रोस्टो का सिद्धांत क्या है?

आर्थिक विकास से संबंधित कई मॉडल और सिद्धांत दिए गए जिसमें अवस्था परक मॉडल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें किसी भी देश या क्षेत्र के विकास एवं संरचनात्मक परिवर्तन को महत्व दिया गया है अर्थात आर्थिक तथा सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का निर्धारण किया गया है। 1971 में रोस्टोव ने आर्थिक सामाजिक विकास का महत्वपूर्ण अवस्था परक सिद्धांत वृद्धि अवस्था मॉडल दिया। यह मॉडल यह बताता है कि प्रत्येक समाज को आर्थिक सामाजिक विकास की कई अवस्थाओं से गुजरना होता है और प्रत्येक अवस्था में आर्थिक, सामाजिक विकास की स्थिति भिन्न होती है।

अवस्था परक सिद्धांत में किसी भी अवस्था के निर्धारण में विकास के आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत आर्थिक और सामाजिक स्थिति के निर्धारण में विकास के आंकड़ों का प्रयोग करके विकास की अवस्था का निर्धारण वैज्ञानिक विधियों से किया जाता है। इस कारण यह मॉडल किसी भी अर्थव्यवस्था या समाज की वास्तविक स्थिति को प्रदर्शित करता है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि उपलब्ध आंकड़े शुद्ध होने चाहिए।

रोस्टोव ने अपने अवस्था परख मॉडल में आर्थिक सामाजिक विकास के पांच चरणों को स्वीकार किया है उन्होंने बताया है कि आर्थिक सामाजिक विकास के क्रमिक रूप में 5 चरण होते हैं और सभी समाज को इन इन सभी चरणों से गुजरना पड़ता है इन चरणों को अर्थात आर्थिक विकास की संपूर्ण प्रक्रिया को आय वृद्धि के 5 अवस्थाओं में दिखाने पर यह फैले हुए ‘S’ के समान वक्र प्राप्त होता है। इसे डोम्पटर्स वक्र कहते हैं।

 

यह वक्र स्पष्ट करता है कि विकास वक्र की रेखा प्रारंभ में धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। पुनः तीव्र गति से अग्रसर होती है और अंतिम अवस्था में पुनः सपाट हो जाती है अर्थात विकास धीमी गति से होने लगता है। इस अवस्था में पुनः यदि नवीन प्रेरक तत्व कार्य करने लगते हैं तब विकास की प्रक्रिया पुनः तीव्र हो जाती है और वक्र रेखा ऊपर उठ जाती है, लेकिन पुनः विकास की प्रक्रिया क्रमशः धीमी हो जाती है।
इस तरह रोस्टोव का मॉडल आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं को बताता है जिससे आर्थिक विकास की दर भिन्न-भिन्न होती है, जो सामाजिक संरचना में भिन्नता की स्थिति को भी बताता है।
रोस्टोव की वृद्धि अवस्था मॉडल में आर्थिक अवस्था की निम्न 5 अवस्थाएं पाई जाती है।
  1. परंपरागत समाज की अवस्था
  2. औद्योगिक विकास के पूर्व की दशाओं की अवस्था
  3. आर्थिक उत्थान की अवस्था
  4. आर्थिक व्यस्कता की अवस्था
  5. अधिकाधिक उपभोग की अवस्था

(1) परंपरागत समाज की अवस्था :

यह आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था है जहां आजीविका का साधन कृषि होता है। इसमें सामंतवादी प्रवृतियां पाई जाती है और राष्ट्रीय आय का अधिकांश भाग गैर उत्पादक गतिविधियों में लगा रहता है। धार्मिक मान्यताएं, परंपराएं एवं रूढ़िवादिता के कारण आर्थिक और सामाजिक विकास बाधित रहता है। परंपरागत तकनीक के कारण विकास में एक स्थिरता बनी रहती है। समाज विवेक और बुद्धि की जगह पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार कार्य करता है। फलत: उत्पादन कम लाभकारी और हानिकारक अधिक होता है। इस अवस्था में कहीं-कहीं नगर, खनिज केंद्र, कृषि केंद्र तथा बागवानी केंद्र पाए जाते हैं।

(2) औद्योगिक विकास के पूर्व की दशाओं की अवस्था :

इस अवस्था में आर्थिक परिवर्तन की भावना उत्पन्न होती है और राष्ट्र के नेतृत्व में नई आर्थिक नीतियां, नई कृषि विधियां और औद्योगिक तकनीक अपनाने की इच्छा होती है। इस अवस्था में केंद्रीकृत राज्य की मांग होती है। इस अवस्था में ही उत्पादक क्षेत्रों में मुख्यतः आधारभूत क्षेत्रों में निवेश की प्रक्रिया प्रारंभ संरचनात्मक होती है और क्रमशः सामाजिक और आर्थिक आधारभूत संरचना का विकास प्रारंभ होता है। इस समय आर्थिक आधार पर नए आर्थिक वर्ग या समूह का उदय होता है। शासन अधिक केंद्रीयकृत एवं प्रभावी होता है। इस तरह से यह एक संक्रमण अवस्था है, जिसमें आर्थिक विकास के पूर्व की तैयारी प्रारंभ हो जाती है।

