भारत के कुटीर उद्योग (Small Industries)

आजादी के बाद विकास के आवश्यक आधार मानें जाने वाले, बड़े उद्योगों को महत्व दिया गया। दूसरे और तीसरे आयोजनों में बड़े उद्योग की स्थापना पर बल दिया गया, किंतु बड़े उद्योगों के पूरक माने जाने वाले लघु एवं कुटीर उद्योगों की उपेक्षा की गई। इसका परिणाम यह हुआ कि लघु एवं कुटीर उद्योग पिछड़ गए। 1948 सहित 1991 तक की सभी औद्योगिक नीतियों में इन उद्योगों के महत्व को स्वीकार किया गया है, परंतु व्यवहारिक रूप में उनकी कठिनाइयों को दूर करने का समुचित प्रयास नहीं किया गया।

लघु एवं कुटीर उद्योग की समस्याएं

लघु एवं कुटीर उद्योग के विकास में बाधा पहुंचाने वाली समस्याओं को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत रखा जा सकता है –
  1. कच्चे माल तथा बिजली की आपूर्ति लघु एवं कुटीर उद्योग को उचित मूल्य पर पर्याप्त कच्चे माल की आपूर्ति नहीं हो पाती, जिससे उत्पादन कार्यों का संचालन कठिन हो जाता है। प्रायः यही स्थिति बिजली की आपूर्ति में भी ही है। बड़े नगरों को अगर छोड़ दिया जाए तो देश के छोटे नगरों में बिजली की आपूर्ति निर्बाध नहीं है जिससे उत्पादन कार्यों में बाधा पहुंचती है।
  2. वित्त एवं साख की समस्या पूंजी एवं साख का अभाव लघु उद्योगों की मुख्य समस्या है। कुटीर उद्योगों के क्षेत्र में तो स्थिति और भी खराब है। लघु औद्योगिक इकाइयों का पूंजीगत आधार प्रायः काफी कमजोर होता है। हालांकि इस संदर्भ में सरकार ने राष्ट्रीय बैंकों, राज्य वित्त निगमों को उचित निर्देश दिए गए हैं। उसके बावजूद स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। इसका कारण यह है कि सरकारी वित्त संस्थाएं साख उपलब्ध कराने के लिए जमानत के तौर पर ऋण की मात्रा के 5 गुना संपत्ति की मांग करते हैं जिससे पूरा करने में लघु एवं कुटीर उद्योग के संचालक सक्षम नहीं होते।
  3. आधुनिक मशीनों व उपकरणों का अभाव लघु उद्योग की अधिकांश इकाइयों के यंत्र तथा उपकरण पुराने पड़ चुके हैं। इस कारण इन उद्योगों द्वारा उत्पादित माल घटिया होता है और इस पर लागत भी अधिक आती है। इस तरह की इकाइयां बदलते परिवेश, लोगों की रूचि, फैशन आदि पर ध्यान नहीं दे पाती, जिससे प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाती है।
  4. विपणन की समस्याएं उत्पादन के बाद सबसे बड़ी समस्या उत्पाद की बिक्री की होती है। छोटे उत्पादकों को प्रायः माल बेचने में आने कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस तरह के उत्पादों के विपणन के लिए सरकार द्वारा कोई व्यवस्था नहीं की गई है। मजबूरन इन्हें अपना उत्पाद साहूकारों को देना पड़ता है, जो इन्हें उचित लाभ नहीं लेने देते।
  5. अस्वस्थता की समस्या लघु एवं कुटीर उद्योगों की समस्याओं में एक प्रमुख समस्या उनकी अस्वस्थता की है।
(2) उदारीकरण और भूमंडलीकरण का बुरा प्रभाव

