आर्थिक विकास एवं असमानता | विकासशील देशों के पिछड़ेपन के कारण

प्रादेशिक विकास में असंतुलन


प्रादेशिक विकास का तात्पर्य प्रदेश के संतुलित एवं समन्वित विकास से है, जहां प्रदेश के प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग निर्धारित हो सके। प्रदेश का विकास नियोजित एवं बाह्य पूंजी निवेश द्वारा भी किया जाता है। हालांकि वैसे प्रदेश जहां प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता होती है, और तकनीक का स्तर का है। वहां आर्थिक विकास की गति भी तीव्र होती है। इसी अनुरूप सामाजिक विकास भी तीव्र होता है, अर्थात प्रदेश का संतुलित एवं समन्वित विकास होना आसान होता है। ठीक इसके विपरीत जहां, प्राकृतिक संसाधनों का अभाव होता है, वहां विकास की गति अवरूद्ध रहती है। इस तरह आर्थिक विकास प्रदेश या देश के प्राकृतिक संसाधनों तथा संसाधनों के मानव द्वारा उपयोग की क्षमता पर निर्भर करता है। विश्व स्तर पर संसाधनों के वितरण में व्याप्त विषमता पाई जाती है, लेकिन साथ ही मानवीय संसाधन तथा मानवीय क्षमताओं में भी अंतर पाया जाता है। इस कारण आर्थिक विकास में विषमता पाई जाती है।

असमानता विकास का अंतर्निहित गुण है और यह एक भौगोलिक सत्य है कि आर्थिक विकास और असमानता साथ-साथ चलते हैं, लेकिन विकास प्रक्रिया को नियोजित करके इस असमानता को कम किया जा सकता है। असमानता एवं विभिन्नता को प्रायः समानार्थी मान लिया जाता है। जबकि दोनों के मूल अर्थों में अंतर है। विभिन्नता (Diversity) मौलिक रूप से प्राकृतिक तत्वों के असमान वितरण को कहा जाता है। यही परिकल्पना हैटनर ने अपने क्षेत्रीय विभिन्नता (Areal Differentiation) के रूप में की है अर्थात यह भौगोलिक तथ्य है कि प्राकृतिक पर्यावरण के विभिन्न तत्वों तथा संसाधनों का धरातल पर प्रत्येक इकाई स्तर पर विभिन्नता पायी जाती है।

इसके विपरीत असमानता (Disparity) मानवीय तथ्यों में असमान वितरण को कहते हैं, अर्थात मानवीय तथ्य मानव द्वारा अपनी क्षमता का प्रयोग करके प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके निर्मित किए गए हैं, इसलिए असमानता को मानवकृत माना जाना चाहिए। असमानता में मानवीय संस्थागत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी तत्व सम्मिलित है। इसलिए माना जा सकता है कि आर्थिक विकास में असमानता का कारण प्राकृतिक संसाधन का असमान वितरण नहीं है। बल्कि विभिन्न मानवीय कारक विकास प्रक्रिया को निर्दिष्ट करके असमानता उत्पन्न करते हैं।

उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि बिना प्राकृतिक संसाधनों के भी प्रादेशिक विकास संभव है। बहुत सी परिस्थितियों में यह संभव है, विशेष रूप से यह विकास के आयात पर निर्भर करता है। यह सत्य है कि जिन प्रदेशों में प्राकृतिक संसाधन अनुकूल स्थिति में है, वहां प्रादेशिक विकास की गति तीव्र होती है। इसके विपरीत संसाधन विहीन प्रदेशों में मानवीय कारकों के निवेश से विकास प्रक्रिया प्रारंभ होती है। लेकिन संसाधन संपन्न क्षेत्र की तुलना में इसमें समय अधिक लगता है। प्राकृतिक संसाधन संपन्न क्षेत्र में यदि मानवीय कारकों का प्रारंभ में निवेश नहीं होता है तो विकास संभव ही नहीं है। इस तरह असमानता वास्तव में प्राकृतिक और मानवीय कारकों के अंतर्क्रियात्मक संबंधों के परिणामस्वरुप उत्पन्न होती है। भौगोलिक रूप में यह माना जा सकता है कि प्राकृतिक संसाधन असमानता का एक आधार उत्पन्न करते हैं।

वैसे विभिन्न प्रदेशों में औद्योगिक या किसी विशेष आर्थिक क्षेत्र में अंतर पाया जाना सामान्य हैं, लेकिन यह विषमता नहीं कही जाएगी। जैसे यदि औद्योगिक विकास में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में विभिन्नता मिलती है तो यह औद्योगिक विकास में विविधता मानी जाएगी। जबकि प्रादेशिक विकास में असमानता, प्रदेश विशेष के संदर्भ में प्राकृतिक संसाधनों का उचित दोहन करके विकास प्रक्रिया को प्रारंभ न करने की असफलता है। यह असफलता विभिन्न मानवीय कारकों या श्रम, तकनीक, पूंजी, प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र आदि कारकों के असमान प्रयोग से उत्पन्न होती है। यह सत्य है कि ये सभी मानवीय तथ्य सर्वत्र समान रूप से प्रयुक्त नहीं होते हैं। इनके प्रयोग में संसाधनों की गुणवत्ता ही नहीं बल्कि विकास के प्रति दृष्टिकोण, विकासकर्ता, स्थानीय मानवीय और सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां उत्तरदाई रहती हैं। इसलिए असमानता का तात्पर्य विभिन्न इकाईयों में पाई जाने वाली विकास स्तरों की विभिन्नता से है।

