क्रांतिकारी भूगोल | रेडिकल भूगोल | उग्रवादी भूगोल | भूगोल में उग्रवादी विचारधारा

भूगोल में उग्रवादी चिंतन धारा का विकास आलोचनात्मक क्रांति के अंतर्गत 1960 के दशक के प्रारंभ में हुआ था। परिणामात्मक क्रांति की कमियां और सामाजिक समस्याओं के समाधान में असमर्थतों के प्रतिक्रिया स्वरूप भूगोल में नए चिंतन धाराओं की उत्पत्ति हुई, जिसे उग्रवादी विचारधारा कहा जाता है। इसके विकास में संयुक्त राज्य अमेरिका के क्लार्क विश्वविद्यालय के भूगोलवेत्ताओ, अमेरिका के हार्वे एवं पीट जैसे भूगोलवेत्ता का महत्वपूर्ण योगदान है।
1969 में क्लार्क विश्वविद्यालय में एंटीपोड नामक पत्रिका का प्रकाशन हुआ जिसमें सकारात्मक भूगोल की आलोचना करते हुए आर्थिक सामाजिक विकास के लिए नवीन दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया गया। यह विचारधारा कार्ल मार्क्स के चिंतन धाराओं के अनुरूप थी, हालांकि दोनों में यह मौलिक अंतर भी था।
मार्क्सवादी विचारधारा में संसाधनों के समान और न्यायोचित वितरण के द्वारा संतुलित विकास पर बल दिया गया था। जबकि अमेरिका के क्रांतिकारी भूगोलवेत्ताओं ने संसाधनों के वितरण की जगह पिछड़े क्षेत्रों के न्यायोचित विकास पर बल दिया था। इन्होंने संसाधनों का उपयोग पिछले क्षेत्रों के विकास के लिए करने के लिए प्रेरित किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में क्रांतिकारी भूगोल की शुरुआत का प्रमुख कारण संयुक्त राज्य अमेरिका के समाज में व्याप्त निराशा की भावना थी। वहां आर्थिक विकास की प्रक्रिया तीव्र होने के कारण आर्थिक समस्या नहीं थी, लेकिन सामाजिक समस्याएं बनी हुई थी। जैसे – नीग्रो या रेड इंडियन एवं यूरोपियन मूल के लोगों के मध्य आर्थिक विषमता एवं सामाजिक विषमता, पुनः फ्रेंच एवं ब्रिटिश लोगों के मध्य प्रजातीय तनाव की स्थिति, वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सैनिकों को मारा जाना और सरकार का इनके प्रति उदासीनता प्रतिक्रियावादी विचारधारा के लिए उत्तरदाई था।
इसी तरह अमेरिका में आर्थिक प्रगति के बावजूद सामाजिक राजनीतिक समस्याओं के बने रहने के कारण क्रांतिकारी भूगोल का विकास हुआ। इसके विकास में हार्वे एवं पीट ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। डेविड हार्वे ने 1973 में सोशल जस्टिस एंड द सिटी पुस्तक लिखी, जिसमें इन्होंने मार्क्सवादी चिंतन को सामाजिक क्षेत्र में स्थापित करने का कार्य किया। हालांकि हार्वे मात्रात्मक क्रांति के समर्थक थे, लेकिन 1970 के दशक में इन्होंने प्रतिक्रियावादी विचारधारा को अपनाया। इनके चिंतन का मूल विषय पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था का समापन था। इनके कार्यों के फलस्वरुप 1970 के दशक में मार्क्सवादी चिंतन भूगोल का महत्वपूर्ण अंग बन गया और मानव भूगोल के विभिन्न क्षेत्रों में मार्क्सवादी चिंतन धारा का प्रयोग किया जाने लगा। विभिन्न विषयों में गरीबी, असमानता, महिलाओं की समस्या, आवास की समस्या, श्रमिक समस्या, गंदी बस्तियां व नगर नियोजन जैसी कई आर्थिक सामाजिक समस्याएं प्रमुखता से मानव भूगोल में सम्मिलित कर ली गई। हार्वे के साथ ही पीट ने 1977 में रेडिकल भूगोल नामक पुस्तक लिखी और मार्क्सवादी विचारधारा का उपयोग क्रांतिकारी भूगोल के विश्व को स्पष्ट करने में किया। इन्होंने कुछ ऐसी समस्याएं उठाई जिनकी ओर सरकार एवं संचित पूंजी का ध्यान नहीं था। 
पीट ने सामाजिक समस्याओं के तीन मानचित्र प्रस्तुत किए – 
    1.  अमेरिका में गरीबी का वितरण
    2.  अमेरिका में आदिवासियों मकानों की कमी का क्षेत्र
    3. विकासशील देशों में आदिवासियों मकानों का वितरण
ये ऐसी समस्याएं थी जिनके लिए संचित पूंजी एवं तकनीक का उपयोग नहीं हो पा रहा था क्योंकि विकसित एवं विकासशील देशों दोनों में पूंजी का निवेश औद्योगिकरण एवं आधारभूत संरचना के विकास में किया जा रहा था। 
स्पष्टत: सामाजिक क्षेत्र की कई समस्याएं पूंजी के लाभ से वंचित थी। यूएसए जैसे देश से भी गरीबी उन्मूलन के लिए रोजगार उन्मुख कार्यक्रम नहीं थे। लेकिन रेडिकल भूगोल पुस्तक के बाद यूएसए में कई रोजगार उन्मुख कार्यक्रम चलाए गए। ये कार्यक्रम पिछड़े प्रदेशों एवं पिछड़े समुदायों के लिए चलाए गए। वर्तमान में यूएसए में सामाजिक और आर्थिक निराशा के लगभग नहीं पाए जाने का यह प्रमुख कारण है।
                 इस तरह 1970 के दशक में क्रांतिकारी भूगोल USA में पर्याप्त विकसित हो चुका था। जिसका स्पष्ट लाभ सामाजिक क्षेत्रों को प्राप्त हुआ था। लेकिन USA से बाहर मार्क्सवादी विचारधारा के कारण मार्क्सवाद के मौलिक सिद्धांतों को ही अपनाया जा रहा था।  अर्थात संसाधनों के वितरण और पूंजी के बंटवारे पर बल दिया जा रहा था। लेकिन 1980 के दशक में क्रांतिकारी भूगोल का मुख्य उद्देश्य जिसमें संसाधनों के वितरण की जगह संसाधनों का उपयोग और पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर बल दिया गया था, इसे प्रत्येक जगह मान्यता मिली और मार्क्स के विचारों का संशोधित रूप ही क्रांतिकारी भूगोल के उद्देश्य के रूप में स्थापित हो गया।
हालांकि सोवियत संघ में मार्क्सवादी भूगोलवेत्ताओं के द्वारा मार्क्स के मौलिक चिंतन को ही अपनाया जा रहा था। इस कारण यूएसए के बाहर क्रांतिकारी भूगोल के विकास में बाधा उत्पन्न हुई। उपरोक्त परिस्थितियों में क्रांतिकारी भूगोलवेत्ताओं द्वारा क्रांतिकारी भूगोल के विषय वस्तु को स्पष्ट किया गया।

