि का एक बड़ा भाग जल आक्रांता, लवणता तथा मृदा क्षारीयता के कारण बंजर हो चुका है। अभी तक लवणता, क्षारीयता से लगभग 80 लाख हेक्टेयर भूमि कुप्रभावित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त कृषि में फसल चक्र न अपनाए जाने के कारण भी भूमि में विभिन्न पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इस प्रकार कृषि भूमि का अधिकांश निम्नीकरण से प्रभावित है।
  8. अन्य भौतिक कारण : भारत में कृषि के पिछड़ेपन के कई और कारण भी रहे हैं। देश में कृषि संबंधी अनुसंधान कार्य सीमित मात्रा में होते हैं और जो कुछ अनुसंधान कार्य होता भी है, वह उचित व्यवस्था के अभाव में सामान्य किसानों तक भली प्रकार नहीं पहुंच पाता। कृषि क्षेत्र में वर्तमान समय में जो वैज्ञानिक प्रगति हो रही है। उससे पूरा-पूरा लाभ उठाया जाना संभव नहीं हो पाता है। फलस्वरुप कृषि उत्पादकता का स्तर नीचे बना रहता है। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक संस्थाएं, रीति-रिवाज लोगों के धार्मिक विश्वास तथा दृष्टिकोण आदि बातें इस प्रकार की रही हैं कि विकास के लिए नए-नए उपाय करना एवं उन्हें अमल में लाना संभव नहीं होता। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योग-धंधों का अभाव, प्राकृतिक प्रकोप तथा फसलों की बीमारियां, दोषपूर्ण प्रशासन व्यवस्था और भ्रष्टाचार आदि अनेक कारण भी भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराए जाते हैं। 

कृषि विकास के उपाय

अंग्रेजी शासनकाल में कृषि को भारी धक्का लगा। अंग्रेजों की राजस्व संबंधी नीतियों से कृषि और किसान दोनों की स्थिति दयनीय हो गई। तकनीकी दृष्टि से भी कृषि में कोई खास सुधार नहीं हुआ। इस पूरी अवधि में लकड़ी का हाल खेती का मुख्य औजार रहा और उसे खींचने के लिए भी बैलों की आवश्यकता बनी रही। ब्रिटिश शासकों ने सिंचाई व्यवस्था में सुधार के लिए कोई ठोस कार्य नहीं किये। बड़ी संख्या में किसान जीवन निर्वाह के लिए ही खेती करते थे। न कहीं थोड़ा-सा कृषि का व्यवसायीकरण हुआ न तो सामान्य किसान की आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्तन हुआ और न ही गांव के जीवन में किसी तरह का सुधार हुआ। अंग्रेजी शासनकाल में अकालों की व्यापकता को कृषि क्षेत्र के अल्प विकास का पक्का प्रमाण माना जा सकता है। बीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने कृषि क्षेत्र की ओर कुछ ध्यान नहीं दिया। पर उससे कृषि में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हो सका। यही कारण रहा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कृषि विकास के लिए पर्याप्त प्रयास शुरू किए गए। खेती के कारणों की भांति कृषि विकास के उपायों को भी मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – संस्थागत उपाय और तकनीकी उपाय।

संस्थागत उपाय :

भूमि सुधार : औपनिवेशिक काल में कृषि क्षेत्र में उत्पादन की सामंती प्रणाली लागू थी। स्वतंत्रता के पूर्व लागू भू-धारण की तीन प्रणालियों – जमीदारी, महालवाड़ी और रैयतवाड़ी में जमीदारी प्रथा सबसे दोषपूर्ण सिद्ध हुई। जमीदारी प्रथा कृषि विकास और सामाजिक न्याय दोनों ही दृष्टि से अनुपयुक्त सिद्ध हुई। वास्तव में जमीदारी प्रथा शोषण पर आधारित प्रणाली थी। इसमें जमीदारों को किसानों से मनमाना लगान वसूल करने का अधिकार था। जमीदार किसानों से लगान के अतिरिक्त बेगार भी लेते थे। जमीदार से ऋण ले लेने पर तो किसान की स्थिति भू-दास जैसी हो जाती थी। स्थिति कभी-कभी इतनी भयावह हो जाती थी कि किसान लगान न दे पाने पर अथवा किसी अन्य कारण से काश्तकारों तथा उनके परिवार के लोगों को जमीदारों और उनके आदमियों के हाथों पिटना भी पड़ता था। वस्तुतः 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कृषि विकास में सबसे बड़ी बाधा कृषि क्षेत्र में इन मध्यस्थों की मौजूदगी थी। सच तो यह है कि जमीदारी प्रथा के कारण भारतीय गांव में कानूनी, आर्थिक और सामाजिक संबंधों की एक ऐसी व्यवस्था बन गई थी, जिसे कृषि विकास में संस्थागत बाधा के रूप में देखा जा सकता है।

  • भूमि सुधार कार्यक्रम
  • भूमि सुधार कार्यक्रम के उद्देश्य
  • भूमि सुधार संबंधी नीति
  • भूमि सुधार के क्षेत्र में प्रगति –
  1. भू-धारण प्रणाली
  2. भूमि की सीमाबन्दी
  3. खेतों की चकबंदी

