प्रादेशिक नियोजन किसे कहते है | प्रादेशिक नियोजन एवं पर्यावरण समस्या क्या है?

पर्यावरणीय समस्याएं अधिक विकास का ही प्रतिफल है और मानवीय क्रियाकलापों ने ही पर्यावरण को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। अर्थात प्रादेशिक विकास की प्रक्रियाओं ने भी पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न की है। क्योंकि विकास की प्रारंभिक अवस्था में पर्यावरण के प्रति जागरूकता नहीं आई थी, अतः विकास की प्रक्रिया तो तीव्र होती गई, लेकिन मानव पर्यावरण का संबंध असंतुलित होता गया। इसी कारण वर्तमान की विकास प्रक्रियाओं में पर्यावरणीय मुद्दों को प्राथमिकता दी गई है।

प्रादेशिक नियोजन का प्रत्यक्ष संबंध पर्यावरण के भौतिक, जैविक एवं सांस्कृतिक तंत्रों की अंतरक्रिया से है। जैविक-भौतिकी पर्यावरण उपतंत्र की इन अंतर्क्रिया के प्रमुख आयाम निम्नलिखित हैं।

  • मानव तथा मानव समाज की जैविक एवं आर्थिक क्रियाओं के लिए जैव-भौतिकी पर्यावरणीय तत्व संसाधन उपलब्ध कराते हैं।
  • जैविक एवं भौतिक पर्यावरणीय उपतंत्र सांस्कृतिक उपतंत्र में अनिवार्य रूप से उत्पन्न अपशिष्टों के लिए पात्र का काम करता है।

पर्यावरण समस्याओं का मूल संबंध जब भौतिकी संसाधनों के उपयोग तथा इस पर आधारित सांस्कृतिक भू-दृश्यों के सृजन से संबंधित प्रभावों की उत्पत्ति से रहा है। पर्यावरणीय समस्याओं की तीव्रता के आकलन के संबंध में कुछ मान्यताएं निम्नलिखित है।

  • बढ़ती पर्यावरणीय समस्याएं वर्धनशील प्रौद्योगिकी अव्यावहारिक प्रयोग का प्रतिफल है।
  • पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि का कारण प्रौद्योगिकी प्रयोग के परिणामों के पूर्व अनुमान की असफलता को माना जा सकता है।
  • पर्यावरणीय समस्याओं की निरंतरता का भय संसाधन उपलब्धि, संसाधनों के उपयोग की आवश्यकता, प्रौद्योगिकी वर्धन तथा प्रयोग इत्यादि की मात्रात्मक एवं गुणात्मक अनिश्चितता में संरक्षित पायी जाती है।
  • विकास अनुक्रम में प्रकृति से संबंधित मात्रात्मक एवं गुणात्मक उपलब्धियों के संदर्भ में सामाजिक मूल्यों और प्राथमिकताओं का द्वंद्व पाया जाता है।
  • जैव-भौतिकी पर्यावरणीय सीमाओं में विकास संसाधन आधार की अनुकूलतम क्षमता मानव द्वारा इंच्छित अधिकतम दोहन से न्यून होती है तथा इसकी अनुकूलतम क्षमता से अधिक दोहन असंतुलन का कारण बनता है।

उपर्युक्त मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में पर्यावरणीय समस्याओं का आकलन किया जाना आवश्यक है। पर्यावरण की संकल्पना की व्यापकता के संदर्भ में पर्यावरणीय समस्याओं का आवरण विस्तृत है। इस कारण पर्यावरणीय समस्याओं को क्रम अनुसार सूचीबद्ध करना कठिन होगा। फलस्वरुप प्रादेशिक नियोजन के प्रसंग या विकास क्रम में मानवीय अंतर क्रिया से जनित परिणामों के अंतर्गत पर्यावरण में उत्पन्न बदलाव एवं असंतुलन के आकलन के लिए समस्या सम्मिलित वर्ग का उल्लेख सराहणीय होगा। प्रादेशिक नियोजन में पर्यावरणीय समस्याओं के विकास का प्रधान कारण संसाधनों के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण पर बढ़ता दबाव है। इसके दो प्रमुख आयाम हैं।