(3) आर्थिक उत्थान की अवस्था :

इस अवस्था में दूसरी अवस्था से किए गए निवेश अर्थात आधारभूत संरचना में पूंजी निवेश का स्पष्ट लाभ दिखाई देता है। इस समय राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ ही राजनीतिक संस्थाएं भी उत्पादन वृद्धि को प्रोत्साहित करती हैं। इसमें सामान्यतः प्रत्येक क्षेत्र में विकास होने लगता है। फलस्वरुप कुल उत्पादन एवं प्रति व्यक्ति उत्पादन दोनों में वृद्धि होने लगती है। इस परिवर्तन के फलस्वरुप सामाजिक एवं राजनीतिक संरचना में भी तीव्र परिवर्तन होने लगते हैं। सीमित संरचना के विभिन्न क्षेत्रों जैसे – टेक्सटाइल, रेलवे या डेयरी उत्पादों में तीव्र वृद्धि के कारण देश लगभग औद्योगिक क्रांति की अवस्था से गुजरने लगता है। इस तरह इस अवस्था में आर्थिक विकास की अनुकूल दशाएं पाई जाती हैं, जिससे सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी तीव्र होती है और समाज परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है।

(4) आर्थिक व्यस्कता की अवस्था :

यह अवस्था विकसित समाज की अवस्था है इसमें विभिन्न प्रकार के उद्योगों में आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग होने लगता है। फलस्वरुप नये उद्योगों की स्थापना के साथ ही तीसरे चरण में स्थापित उद्योगों में तीव्र गति होती है। इस अवस्था में विकास की प्रक्रिया सभी आर्थिक क्रियाकलापों में तीव्र होती है। फलस्वरुप प्रति व्यक्ति आय और राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। इस समय सभी औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन प्रारंभ हो जाता है। इसी अवस्था में देश के बाहर भी पूंजी निवेश प्रारंभ हो जाता है तथा राष्ट्रीय आय का 10 से 20% भाग राष्ट्रीय उत्पादन में निवेश होने लगता है।

(5) अधिकाधिक उपभोग की अवस्था :

इस अवस्था में अर्थव्यवस्था बड़े और आधारभूत उद्योगों की जगह उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन की ओर अग्रसर हो जाती है। कुछ तकनीकी स्तर एवं भौतिकवादी दृष्टिकोण के कारण विलासिता और फैशन की वस्तुओं का उत्पादन और उपभोग के स्तर में तीव्रता आती है। सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक कल्याण, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा पर भी विशेष बल दिया जाता है। सामाजिक जीवन व्यवस्था में आर्थिक समस्या की जगह नैतिक दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। USA वर्तमान में इसी अवस्था में है।
इस तरह रोस्टोव ने 5 अवस्थाओं में आर्थिक सामाजिक विकास की प्रक्रिया को बताया है और स्पष्ट किया कि विश्व के किसी भी देश को इन 5 चरणों में से किसी एक अवस्था में रखा जा सकता है। जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका उपनिवेशवाद के समय प्रथम चरण में, 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में द्वितीय चरण में, 19वीं सदी के मध्य में तीसरे चरण में, 20वीं सदी के प्रारंभ में चौथे चरण में और वर्तमान में 5वें चरण में है।

मूल्यांकन एवं प्रसंगिकता :

वृद्धि अवस्था मॉडल को आर्थिक विकास का आशावादी मॉडल माना जाता है क्योंकि यह मॉडल प्रथम चरण के देशों को विकास के लिए प्रेरित करता है ताकि पश्चिमी यूरोपीय देशों एवं आंग्ल अमेरिकी देशों के विकास की प्रक्रिया को समझकर उसी अनुरूप विकास कर सकें। चूंकि विकसित देश भी आर्थिक विकास के विभिन्न चरणों से गुजर चुके हैं और वर्तमान में 5वी अवस्था में है।
स्पष्ट है कि विश्व का कोई विकसित एवं विकासशील देश अवस्था मॉडल में अपनी स्थिति का निर्धारण पर आर्थिक विकास के अगले चरण में प्रवेश कर सकते हैं। इसके लिए विभिन्न आर्थिक, सामाजिक नीतियों का निर्धारण किया जा सकता है। इस तरह यह मॉडल कम विकसित एवं अविकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों के नेतृत्व को अपने देश का विकास करने के लिए प्रेरित करता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय आय का राष्ट्रीय विकास के लिए घरेलू निवेश पर बल दिया गया तो वर्तमान परिपेक्ष्य में वैसे विकासशील देश जहां संसाधन की प्रचुरता होते हुए भी विकास की प्रक्रिया धीमी है। वहां घरेलू पूंजी निवेश के साथ ही राष्ट्रहित में विदेशी पूंजी निवेश को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह स्थिति भारत, चीन, ब्राजील, अर्जेंटीना, दक्षिण कोरिया दक्षिण पूर्वी एशिया एवं अधिकतर अफ्रीकी देशों के लिए आर्थिक विकास की दृष्टि से आवश्यक है। यहां इस प्रकार की प्रक्रियाएं अपनाई जा रही है।
       
