क्या आप जानते है कि आने वाली पीढ़ी को हरित क्रांति के बारें में पता होगा?

हरित क्रांति एक प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत पारंपरिक कृषि विधियों का प्रतिस्थापन नवीन वैज्ञानिक तकनीक के द्वारा इस प्रकार करना है, जिससे कृषि में उत्पादन, उत्पादकता एवं गुणवत्ता में पर्याप्त वृद्धि हो सके। भारत में हरित क्रांति की शुरुआत 1966 से मानी जाती है। हालांकि, कृषि क्षेत्र में नवीन विधियों का प्रयोग 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों से ही होने लगा था। इसी कारण 1960 के दशक को हरित क्रांति का दशक कहा जाता है। आधुनिक कृषि तकनीक के उपयोग से देश के कृषि विकास में तीव्र मात्रात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि हुई है, जिसे हरित क्रांति की संज्ञा दी गई।

कृषि क्षेत्र में नवीन विधियों का प्रयोग सर्वप्रथम 1961 में गहन कृषि जिला कार्यक्रम के अंतर्गत प्रारंभ हुआ, यह कार्यक्रम 7 जिलों में चलाया गया था, जिसकी सफलता के बाद 1965 में गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम को 114 जिलों में चलाया गया। 1965 में ही मेक्सिको के नॉर्मन बोरलॉग ने गेहूं के संकर बीज को विकसित किया। इन्हें हरित क्रांति का जनक कहा जाता है। भारत में भी मक्का, ज्वार, बाजरा के संकर बीज विकसित किए गए।

पुनः भारत सरकार ने कृषि विकास की नवीन संभावनाओं के लिए 1966 में ‘एकमुश्त योजना (Lump sum scheme)’ की शुरुआत की है। इसके अंतर्गत उर्वरक, संकर बीज, कीटनाशक, आधुनिक कृषि मशीन इत्यादि संरचनात्मक सुविधाओं को कृषको तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया। इस कार्यक्रम को ‘उच्च उत्पादकता वाले बीजों का कार्यक्रम’ कहां गया। देश के जिन क्षेत्रों में इन सुविधाओं का उपयोग हुआ, वहां कृषि विकास की गति अत्यंत तीव्र हो गई, जिसे हरित क्रांति कहा गया। भारत में हरित क्रांति के जनक स्वर्गीय श्री एम.एस. स्वामीनाथन थे।

हरित क्रांति के प्रमुख उद्देश्य निम्न है।

  1. कृषि उत्पादन और उत्पादकता एवं गुणवत्ता में वृद्धि
  2. कृषि की अनिश्चितता को समाप्त करना
  3. ग्रामीण विकास की प्रक्रिया को तीव्र करना

इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न कार्यक्रम अपनाए गए।

  1. भूमि सुधार कार्यक्रम
  2. संरचनात्मक सुविधाओं का विकास
  3. वैज्ञानिक कृषि का उपयोग
  4. पैकेज प्रोग्राम को कृषकों तक पहुंचाना

इन कार्यक्रमों को उत्तर-पश्चिमी भारत में पर्याप्त सफलता मिली। फलस्वरुप, इन क्षेत्रों में कृषि विकास की प्रक्रिया तीव्र हुई अर्थात हरित क्रांति सफल रही। इन क्षेत्रों में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के गंगानगर जैसे क्षेत्र थे, जबकि देश के अन्य भागों में हरित क्रांति को पर्याप्त सफलता नहीं मिली, जिसका कारण इन कार्यक्रमों को सफलता नहीं मिलना था। 

उत्तरी पश्चिमी भारत में हरित क्रांति के सफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रतिबद्धता के कारण राज्य सरकार ने अनुकूल कृषि नीति अपनाई।
  2. जिन फसलों के संकर बीज उपलब्ध थे उनके लिए उत्तर पश्चिम भारत की जलवायु अनुकूल थी।
  3. शुष्क क्षेत्र होने के कारण नहर सिंचाई एवं अन्य संरचनात्मक सुविधाओं के पर्याप्त विकास पर बल दिया गया।
  4. यहां किसी क्षेत्र में संस्थागत समस्याएं नहीं थी।

उपरोक्त कारणों से उत्तर पश्चिमी भारत में हरित क्रांति को पर्याप्त सफलता मिली और वर्तमान में भी यह क्षेत्र भारत में हरित क्रांति का सर्वप्रमुख क्षेत्र है।