  • संसाधन पर्यावरण
  • जैव निवास्य पर्यावरण

प्रादेशिक नियोजन में समस्या मूलक पर्यावरण से तात्पर्य उस अवस्था से लिया जा सकता है, जब मानव प्रकृति संबंध में मानवीय क्रियाशीलता से विकास की प्रक्रिया तीव्र होने के क्रम में संसाधन, निवास्य परिस्थिति की भू-वैन्यासिक संगठन तथा पारिस्थितिकी स्वनियमन अवस्था पंगु हो जाएं तथा जिनका कुप्रभाव विकास प्रक्रम पर अनियंत्रित प्रतीत होने लगे। मानव संसाधन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी संतुलन समीकरण के अभाव में संसाधन पर दवा उत्पन्न होता है। इसके परिणामस्वरूप इसका अवनयन एवं क्षय (Decline) शुरू होता है। संसाधन अवनयन एवं क्षय की निरंतरता अधिवासीय पर्यावरण को प्रदूषित करती है।

इस क्रम में औद्योगिकरण एवं नगरीकरण के बढ़ते आयामों के प्रभाव में कई अपशिष्ट पदार्थों एवं रसायनों का उत्सर्जन एवं संचयन होता है। इससे वायु, जल तथा थल प्रदूषित होते हैं। पर्यावरण प्रदूषण से मानव संसाधन की गुणवत्ता में प्रत्यक्ष ह्रास होता है। मानवीय परिपेक्ष्य में आधारभूत भौतिक तत्वों की गुणवत्ता में अवक्रमण के फलस्वरुप मानव स्वास्थ्य, मानवीय कार्य दक्षता, प्रजनन क्षमता, जीवन अवधि तथा वंश वृद्धि को प्रभावित करते है। मानवीय क्रियाकलापों के प्रभाव से ग्रीन हाउस प्रभाव में वृद्धि तथा ओजोन गैस क्षय, मृदा प्रदूषण, जल प्रदूषण एवं वायु प्रदूषण जैसी समस्याएं मानवीय संसाधन की परिचालन क्षमता को कम करती है।

किसी देश की परिस्थितिकी असंतुलन की स्थिति प्रादेशिक परिसीमा में जीवनदायिनी शक्तियों को विनष्ट कर देती है। पर्यावरण अवक्रमण तथा परिस्थितिकी संकट संग्रहित है। कई विशिष्ट जैव प्रजातियों का लोप होना संसाधन क्षय की गति को तीव्र कर रहा है।

पर्यावरण की प्रसंगिकता मानव – प्रकृति के बीच निरंतर मैत्रीपूर्ण संबंध में रही है। पर्यावरणीय समस्याओं की उत्पत्ति तथा वृद्धि मानव – प्रकृति के बीच बढ़ते अमैत्रीपूर्ण संबंधों में पायी जा रही है।

प्रादेशिक नियोजन के प्रसंग में पर्यावरण की समस्याओं के मुख्य कारण

  1. जनसंख्या में वृद्धि
  2. मानवीय जीवन मूल्य में भौतिकवादी संस्कृति की प्रधानता
  3. मानव की वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी दक्षता में अभूतपूर्व वृद्धि
  4. विभिन्न प्रादेशिक स्तर पर विकास प्रतिस्पर्धा
  5. विकसित एवं अविकसित राष्ट्रों के बीच बढ़ती खाई एवं सहयोग
  6. समन्वित विकास अनुक्रम का अभाव
  7. अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा उपभोग पर आधारित औद्योगिकरण एवं नगरीकरण में वृद्धि
  8. औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा स्वनियंत्रण सिद्धांत के विरुद्ध उत्पादन कार्य
  9. प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में मानव द्वारा प्रौद्योगिकी का अमैत्रीपूर्ण प्रयोग
  10. पर्यावरण पर वैश्विक सहभागिता की कमी एवं राजनीति
  11. अल्प विकसित विकासशील देशों के पास पर्यावरण अनुकूल तकनीक का अभाव