 इस तरह इस मॉडल को एक आशावादी मॉडल कहा जा सकता है। इस मॉडल में आर्थिक विकास के लिए दो बातों को आधार बनाया गया है।
    1. जापान यदि पश्चिमी विकसित देशों, आंग्ल अमेरिकी देशों का अनुसरण कर आर्थिक दृष्टि से तीव्र विकास कर सकता है तो अन्य देशों में आर्थिक विकास भी तीव्र हो सकता है।
    2. रोस्टोव के अनुसार, बहुत से अविकसित एवं विकासशील देशों में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है, जिसका उपयोग कर अर्थव्यवस्था के तीसरे चरण से चौथे चरण में प्रवेश किया जा सकता है। यह मध्यपूर्व के देशों ने पेट्रोलियम का उपयोग कर तीव्र विकास किया है।
स्पष्टत: यह मॉडल आर्थिक विकास के प्रेरक मॉडल के रूप में उपयोगी है और यह आशा की जा रही थी कि विकासशील देश जल्दी ही विकसित देशों की श्रेणी में आ जाएंगे। लेकिन 1980 के दशक में यह भ्रम साबित हुआ। क्योंकि अविकसित देश विकास के चरम स्थिति से अत्यंत पिछड़े हैं। साथ ही विकासशील देशों में भी आर्थिक विकास की प्रक्रिया सभी क्षेत्र में तीव्र नहीं हो पाई है और कई आर्थिक और सामाजिक समस्याएं बनी हुई है।
 
इस तरह यह मॉडल तत्कालिक प्रभाव से अल्प विकसित और विकासशील देशों के लिए पूर्णत: प्रभावी साबित नहीं हो पाया। लेकिन इसका कारण मॉडल की कमियां नहीं है, बल्कि विकासशील देशों के सामने कुछ परंपरागत और कई नवीन समस्याओं का उत्पन्न होना है जिसका संबंध तेजी से बदलती हुई वैश्विक अर्थव्यवस्था से है।
 
अल्पविकसित और विकासशील देशों के सामने दो मूलभूत समस्याएं है।
  1. संसाधनों का असमान वितरण
  2. बाजार की मंदी
  3. वैश्विक मूल्य वृद्धि
  4. जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए अधिकतर पूंजी की खपत
  5. विश्व ऊर्जा संकट की स्थिति
  6. वैश्विक राजनीति
सभी अल्पविकसित और विकासशील देशों में संसाधनों का वितरण एक समान नहीं है और बड़े स्तर पर विषमता पाई जाती है। कई देश कच्चे माल की दृष्टि से संपन्न है जबकि कई देश अत्यंत पिछड़े हुई अवस्था में है। जैसे मध्यपूर्व के देशों में पेट्रोलियम खनिज संसाधन की उपलब्धता ही वहां के आर्थिक विकास का आधार बनी है। अतः बाजार में मंदी की समस्या भी अल्पविकसित एवं विकासशील देशों के मार्ग में महत्वपूर्ण बाधा है, क्योंकि कई उत्पादन का बाजार विश्व बाजार पहले की तुलना में संकुचित हो गया है। विकसित देशों में लगभग स्थिर जनसंख्या और सिमटता हुआ बाजार अल्प विकसित और विकासशील देशों के लिए घरेलू बाजार ही उपलब्ध कराता है, जिसकी क्रय क्षमता कम है।
नई वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों में विकासशील एवं अल्प विकासशील बाजार पर विकसित देश भी निर्भर हो रहे हैं। इस कारण इन देशों का अपने ही घरेलू बाजार में विकसित देशों के उत्पादों से ही प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। विकसित देशों की उन्नत तकनीक के कारण गुणवत्ता और कीमत दोनों ही दृष्टि से घरेलू उत्पादों को पिछड़ना पड़ रहा है। इस कारण अल्प विकसित और विकासशील देशों के सामने एक नई समस्या उत्पन्न हो गई है। 
स्पष्ट है रोस्टोव के मॉडल की उपयोगिता अल्प विकसित देशों के लिए पूर्णतः तभी हो सकती है। जब इन समस्याओं का भी समाधान किया जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि अल्प विकसित और विकासशील देश उन्नत तकनीकी स्तर को अपनाकर उत्पादों की गुणवत्ता में वृद्धि तथा उत्पादों की कीमत में कमी ला सकें। ऐसी स्थिति में वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रतिस्पर्धात्मक बाजार में अविकसित और विकासशील देशों की उपस्थिति बनी रहेगी और आर्थिक विकास की प्रक्रिया तीव्र हो सकेगी। दशा में इस मॉडल की प्रसंगिकता और उपयोगिता बनी रहेगी।
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