उत्तर पश्चिम भारत के बाद हरित क्रांति को प्रायद्वीपीय पठार के नदी कमांड क्षेत्रों में सफलता मिली, जब 1974-75 में कमान क्षेत्र विकास की नीति के अंतर्गत कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम अपनाया गया। इसके फलस्वरूप महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी कमांड क्षेत्रों में हरित क्रांति को सफलता मिली। इस तरह हरित क्रांति के चरों में विस्तार हुआ, लेकिन हरित क्रांति केवल सीमित क्षेत्र में ही सफल रही एवं अन्य क्षेत्रों में विशेषकर पूर्वी भारत में हरित क्रांति को पर्याप्त सफलता नहीं मिली।

पूर्वी भारत में हरित क्रांति की असफलता के निम्न कारण थे।

  1. राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रतिबद्धता की कमी और उचित कृषि नीति का अभाव।
  2. भूमि सुधार कार्यक्रमों की असफलता तथा संस्थागत समस्याओं का पाया जाना, विशेषकर चकबंदी और हथबंदी कार्यक्रम की असफलता।
  3. छोटे निर्धन एवं भूमिहीन कृषकों की संख्या की अधिकता।
  4. सामाजिक पारंपरिक मान्यताएं, भूमि से सामाजिक लगाओ तथा हरित क्रांति के चरों के उपयोग के महत्व की जानकारी नहीं होना।
  5. अधिक वर्षा का क्षेत्र एवं बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र होने के कारण सिंचाई सुविधाओं के विकास पर पर्याप्त बल नहीं दिया जाना।
  6. इन क्षेत्रों के अनुकूल संकर बीजों का विकास नहीं होना। जैसे- चावल का संकर बीज 1983 में आया।
  7. इस क्षेत्र की परिस्थितियों का उर्वरकों के उपयोग के अनुकूल होना, क्योंकि यह बाढ़ के साथ सूखे के प्रभाव का भी क्षेत्र है।

उपरोक्त कारणों के साथ ही जनजातीय क्षेत्रों में हरित क्रांति के चरों के प्रति उदासीनता की भावना एवं संरचनात्मक निवेश का कार्य खनन उद्योग में किया जाना भी महत्वपूर्ण कारण है।

  • स्पष्टत: हरित क्रांति को सफलता देश के सीमांत क्षेत्रों में ही मिली, लेकिन इसके बावजूद देश के खाद्यान्न उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई। यह वृद्धि 1966 से 1976 के दशक में सर्वाधिक हुई। इसे निम्न तालिका से समझा जा सकता है –
    (वर्ष)            (उत्पादन में वृद्धि)      (वार्षिक वृद्धि)
    1951-66        17 मिलीयन टन      1.6 मिलीयन टन
    1966-76        49 मिलीयन टन      4.3 मिलीयन टन
    1976-1990     60 मिलीयन टन     4.0 मिलीयन टन
    1990-2000     43 मिलीयन टन     4.3 मिलीयन टन

हरित क्रांति को सफलता प्रथम चरण में मिली, लेकिन सभी क्षेत्रों में हरित क्रांति का विसरण सामान्य रूप से नहीं हो पाया। पुनः उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होने के बावजूद खाद्यान्न समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो पाया। 1987 में सूखे के कारण देश में खाद्य समस्या उत्पन्न हुई और 10 मिलियन टन खाद्यान्न आयात करना पड़ा। इस तरह हरित क्रांति खाद्य समस्या के समाधान में असफल रही, साथ ही कई अन्य समस्याएं भी उत्पन्न हुई।

हरित क्रांति के प्रथम चरण में उत्पन्न समस्याएं (सामाजिक आर्थिक समस्याएं)

