What is Inflation | मुद्रास्फीति का अर्थ | मुद्रा स्फीति के कारण | मुद्रास्फीति के प्रभाव

आर्थिक जीवन में स्थिरता के साथ-साथ आर्थिक विकास के लिए वस्तुओं के मूल्य में स्थिरता का होना एक आवश्यक शर्त है। इसके विपरीत वस्तुओं के मूल्यों का लगातार ऊपर चढ़ना लोगों के आर्थिक जीवन ही नहीं, बल्कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर सकती है।

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कीमतों में उतार-चढ़ाव से अनिश्चितता का वातावरण बनता है जो विकास कार्य के लिए उपयुक्त नहीं है। वर्तमान समय में खुदरा बाजार की वस्तु के मूल्य में दिन पर दिन गिरावट होती नजर आ रही है। इस प्रकार वर्तमान समय में (जनवरी, 2024 के अनुसार) खुदरा बाजार में (भारत के संदर्भ में) मुद्रास्फीति महंगाई दर 5.10 प्रतिशत तक पहुंच गई है। यह महंगाई ग्रामीण क्षेत्र में ज्यादा एवं शहरी क्षेत्र में कम देखने को मिल रही हैं।

मगर अन्य देशों की बात करें तो इन देशों का हाल भारत से भी बुरा है। उदाहरण के लिए अमेरिका – 3.5 प्रतिशत, ब्रिटेन – 4.2 प्रतिशत, ब्राजील – 4.51 प्रतिशत, मिस्र – 5.4 प्रतिशत, पाकिस्तान – 8.1 and more प्रतिशत, रूस – 16 प्रतिशत तथा तुर्की – 3.0 and more प्रतिशत है।

मुद्रास्फीति का अर्थ एवं परिभाषा

मुद्रा प्रसार या मुद्रास्फीति वह अवस्था है जिसमें मुद्रा का मूल्य गिर जाता है और कीमतें बढ़ जाती हैं। आर्थिक दृष्टि से सीमित एवं नियंत्रित मुद्रास्फीति अल्पविकसित अर्थव्यवस्था हेतु लाभदायक होती है, क्योंकि इससे उत्पादन में वृद्धि को प्रोत्साहन मिलता है, किंतु एक सीमा से अधिक मुद्रास्फीति हानिकारक है।

प्रोफेसर पीगू के अनुसार, जब आय-सृजन करने वाली क्रियाओं की अपेक्षा मुद्रा आय अधिक तेजी से बढ़ती है, तब मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न होती है। मुद्रा-मांग और वास्तविक आपूर्ति के बीच में अंतराल को मुद्रा-अंतराल कहा जाता है। जैसे-जैसे अंतराल बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे कीमतों के सामान्य स्तर में वृद्धि होती रहती है।

अर्थशास्त्री प्रायः यह तर्क देते हैं कि मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के लिए बुरी नहीं है। जब कीमतें 2-3% वार्षिक दर पर बढ़ती हैं तो निवेश के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार होता है और इससे आय बढ़ने के साथ-साथ रोजगार का स्तर प्राप्त होता है। लेकिन जब कीमतें लगातार दीर्घकाल तक बढ़ती है तो आय और संपत्ति की असमानताएं बढ़ती है और निश्चित आय वाले वर्गों की क्रय शक्ति लगातार कम होती जाती है। वस्तुतः एक ओर देश की अर्थव्यवस्था नाजुक मोड़ पर पहुंच जाती है और दूसरी ओर जनसाधारण का आर्थिक जीवन कष्टप्रद हो जाता है।

मुद्रास्फीति मापक के सूचकांक

भारत में सामान्यता दो प्रकार के मूल्य सूचकांकों को उपयोग में लाया जाता है।

  • थोक मूल्य सूचकांक
  • उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

थोक मूल्य सूचकांक

थोक मूल्य सूचकांक साप्ताहिक तौर पर उपलब्ध होते हैं। इसे मुद्रास्फीति मापने का लोकप्रिय तरीका माना जाता है। भारत में थोक मूल्य सूचकांक का उद्देश्य रुपए की सामान्य क्रय शक्ति को मापना है। इसमें वे सभी वस्तुएं शामिल की जाती है जो महत्वपूर्ण एवं कीमत संवेदनशील है और जिनका क्रय-विक्रय भारत के थोक मूल्य विक्रय की मंडियों में होता है। थोक मूल्य सूचकांक में मुख्य खाद्य पदार्थ, कच्चे माल, अर्द्ध निर्मित वस्तुएं और निर्मित वस्तुएं शामिल की जाती है।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

