प्राकृतिक संसाधनों में जल संसाधनों का आधारभूत महत्व है। अतः स्वतंत्रता के तत्काल बाद ही जल संसाधन विकास के लिए कई महत्वपूर्ण नीतियां बनाई गई थी। इसमें बहुउद्देशीय नदी घाटी योजना सबसे महत्वपूर्ण थी। बहुउद्देशीय नदी घाटी योजना के विकास का निर्णय 1948 में ही लिया गया था। इसके महत्वपूर्ण उद्देश्यों में – बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, जल विद्युत विकास के साथ ही ग्रामीण विकास, रोजगार तथा घाटी का संपूर्ण विकास रखा गया था। इसके साथ ही विकास के एक तिहाई के रूप में नदी घाटी का उपयोग होने लगा है।
पुनः प्रथम चार पंचवर्षीय योजनाओं में बहुउद्देशीय नदी घाटी योजना की ही नीति जल प्रबंध की प्रमुख नीति थी। इसके अंतर्गत दामोदर घाटी, भाखड़ा नांगल, कोसी, गंडक और हीराकुंड जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर की बहुउद्देशीय नदी घाटी योजनाएं लागू की गई। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत के राज्यों तथा उत्तरी मध्यवर्ती तथा उत्तर-पश्चिम राज्यों द्वारा सिंचाई विकास के लिए नहर योजना लागू की गई।
संविधान के अंतर्गत जल संसाधन राज्य सूची का विषय है। अतः अधिकतर योजनाएं राज्यों द्वारा लागू एवं क्रियान्वित की जाती है। किंतु बहुउद्देशीय योजनाएं अंतर राज्य योजनाएं थी, जिनमें केंद्र सरकार समन्वय का कार्य करती है। लेकिन 1966-67 के भयंकर सूखा एवं अकाल के बाद राष्ट्रीय जल प्रबंध पर नवीन दृष्टिकोण अपनाया गया। इसके अंतर्गत सिंचाई विकास को प्राथमिकता दी गई तथा सिंचाई के अंतर्गत ट्यूबेल सिंचाई अर्थात लघु सिंचाई योजना को सर्वाधिक प्राथमिकता मिली। 1966-69 के बीच सिंचाई योजनाओं को प्राथमिकता मिली जो हरित क्रांति का आधार साबित हुई।
5वी पंचवर्षीय योजनाओं में कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम (CADP) अपनाया गया, जिससे देश के अन्य भागों में हरित क्रांति का विकास एवं विसरण हुआ। 6वीं पंचवर्षीय योजना में पुनः जल विद्युत विकास को प्राथमिकता दी गई, लेकिन इस योजना में लघु जल विद्युत योजना को विशेष रूप से महत्व दिया गया। पुनः जल संसाधन विकास को ग्रामीण एवं प्रादेशिक योजनाओं का एक महत्वपूर्ण अंग बनाया गया।
समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम एवं गरीबी निवारण कार्यक्रम के अंतर्गत लघु सिंचाई विकास के लिए ग्रामीणों को ऋण दिए गए, लेकिन 1987 के सूखे के बाद पुनः जल संसाधन के तार्किक उपयोग पर गंभीरता से विचार किया गया और 1987 ईस्वी में पहली बार राष्ट्रीय जल संसाधन नीति की घोषणा की गई। इससे पहले वर्ष 1983 में राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद का गठन किया गया था। प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष तथा केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उपाध्यक्ष होते हैं।
राष्ट्रीय जल संसाधन नीति 1987 :
1987 की राष्ट्रीय जल संसाधन नीति के अंतर्गत जल संसाधन विकास को दो भागों में बांटा गया।
- लघु स्तरीय विकास
- वृहत स्तरीय विकास
लघु स्तरीय विकास के तीन अंग है।
- लघु सिंचाई
- लघु जल विद्युत योजनाएं
- पेयजल विकास
लघु सिंचाई योजना के अंतर्गत सतह और भूमिगत जल दोनों के उपयोग पर जोर दिया जाता है। पहली बार किसानों को यह अधिकार मिला कि वह सार्वजनिक भूमि के जल का उपयोग अपनी फसल को बचाने के लिए कर सकते हैं। लघु विद्युत योजनाओं को हिमालय प्रदेश एवं उत्तरी-पूर्वी भारत में प्राथमिकता दी गई। पेयजल को राष्ट्रीय सामाजिक कार्यक्रम में सम्मिलित किया गया। पेयजल को अनिवार्य आवश्यकता बताते हुए, इस शताब्दी के अंत तक सभी को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने की योजना बनाई गई।
वृहत स्तरीय विकास योजना के अंतर्गत नदी बेसिन योजनाओं का विकास का प्रावधान है। किंतु इनमें सबसे बड़ी समस्या अंतर राज्य जल विवाद तथा जल संसाधन का राज्य सूची में होना है।
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