  1. प्रथम चरण खाद्यान्न समस्या का समाधान करने में समर्थ नहीं हुआ अर्थात कृषि में अनिश्चिताएं बनी रहीं।
  2. प्रादेशिक विषमता में वृद्धि हुई। प्रथम चरण में हरित क्रांति को कुछ राज्यों में ही सफलता मिली। पुनः विभिन्न राज्यों में भी विभिन्न क्षेत्रों में कृषि विकास में विभिन्नताएं उत्पन्न हुई। हरित क्रांति को सफलता पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान के गंगानगर क्षेत्र, दक्षिण भारत का कमांड क्षेत्र में ही मिली, जबकि अन्य क्षेत्रों में हरित क्रांति असफल रही। राज्यों के अंतर्गत भी अंतः प्रादेशिक विषमता उत्पन्न हुई, जैसे – उत्तर प्रदेश में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान में गंगानगर क्षेत्र, बिहार में सोन, गंडक, कोसी कमान क्षेत्र, पश्चिम बंगाल में मयूराक्षी, दामोदर घाटी क्षेत्र, उड़ीसा में महानदी क्षेत्र, दक्षिण भारत में कमांड क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में हरित क्रांति को सफलता नहीं मिली।
  3. हरित क्रांति का एक प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण विकास की प्रक्रिया को तीव्र करना था, जिसमें यह असफल रहा। पुनः प्रादेशिक विषमता के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में ग्रामीण विकास में वृद्धि हुई। हरित क्रांति में पिछड़े राज्य में प्रति व्यक्ति आय तुलनात्मक रूप से अत्यंत कम थी, प्रति व्यक्ति आय में यह विषमता कृषि प्रधान राज्यों में स्पष्ट रूप से पाई जाती है। पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में ग्रामीण आधारभूत संरचना का तीव्र विकास हुआ, विशेषकर सड़क, विद्युत, संचार जैसे आधारभूत क्षेत्र में तीव्र विकास हुआ है। यहां कृषि का स्वरूप औद्योगिक हो चुका है।
  4. हरित क्रांति ने पूंजीवादी कृषि अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया। चूंकि हरित क्रांति के विभिन्न चरों अर्थात संरचनात्मक कारकों का उपयोग पूंजी आधारित है। इसी कारण धनी और बड़े कृषक द्वारा कृषि में पूंजी निवेश किया जा सका, लेकिन छोटे, सीमांत एवं गरीब कृषक पूंजी की कमी के कारण हरित क्रांति के चरों का उपयोग नहीं कर पाए। स्पष्ट है कि ग्रामीण आर्थिक संरचना में तीव्र परिवर्तन हुआ। इसका दुष्प्रभाव ग्रामीण क्षेत्र के परंपरागत सामाजिक संरचना पर भी पड़ा और पहले से विद्यमान आर्थिक विषमताएं और बढ़ गई। यह कहा जा सकता है कि गरीब कृषक और भी गरीब होते चले गए।
  5. हरित क्रांति के संरचनात्मक (Structural) कारकों के उपयोग के लिए छोटे और सीमांत कृषकों द्वारा साहूकारों से ऋण लेने की प्रवृत्ति बढ़ी और पुनः ग्रामीण जनसंख्या साहूकारों के ऊपर निर्भर होता चली गयी।
  6. भारत में कृषि का सामाजिक महत्व रहा है और प्रारंभ से ही ग्रामीण जीवन शैली का यह आधार रहा है। अतः नवीन आर्थिक परिस्थितियों ने सामाजिक संरचना को प्रदूषित कर दिया, जिससे सामाजिक तनाव उत्पन्न हुआ। अमीर और गरीब कृषकों के मध्य बढ़ती हुई आर्थिक विषमता का प्रभाव सामाजिक स्थिति पर भी पड़ा और इसने ग्रामीण सामाजिक सहिष्णुता को प्रभावित किया। विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक तनाव ने उग्रवाद का भी रूप ले लिया। इसका प्रमुख कारण कृषि विकास में विषमता, भूमि का असमान वितरण, भूमि सुधार कार्यक्रमों की असफलता, भूमिहीन कृषकों की अधिकता एवं हरित क्रांति का लाभ सभी को प्राप्त नहीं होना है। यह समस्या बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर तथा आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिण राज्यों में भी है।

उपरोक्त समस्याओं के अतिरिक्त पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हुई, जो निम्नलिखित हैं।