क्रांतिकारी भूगोल के विषय वस्तु

  1. इसके अंतर्गत सकारात्मक क्षेत्रीय उपागम के विकल्प के रूप में गत्यात्मक क्षेत्रीय उपागम को अपनाया गया। चूंकि साकारात्मक क्षेत्रीय उपागम वस्तु स्थिति का विश्लेषण करता है। जबकि गत्यात्मक क्षेत्रीय उपागम विषय वस्तु का सकारण व्याख्या सहित विकास का वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करता है।
  2. विकास का वैकल्पिक मॉडल, तंत्र उपागम पर आधारित होता है जिसका आधार सामान्य तंत्र सिद्धांत है। इस मॉडल में संचित पूंजी और संसाधन का पूर्ण वितरण की जगह निवेश कार्यों के द्वारा विकास करना है।
  3. क्रांतिकारी भूगोल के किसी व्यक्ति विशेष की पूंजी या निजीपूंजी, संसाधन एवं संरचनात्मक सुविधाएं पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए उपयोगी हो सकती हैं, उस पर बल दिया गया है। निजी पूंजी में औद्योगिक कंपनी, औद्योगिक घराने या कोई भी पूंजी रखने वाली संस्था आते हैं।
  4. क्रांतिकारी भूगोल में मात्रात्मक विधि तंत्र की जगह अनुभव आश्रित विधि के द्वारा व्यक्ति, समूह, समाज या क्षेत्र की समस्याओं की पहचान और उसके निदान के लिए कार्य करना।
उपरोक्त विषय वस्तु क्रांतिकारी भूगोल का आधार है। इसके बारे में पीट ने अपनी पुस्तक रेडिकल ज्योग्राफी में बताया था। इस तरह क्रांतिकारी भूगोल के अंतर्गत सामाजिक समस्याओं, पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर विशेष बल दिया गया, जिसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा। लेकिन विकसित देशों के बाहर क्रांतिकारी भूगोल का पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। जिसका कारण सोवियत मार्क्सवादी भूगोलवेत्ताओं द्वारा इसे पर्याप्त समर्थन नहीं प्राप्त होना है। सोवियत मार्क्सवादी भूगोलवेत्ताओं ने यूएसए के क्रांतिकारी भौगोलिक चिंतन को मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को अलग रूप से प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। इसका स्पष्ट: प्रभाव क्रांतिकारी भूगोल पर पड़ा। इसके बावजूद 1980 क दशक में विकासशील देशों के नियोजन में भी गरीबी उन्मूलन जैसे उद्देश्य शामिल किए गए।
                     भारत में छठवीं योजना में इसे प्रमुखता दी गई। हालांकि वर्तमान में क्रांतिकारी भूगोल की स्थापना विकासशील देशों में प्रमुखता से तो नहीं हो पाई है, लेकिन सामाजिक समस्याओं के समाधान और पिछड़े क्षेत्रों के पहचान एवं विकास की दिशा में पर्याप्त कार्य हो रहा है जो एक तरह से क्रांतिकारी भूगोल के उद्देश्य को ही पूरा कर रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस दिशा में विकसित एवं विकासशील देश सामूहिक रूप से प्रयास करें।

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