1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की दिशा में कई कदम उठाए गए जैसे औद्योगिक लाइसेंसिंग की समाप्ति, आरक्षण में कमी, देशीय व विदेशी उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन प्रशल्कों में कमी, मात्रात्मक प्रतिबंधों को समाप्त करना आदि सुधारों का लघु उद्योग क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कई औद्योगिक क्षेत्रों जैसे रसायन, रेशम, वाहनों के पुर्जे, खिलौने, खेल का सामान, जूता उद्योग में काम कर रही इकाइयों का सस्ती व बेहतर आयातित वस्तुओं से गंभीर खतरा पैदा हो गया है। सबसे गंभीर खतरा चीन से आ रहे सस्ते आयातो से हैं। जिनकी कीमत इतनी कम है कि लघु उद्योगों के लिए अपना अस्तित्व कायम रखना कठिन हो रहा है।

लघु एवं कुटीर उद्योग के संदर्भ में सरकारी नीतियां
(1947 – 1990 के बीच सरकार की नीति) – 

स्वतंत्रता के शीघ्र बाद लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास के लिए विभिन्न कदम उठाये गए, जो इस प्रकार है – 

(1) संगठित ढांचे का निर्माण
(I) 1927 में भारत सरकार ने कुटीर उद्योग बोर्ड की स्थापना की। पहली पंचवर्षीय योजना में इसे 3 अलग-अलग बोर्डों में विभाजित कर दिया गया जो निम्नलिखित थे – 
  1. अखिल भारतीय हाथकरघा बोर्ड
  2. अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड
  3. अखिल भारतीय खाकी और ग्रामोद्योग बोर्ड।

(II) 1954 में लघु उद्योग विकास निगम की स्थापना की गई।

(III) 1955 में राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम की स्थापना की गई।

(IV) 1955 में ही औद्योगिक बस्तियों का कार्यक्रम शुरू किया गया। इन बस्तियों में कारखानों की स्थापना के लिए बिजली, पानी व यातायात आदि की सुविधाएं प्रदान की गई।

(V) मई, 1979 में जिला उद्योग केंद्र कार्यक्रम शुरू किया गया। इस समय देश में 422 जिला उद्योग केंद्र कार्यरत है, जो 431 जिलों का काम देख रहे हैं।