निष्कर्ष : अनेक कारणों से भूमि सुधार का कार्य बहुत पिछड़ा हुआ है चौकी विकास और सामाजिक न्याय दोनों दृष्टि ओर से यह बहुत महत्वपूर्ण और आवश्यक है इसलिए इसमें तेजी से सुधार लाने के लिए निम्नलिखित उपाय करना आवश्यक है।

कृषि वित्त : कृषि क्षेत्र में विकास के लिए साज- सामान अथवा साधनों की आवश्यकता होती है। इसके लिए निवेश या वित्त की जरूरत होती है। क्योंकि उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक, कृषि उपकरण, सिंचाई के साधन आदि की पर्याप्त मात्रा में उचित समय पर व्यवस्था इसी के द्वारा हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि वित्त व्यवस्था जितनी कुशल होगी, एक सीमा तक उत्पादकता में उतनी ही वृद्धि होगी। सच तो यह है कि वित्तीय व्यवस्था के बिना कृषि विकास की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन कृषि की अपनी कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो इसकी वित्त संबंधी आवश्यकताओं को कृषि भिन्न क्षेत्रों की ऋण संबंधी आवश्यकताओं से अलग करती है और फिर कृषकों के उत्पादन और उपभोग की आवश्यकतानुसार कुछ इस प्रकार से जुड़ी है कि प्राय उन्हें एक दूसरे से अलग करना कठिन होता है इसलिए मोटे तौर पर किसानों के वित्त संबंधी आवश्यकताओं को उत्पादन और उपभोग दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

स्वतंत्रता के बाद सरकार ने गैर-संस्थागत तत्वों की गतिशीलता पर नियंत्रण लगाने के लिए कई कानून बनाए। विभिन्न राज्यों में कानून द्वारा साहूकारों के रजिस्ट्रेशन तथा लाइसेंस की व्यवस्था की गई। यहां तक संस्थागत स्रोतों का संबंध है, सबसे पहले स्थापित की जाने वाली संस्था सहकारी समितियां थी। 1951 में कुल कृषि वित्त में सहकारी समितियों का योगदान मात्र 3.1% था, जबकि गैर-संस्थागत स्रोतों या साहूकार का हिस्सा 92.7% था। 1969 में 14 मुख्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। 1980 में सरकार ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की। 1982 में कृषि और ग्रामीण विकास के राष्ट्रीय बैंक नाबार्ड की स्थापना की गई जोकि कृषि साख के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक शीर्ष संस्था है।

कृषकों को साख सुविधाएं प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार ने जून, 2000 में कई कदमों की घोषणा की। इस घोषणा के द्वारा 3 वर्षो के अंदर कृषि साख को दोगुना करने का लक्ष्य रखा गया। 1998-99 में सरकार ने किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड योजना भी शुरू की, ताकि किसान कम ब्याज पर बैंक से ऋण ले सके।

कृषि विपणन : कृषि विपणन का अभिप्राय मोटे तौर पर, किसी पदार्थों की बिक्री अथवा उसे उपभोक्ताओं तक पहुंचाने की क्रिया से है। कृषि पदार्थों की बिक्री उसी प्रकार आवश्यक है, जिस प्रकार उद्योगों से उत्पादित वस्तुओं का विक्रय। कहने का तात्पर्य यह है कि कृषि के उत्पादन कार्य को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादित वस्तु की बिक्री की जाए, इसके बिना वह उत्पादन कार्य अधूरा माना जाएगा। यह बात सभी प्रकार की उत्पादित वस्तुओं पर लागू होती है। लेकिन कृषि के लिए इसका विशेष महत्व है क्योंकि सभी प्रकार के विकास के लिए कृषि विकास एक आवश्यक और आधारभूत अंग है। देश की अर्थव्यवस्था की दृष्टि से कृषि पदार्थ कुल विनिमय में मात्रा का काफी बड़ा भाग है। Jobsupdate.in

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कृषि विपणन भारतीय कृषि के लिए गंभीर समस्या थी। सूती वस्त्र उद्योग उद्योग और चीनी उद्योग की स्थापना से व्यापारिक फसलों का महत्व बढ़ा। हरित क्रांति के बाद अधिशेष उत्पादन और शहरी जनसंख्या में वृद्धि से खाद्यान्नों के विपणन का भी महत्व अधिक हो गया। यही कारण रहा कि कृषि क्षेत्र में वर्षों से चली आ रही परंपरागत विपणन व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। अतः कृषि उत्पादन और किसानों की आय में वृद्धि लाने और देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए कृषि विपणन में सुधार आवश्यक है। कृषि विपणन प्रणाली में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं।

  1. नियंत्रित मंडियों की स्थापना
  2. गोदामों की समुचित व्यवस्था
  3. मंडी संबंधी सूचनाओं की व्यवस्था
  4. सौदाकारी क्षमता में वृद्धि
  5. कुशल परिवहन व्यवस्था

तकनीकी उपाय :

  1. कृषि का यंत्रीकरण
  2. उर्वरकों का प्रयोग
  3. उन्नत किस्म के बीजों एवं कीटनाशकों का प्रयोग
  4. सिंचाई के साधनों का विस्तार एवं विकास करना
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