भारत सरकार 3 नियम जनसंख्या समूह द्वारा वस्तुओं एवं सेवाओं के उपयोग के लिए तीन प्रकार के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक तैयार करती है।

  • श्रमिकोत्तर शहरी कर्मचारियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक
  • औद्योगिक कामगारों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक
  • कृषि श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

वास्तविक स्फीति के बारे में उपभोक्ता मूल्य कीमत सूचकांक, थोक कीमत सूचकांक की तुलना में, बेहतर जानकारी प्रदान करता है परंतु इसके आंकड़े अपेक्षाकृत अधिक विलंब से उपलब्ध हो पाते हैं। विश्व के अनेक देशों ने थोक मूल्य सूचकांक के स्थान पर उत्पादक मूल्य सूचकांक को अपना लिया है। मुद्रास्फीति मापने का इसे बेहतर पैमाना माना जाता है।

मुद्रास्फीति के कारण

भारत में मुद्रास्फीति के लिए उत्तरदायी कारणों की व्याख्या समष्टिगत स्तर में समस्त मांग और समस्त आपूर्ति का विवेचन करके की जा सकती है। आयोजन काल में मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धि के अलावा न केवल मांग पक्ष की ओर से विभिन्न कारकों का दबाव रहा है, बल्कि पूर्ति पक्ष की ओर से भी अनेक तत्वों का स्फीतिकारी कीमत वृद्धि में योगदान रहा है।

  1. लोक व्यय में वृद्धि : आजादी के बाद लोकतंत्र प्रणाली के कारण नई संस्थाओं का गठन हुआ तो लोक व्यय में वृद्धि होना स्वाभाविक था। योजना काल में केंद्रीय और राज्य सरकारों के खर्चों में निरंतर भारी वृद्धि हुई है। इस खर्चे का एक बड़ा भाग विकास मदों पर खर्च हुआ। विकास के बाद आय की वृद्धि से लोगों की मुद्रा आय में वृद्धि हुई, किंतु इसके साथ उपयोग वस्तुुओं के उत्पादन या आपूर्ति में वृद्धि नहीं हुई।
  2. घाटे का वित्त प्रबंधन : जब सरकार अपने खर्चे पूरे करने के लिए पर्याप्त मात्रा में राजस्व की व्यवस्था नहीं कर पाती तो वह बैंकिंग व्यवस्था से उधार लेकर अपने घाटे को पूरा करती है। साधन जुटाने की इस रीति को घाटे का वित्त प्रबंधन कहते हैं। कहने का अर्थ यह है कि योजनाओं के लिए वित्त प्राप्त करने के उद्देश्य से किया गया घाटा वित्तीयन ने भी कीीमतोों को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया है। वित्त प्राप्त करने के इस तरीके से मुद्रा की आपूर्ति बढ़ जाती हैै, और यदि इसके साथ वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति नहीं बढ़ती, तो इसके फलस्वरूप कीमतें बढ़ने लगती हैं।
  3. अनियमित कृषि समृद्धि : पिछले 60 वर्षों में कृषि क्षेत्र में यद्यपि कोई क्रांतिकारी समृद्धि नहीं हुई है तथापि इसमें संदेह नहीं है कि इस क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ है जिसकी वजह से खाद्यान्नों के उत्पादन में ढाई प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई है। लेकिन प्रथम पंचवर्षीय योजना काल को छोड़कर सामान्यतः कृषि उत्पादन उस दर से नहीं बढ़ा जिस दर से कृषि वस्तुओं, विशेषकर खाद्यान्नों की मांग बढ़ी। इस दौरान कृषि उत्पादन बढ़ने की दर स्थिर ही नहीं रही, बल्कि कुछ वर्षों में तो उत्पादन में कमी हुई। कृषि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि और इसमें हो रहे उतार-चढ़ाव कीमतों की बढ़ोतरी में बहुत हद तक जिम्मेदार रहे हैं।
  4. औद्योगिक उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि : 1991 के बाद की अवधि में औद्योगिक उत्पादन में व्यापक उतार-चढ़ाव होते रहे, जिससे अनिश्चितता का वातावरण बना रहा। औद्योगिक क्षेत्र में इस मंदी के कारण कई औद्योगिक वस्तुओं की कमी हुई, जिससे कीमतों पर दबाव बढ़ा।
  5. सट्टेबाजी और जमाखोरी की प्रवृत्ति : सट्टेबाजी और जमाखोरी की प्रवृत्ति भी मुद्रास्फीति को बढ़ावा देती है। जिन वर्षों में देश में उत्पादन गिरा उस समय जमाखोरी से वस्तुओं का अभाव और अधिक बढ़ गया और कीमतें तेजी से बढ़ने लगी। यद्यपि भारत में जमाखोरी हमेशा से होती रही है लेकिन सितंबर 1998 में कीमतों में हुई वृद्धि से इसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। दरअसल जमाखोरी उत्पादन और अंतिम उपयोग के बीच कई स्तरों पर पाई जाती है – उत्पादन के स्तर पर, थोक विक्रेता के स्तर पर, फिर फुटकर विक्रेताओं के स्तर पर और अंत में उपभोक्ताओं की संचयी प्रवृत्ति से मांग अपेक्षित बढ़ जाती है जबकि अन्य वर्गों की जमाखोरी से आपूर्ति में गिरावट आती है। इसके प्रभाव से कीमत वृद्धि की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है।
इन मुख्य कारणों के अलावा कुछ और भी कारण हैं, जिसने सामान्य कीमत स्तर को ऊपर उठाने में योगदान दिया। इसमें 3 प्रमुख उल्लेखनीय है।
  1. आयातित वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि
  2. जनसाधारण के उपभोग की वस्तुओं पर भारी कराधान
  3. प्रशासित कीमतों में वृद्धि