प्रादेशिक नियोजन में पर्यावरण

प्रादेशिक नियोजन प्रसंग में पर्यावरण का अनिवार्य महत्व रहा है। नियोजन प्रक्रम का मूल संबंध विकास से जुड़ा रहा है। विकास आवश्यक रूप से पर्यावरण से संबंधित है। विकास प्रक्रम में पर्यावरण के साथ-साथ विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का भी विशेष महत्व पाया गया है। पर्यावरण और विकास के लिए संसाधन आधार का निर्माण करता है, तो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रभाव पर्यावरणीय आधार की उपयोग दक्षता को तीव्रतर करते हैं। विकास की प्रारंभिक परंपरा समकालीन सामाजिक आर्थिक परिवेश में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के बढ़ते आयाम के ही माध्यम से आगे बढ़ती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा विकास प्रक्रम के बीच का अंतर क्रियात्मक संबंध पर्यावरण पर सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। अतः इस अंतर्संबंध का नियोजनात्मक महत्व स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है।

पर्यावरण मात्र विकास का आधार न होकर विकास का सृजन भी है। अर्थात विकास प्रक्रम के अंतर्गत विशिष्ट पर्यावरण का निर्माण भी होता है। विकास की प्रक्रियात्मक उपलब्धियों की अभिव्यक्ति इसके तीन आयामों में हो पाती है – 

  1. सामाजिक आयाम
  2. आर्थिक आयाम
  3. पर्यावरणीय आयाम

प्रादेशिक विकास इन तीनों आयामों का परिलक्षण होता है। प्रदेश की जनसंख्या के मात्रात्मक एवं गुणात्मक पक्षों से सामाजिक विकास, संसाधन विकास, आर्थिक उत्पादन तथा पर्यावरण तत्वों के विकास से टिकाऊ विकास के आधार का निर्माण होता है। विकास के तीनों आयामों में से किसी को भी निरपेक्ष एवं स्वतंत्र नहीं माना जा सकता है। तीनों आपस में सापेक्ष एवं अंतर्संबंधित होते हैं। पर्यावरणीय आयाम इनमें सर्वव्यापी माना जा सकता है। क्योंकि आर्थिक एवं सामाजिक तंत्र अंततः प्रादेशिक संदर्भ में पर्यावरण के ही द्योतक हैं।

प्रादेशिक नियोजन प्रसंग में पर्यावरण एवं विकास के संबंधों को दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है।

  1. पर्यावरण – विकास असंगति
  2. पर्यावरण – विकास परिपूरकता

विकास की उस दशा को जब पर्यावरणीय तत्व विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अभाव में अवरोध उत्पन्न करते हैं या मानव द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के व्यावहारिक प्रयोग से पर्यावरणीय तत्वों को प्रदूषित एवं क्षयित करने का कार्य करते हैं तो उस स्थिति में पर्यावरण विकास असंगत माना जाएगा। इसके विपरीत यदि विकास की वह दशा जिसमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी का उपयुक्त प्रयोग होता है। तब विकास संसाधनीय प्रासंगिकता को अधिकारिक सकारात्मक बनाता है।

विकास प्रक्रमों का यदि पर्यावरण प्रदूषण और क्षय संबंधी न्यूनतम नकारात्मक प्रभाव देखा जाता है तो उसे पर्यावरण विकास की परिपूरकता कहेंगे। पर्यावरण विकास का असंगत संबंध समस्याओं का परिचायक होता है। दूसरी ओर पर्यावरण विकास का पूरक संबंध विकास की संभावनाओं को नियमित एवं अनुकूलतम दिशा और गति प्रदान करता है। अतः विकास की प्रक्रिया संतुलित विकास का आधार है। इसी संदर्भ में आयोजना में शाश्वत विकास की अवधारणा को अपनाया जा रहा है। {किस कंपनी के साथ निवेश सही है?}

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