(2) योजना व्यय : योजनाओं के अंतर्गत लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर काफी व्यय किया गया है। पहली योजना में इन पर 42 करोड़, दूसरी योजना में 187 करोड़, छठी योजना में 1945 करोड़, सातवीं योजना में 3249 करोड़ एवं 9वी योजना में 8384 करोड़ रुपए खर्च किए गए।
(3) आरक्षित मदें : बड़े उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए सरकार ने कुछ उत्पादन क्षेत्रों को लघु उद्योगों के लिए आरक्षित किया है। 1977 में इन मदों की संख्या 500 थी, 1989 में बढ़ाकर 836 कर दी गई।
(4) भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक की स्थापना : सरकार ने 1989 में लघु उद्योग को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक की स्थापना की थी।
(5) अन्य कदम : लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन देने के लिए अन्य कदम उठाए गए। जैसे – 
  1. ग्रामीण उद्योगों को आवश्यक तकनीकी की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए 1982 में एक संस्था की स्थापना की गई।
  2. सरकारी खरीद कार्यक्रमों में लघु उद्योगों को प्राथमिकता दी गई।
  3. पंजीकृत तथा अपंजीकृत सभी प्रकार की लघु इकाइयों को उत्पादन शुल्क की अदायगी में रियायतें आदि।
नई लघु उद्योग नीति 1991
भारत सरकार ने अगस्त 1991 में लघु, अति लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए एक नई नीति की घोषणा की, जो निम्नलिखित है –
  1. अति लघु क्षेत्र में निवेश की सीमा को 2 लाख से बढ़ाकर ₹5 लाख कर दिया गया। इस नीति के द्वारा उद्योग से जुड़े सेवा, व्यवसायिक उद्योग को भी शामिल किया गया।
  2. अति लघु इकाइयों के विकास के लिए एक अलग पैकेज की घोषणा की गई। इस पैकेज को देने के पीछे उद्देश्य इनका तेजी से विकास करना था।
  3. नई नीति में यह व्यवस्था की गई कि अन्य औद्योगिक इकाइयां लघु इकाइयों में 24% तक की इक्विटी निवेश कर सकती है। इससे बड़ी एवं छोटी दोनों इकाइयों को लाभ मिलने की संभावना बढ़ती है।
  4. इस नीति के द्वारा व्यवसाय संगठन का नया कानूनी दौर आरंभ किया गया जिसे सीमित साझेदारी की संज्ञा दी गई है। इस व्यवस्था में एक साझेदार का दायित्व असीमित होता है।
नई लघु उद्योग नीति की कुछ अन्य विशेषताएं
  1. लघु तथा अति लघु इकाइयों की संपूर्ण साख मांग को पूरा करने की कटिबद्धता व्यक्त की गई। अर्थात सस्ती साख की अपेक्षा साख पर्याप्तता पर अधिक जोर दिया गया।
  2. राष्ट्रीय इक्विटी फंड तथा एक संस्था से ऋण लेने की योजना के कार्य क्षेत्र का विस्तार किया गया।
  3. सरकारी खरीद कार्यक्रमों में अति लघु क्षेत्र को प्राथमिकता देने की व्यवस्था की गई।
  4. घरेलू कच्चे माल के आवंटन में लघु तथा अति लघु क्षेत्र को प्राथमिकता देने की व्यवस्था की गई।
  5. लघु एवं अति लघु क्षेत्र के उत्पादों के विपणन के लिए सहकारी संस्थाओं तथा अन्य व्यवसायिक संगठनों की भूमिका पर जोर दिया गया।
  6. ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में लघु उद्योग के विकास को प्रोत्साहन देने के लिए तथा उद्योग व कृषि में अधिक कारगर सामंजस्य स्थापित करने के लिए एकीकृत आधारिक संरचना विकास पर जोर दिया गया।
 लघु एवं कुटीर उद्योग के विकास के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम
  1. उत्पादन शुल्क से छूट की सीमा में वृद्धि।
  2. साख के लिए जमानत संबंधी समस्याओं के समाधान हेतु योजना।
  3. प्रौद्योगिकी में सुधार के लिए योजना।
  4. बाजार विकास सहायता।
  5. अनारक्षण की नीति।
  6. साख की सुविधाएं।
  7. निवेश की सीमा में वृद्धि।
  8. योजनाओं में परिव्यय राशि में वृद्धि।
लघु एवं कुटीर उद्योग में सुधार के लिए गठित समितियां एवं सिफारिशें
  1. डॉ आबिद हुसैन समिति – लघु उद्योगों की समस्याओं के समाधान के लिए सुझाव देने हेतु दिसंबर, 1995 में उद्योग मंत्रालय ने डॉ आबिद हुसैन समिति का गठन किया था। जिसने 27 जनवरी, 1997 को अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की।
  2. डॉ एस पी गुप्त समिति – सरकार ने मई, 1999 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष डॉ एस पी गुप्त की अध्यक्षता में लघु उद्योगों के विकास हेतु सुझाव देने के लिए इस समिति का गठन किया।
  3. नायक समिति – 1977 में सरकार ने नायक समिति का गठन किया, जिसके अध्यक्ष भारतीय रिजर्व बैंक के उप-गवर्नर श्री पीआर नायक थे।
  4. कपूर समिति – दिसंबर, 1997 में श्री एस एल कपूर भूतपूर्व सचिव लघु उद्योग भारत सरकार की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई, जिसकी कुछ सिफारिशें रिजर्व बैंक द्वारा स्वीकार की गई।
  5. मीरा सेठ समिति – हथकरघा क्षेत्र की समस्याओं पर सुझाव देने के लिए गठित मीरा सेठ समिति ने 21 जनवरी, 1997 को अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की।
  6. अर्जुन सेनगुप्त आयोग – सितंबर, 2004 में असंगठित अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत उद्यमों के लिए डॉक्टर अर्जुन सेन गुप्त की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया।

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