मुद्रास्फीति के प्रभाव या परिणाम

किसी अर्थव्यवस्था में निरंतर तेजी से बढ़ती हुई मुद्रास्फीति का प्रभाव अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है। इससे आर्थिक समृद्धि और आर्थिक विकास की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। देश की अधिकांश जनसंख्या अथवा जनसाधारण का जीवन स्तर गिरता है।

मुद्रास्फीति के प्रभाव या परिणामों को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है।

    1. मुद्रास्फीति से विभिन्न प्रकार के आर्थिक कार्यक्रम प्रभावित होते हैं। मूल्य वृद्धि से योजनाओं की कीमतें बढ़ जाती है।
    2. मुद्रास्फीति से केवल निवेश पर ही नहीं, बचत पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विशेषतः उस स्थिति में जब स्फीति की दर ब्याज की दर से ऊंची हो जाती है। ऐसी स्थिति में बचत करने से लाभ की बजाय हानि होती है। इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था की समृद्धि दर पर पड़ता है।
    3. मुद्रास्फीति से घरेलू कीमतें बढ़ती हैं, जिससे हमारा निर्यात महंगा हो जाता है और हमारे निर्यात में पतन आता है। दूसरी ओर घरेलू वस्तुओं के आयात में वृद्धि होती है। 
    4. जब मुद्रास्फीति के कारण लगातार दीर्घकाल तक कीमतें बढ़ती हैं, तो आय और संपत्ति की असमानताएं बढ़ती है। निश्चित आय वाले वर्गों की क्रय शक्ति लगातार कम होती जाती है। इसके विपरीत उत्पादक और व्यापारी भारी मुनाफा कमाते हैं अर्थात मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिलता है।
    5. कीमतों में वृद्धि में एकरूपता का अभाव देखने को मिलता है। कुछ खास वर्षों में किसी वस्तु एवं औद्योगिक वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है, जिसका प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है।
    6. भारत में खाद्य श्रमिक वर्ग द्वारा सर्वाधिक उपयोग की जाने वाली वस्तु है। खाद्यान्नों की कीमत बढ़ने से जीवन निर्वाह लागत बढ़ती है और इससे मजदूरी बढ़ने लगती है। मजदूरी बढ़ने से औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन लागत बढ़ जाती है, जिससे विनिर्मित वस्तुओं की कीमतें बढ़ती है और मुद्रास्फीति की दर और भी ऊंची हो जाती है। किंतु मजदूरी बढ़ने की दर वस्तुओं के मूल्य के बढ़ने की दर से कम ही रहती है। इसलिए श्रमिक वर्ग की वास्तविक आय घटती है और उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के बजाय बिगड़ती जाती है।

मुद्रास्फीति को रोकने के उपाय

भारत सरकार द्वारा मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के 

  •  मौद्रिक उपाय
  •  राजकोषीय नीति
  •  जमाखोरों, तस्करों और कालाबाजारी पर नियंत्रण …रपो रेट…
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