भूगोल में असमानता का अध्ययन ई. एल. उल्मान, जे जी विलियम्स, डीएस स्मिथ आदि ने विस्तृत रूप से किया है। उल्मान की यह संकल्पना है कि आर्थिक विकास प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न क्षेत्रों में जल्दी घटित होता है, यदि वहां समान रूप से मानवीय कारकों को निर्देशित किया जाए। इसके विपरीत उसी समय उसी प्रकार के मानवीय तथ्यों का निवेश संसाधन विहीन क्षेत्रों में किया जाए तो वहां विकास प्रक्रिया पहले की अपेक्षा देरी से प्रारंभ होगी।

इसलिए दोनों क्षेत्रों के संदर्भ में मानवीय और प्राकृतिक संसाधनों के अंतरक्रिया से ही विभिन्न विकास स्तर घठित होकर असमानता उत्पन्न करेंगे। इस प्रकार किसी क्षेत्र विशेष के संदर्भ में असमानता का आकलन उस क्षेत्र के संपूर्ण विकास स्तर के औसत के संदर्भ में किया जा सकता है। एन. शाह ने भारत के विकास में असमानता ज्ञात करने के लिए देश के औसत से जनपद का विचलन निकाला है। ग्रेट ब्रिटेन की साक्षरता के संदर्भ में चार्ल्टन ने राष्ट्रीय औसत से विचलन ज्ञात कर असमानता को ज्ञात किया है। इसके अलावा अपने राष्ट्रीय औसत से अधिक दूरी के रूप में असमानता ज्ञात की है।      

उल्मान के अनुसार, विकास में असमानता की व्याख्या दो संकल्पनाओं के माध्यम से की जा सकती है। प्राकृतिक संसाधनों की क्षेत्रीय विभिनता और उसी के अनुसार मानवीय कारकों में विभिन्नता भूगोलवेत्ताओं को असमानता की व्याख्या करने में सहायता पहुंचा सकते हैं। प्रादेशिक विषमता का मापन करने तथा निर्धारण के लिए विकास के संकेतकों का चयन करना आवश्यक होता है। भूगोलवेत्ताओं ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकास प्रतिरूप का निर्धारण संकेतको के माध्यम से करना प्रारंभ किया। नार्टन गिन्सबर्ग की पुस्तक Essays on Geography and Economic Development में सर्वप्रथम संकेतको के प्रयोग द्वारा विकास प्रतिरूप का निर्धारण किया गया था। उसके बाद कई भूगोलवेत्ता जैसे हार्टशान, उल्मान व हेन्स ने प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कई विकास संकेतको का प्रयोग किया। भारत के संदर्भ में सर्वप्रथम अशोक मिश्रा ने भारत के विकास स्तर प्रतिरूप का आकलन करने के लिए संकेतको का प्रयोग किया था।

विकास प्रतिरूप को निर्धारित करने के लिए कई प्रकार के संकेतक का चयन किया जा सकता है। इन संकेतकों को दो वर्गों में रखा जा सकता है।

(1) सामान्य संकेतक :

नगरीकरण, प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति बचत, कार्यकारी जनसंख्या आदि आर्थिक सामाजिक विकास की स्थिति को बताते हैं।

(2) खण्डीय संकेतक : 

इसके अंतर्गत आर्थिक विकास को कई खंडों में विभाजित करके विभिन्न खंडों के लिए अलग-अलग संकेतक बनाते हैं। जैसे कृषि विकास के संकेतक, औद्योगिक विकास के संकेतक, सेवा क्षेत्र के संकेतक आदि।

विश्व बैंक ने विश्व के विभिन्न देशों को तीन अर्थव्यवस्था में बांटा है। जिसका आधार प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद है। 

  1.  न्यून आय वाली अर्थव्यवस्था
  2.  मध्य आया वाली अर्थव्यवस्था
  3.  उच्च आय वाली अर्थव्यवस्था

विश्व बैंक ने विश्व की गरीबी रेखा एवं पिछड़ेपन के मूल्यांकन के लिए कई चरणों का प्रयोग किया है। जो आर्थिक-सामाजिक सूचक हैं।

विकासशील देशों या पिछड़े प्रदेशों के आर्थिक पिछड़ेपन के कारण : निम्नलिखित है।

  1.  वातावरणीय/पर्यावरणीय/भौगोलिक कारण बाढ़, सूखा, मानसूनी जलवायु की विपरीत परिस्थिति।
  2.  उपनिवेशवाद का प्रभाव
  3.  तीव्र जनसंख्या वृद्धि दर
  4.  सामाजिक सांस्कृतिक पिछड़ापन
  5.  राजनीतिक स्थिति एवं राजनीतिक प्रतिबद्धता की कम
  6.  आंतरिक बचत का अभाव
  7.  अंतरराष्ट्रीय राजनीति
  8.  प्रतिभा पलायन (Brain Drain)

विकास के सुझाव :

  1.  पूंजी का निर्माण
  2.  नवीन तकनीक का प्रयोग
  3.  कुशल श्रमिक
  4.  कुशल प्रबंधन
  5.  राजनीति प्रशासनिक प्रतिबद्धता एवं जन जागरूकता
  6.  वैश्विक परिप्रेक्ष्य में नवीन प्रगतिशील औद्योगिक नीतियां
  7.  अंतरराष्ट्रीय सहयोग के प्रयास
  8.  विकासशील देशों का आपस में आर्थिक गुटों की स्थापना एवं मुख्यतः व्यापार को प्रोत्साहन
  9.  विश्व की प्रतियोगिता में शामिल होना
  10.  उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों का निर्माण
  11.  अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं शांति के प्रयास
  12.  राजनीति के संदर्भ में विकासशील देशों की एकजुटता
  13.  प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रयोग

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