भाषा किसी भी संस्कृति के निर्धारण का प्रमुख आधार होता है। इसी कारण सांस्कृतिक प्रदेशों के निर्धारण में भाषा को प्रमुख कारक माना गया है। भाषा समाज के संपर्क एवं संप्रेषण का मुख्य आधार होता है और वह समान भाषा समूह के लोगों में भावनात्मक लगाव होने के कारण एक साथ अविकसित होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसी कारण विभिन्न भाषाई प्रदेशों का विकास हो जाता है।
भारत में ऐतिहासिक युगो से ही विभिन्न रूपों में क्षेत्रीय एवं स्थानीय भाषाएं विकसित होती रही और यही कारण है कि भाषाई विविधता व्यापक स्तर पर पाई जाती है। सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के साथ ही ऐतिहासिक युगों में किसी भाषा का विराम प्रारंभ हुआ और इसी क्रम में विभिन्न भौगोलिक एवं सामाजिक विविधता वाले क्षेत्रों में क्षेत्रीय संपर्क भाषाएं विकसित हुई। दक्षिण भारतीय भाषाएं इसी प्रक्रिया का परिणाम थी। इसके अतिरिक्त समय-समय पर विभिन्न भाषाई लोगों के भारत में प्रवेश करते रहने से अन्य भाषाएं भी बाहर से लाई गई। जिससे भारत में भाषाई विविधता व्यापक रूप में पाई जाती है।
1991 की जनगणना के अनुसार, यहां 844 भाषाएं एवं बोलियां बोली जाती है, जो भाषाई विविधता को बताता है। लेकिन 14 भाषाएं 97 प्रतिशत जनसंख्या द्वारा बोली जाती है। संविधान में 22 भाषाओं को अधिसूचित किया गया है, जो व्यापक क्षेत्रों में बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली जाती है। इस तरह भाषाई विविधता के तत्व वर्तमान में भी मौजूद है, लेकिन विभिन्न कालों में संपर्क भाषा के विकास के कारण भाषाई एकता के तत्व भी मौजूद रहे हैं। जैसे प्राचीन काल में संस्कृत, मध्यकाल में फारसी, ब्रिटिश काल में अंग्रेजी, वर्तमान काल में हिंदी एवं इंग्लिश संपर्क भाषा के रूप में बनी रही। इस तरह विविधता के बावजूद एकता के तत्व भी विद्यमान रहे हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि भाषा एक विशेष संस्कृति एवं विशिष्ट प्रदेश को निर्धारित करती है।
इसी कारण स्वतंत्रता के बाद राज्य पुनर्गठन के आधार के रूप में भाषा को महत्व देते हुए 14 प्रमुख भाषा के आधार पर 14 भाषाई राज्यों का निर्माण किया गया, जो प्रशासनिक एवं भौगोलिक दृष्टिकोण से भी राज्यों के निर्माण के लिए अनुकूल था। वर्तमान में भी विभिन्न भाषाओं के आधार पर राज्यों की मांग, भाषाई विविधता और भाषा आधारित प्रदेशों के महत्व का प्रतीक है।
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