  1. नहर सिंचित क्षेत्रों में जल जमाव की समस्या एवं मिट्टी में लवणीयता की समस्या उत्पन्न हुई। विशेषकर पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिम उत्तर प्रदेश में रेह एवं कल्लर मिट्टी का विकास हुआ।
  2. रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता में कमी आई तथा ऊसर भूमि की समस्या उत्पन्न हुई।
  3. रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के प्रयोग से मृदा प्रदूषण के साथ ही भूमिगत जल एवं नदियों के जल प्रदूषित होते हैं।
  4. कुछ ही फसलों को प्राथमिकता देने के कारण पारंपरिक रूप से उगायी जाने वाले कई फसलों की कृषि नहीं की जाने लगी। इससे कई परंपरिक फसल नष्ट हो गई अर्थात जैवविविधता में ह्रास की समस्या भी उत्पन्न हुई। मृदा में स्थित सूक्ष्मजीवों के नष्ट होने की समस्या उत्पन्न हो रही है।

स्पष्टत: हरित क्रांति के प्रथम चरण में कई समस्याएं उत्पन्न हुई और कई दृष्टि से यह असफल साबित हुआ। इसी कारण 1987 के बाद कृषि नीति का पुनर्मूल्यांकन किया गया और हरित क्रांति के द्वितीय चरण की शुरुआत की गई। जो अधिक व्यावहारिक नीतियों पर आधारित थी और इसमें प्रथम चरण से उत्पन्न समस्याओं के समाधान का भी प्रयास किया गया।

हरित क्रांति का द्वितीय चरण

1987 के सूखे के बाद हरित क्रांति का पूर्नमूल्यांकन किया गया और हरित क्रांति के द्वितीय चरण की शुरुआत कृषि की आवश्यकताओं एवं समस्याओं के अनुरूप करने का प्रयास किया गया। इस चरण में हरित क्रांति के विस्तार के लिए 14 राज्यों के 169 जिलों को चुना गया था। यह वैसे जिले थे, जहां सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध थी, लेकिन नवीन कृषि तकनीक का उपयोग नहीं किया जा रहा था। इस चरण में कुछ नवीन प्रक्रियाओं को अपनाया गया, जो निम्नलिखित हैं।

  1. इस चरण में हरित क्रांति के चरों का राष्ट्रीयव्यापी विसरण पर सर्वाधिक बल दिया गया। विशेषकर पूर्वी भारत, तटवर्ती भारत एवं पठारी भारत में हरित क्रांति के विस्तार को प्राथमिकता दी गई।
  2. फसल विस्तार की भी नीति अपनाई गई। इसके लिए द्वितीय चरण में चावल, दलहन, तिलहन को प्राथमिकता दी गई, जबकि प्रथम चरण में गेहूं को प्राथमिक दी गई थी।
  3. इस चरण में चावल को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई। 169 चयनित जिलों में 109 जिलों को चावल के लिए चुना गया। इसके लिए पूर्वी भारत, तटवर्ती भारत के जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्रों को चावल के लिए चुना गया था तथा उन्हें प्राथमिकता दी गई।
  4. इस चरण में सिंचाई के वैकल्पिक साधनों अर्थात ट्यूबेल, डीजल पंपसेट सिंचाई को महत्व दिया गया। साथ ही ड्रिप सिंचाई स्प्रींकल सिंचाई को शुष्क अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में प्राथमिकता दी गई।

इस तरह द्वितीय चरण में हरित क्रांति का विस्तार उन क्षेत्रों में करने की नीति बनाई गई, जहां कृषि विकास की प्रक्रिया बाधित थी और हरित क्रांति को प्राथमिकता नहीं मिली थी। इसी अनुरूप ऐसी फसलों को प्राथमिकता दी गई, जो इन क्षेत्रों की जलवायु के अनुरूप थी जबकि चावल का संकर बीच 1983 में आ गया था। अधिक चावल प्रधान क्षेत्र में हरित क्रांति को प्राथमिकता दी गई। लेकिन ये सभी क्षेत्र मूलभूत समस्याओं से भी ग्रस्त थे, जो कृषि विकास में बाधक थे। कृषि विकास के सामने प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित थी।

  1. जोत या खेत के आकार का छोटा होना
  2. बटाईदारी व्यवस्था (Sharing arrangement)
  3. भूमिहीन कृषिको एवं निर्धन कृषकों की अधिकता
  4. बाढ़ और सूखे का सम्मिलित प्रभाव का पाया जाना
  5. सभी कृषि भूमि पर संरचनात्मक सुविधाओं को नहीं होना

इन समस्याओं के समाधान के लिए भी द्वितीय चरण में कुछ व्यावहारिक उपाय किए गए।

  1. नहर सिंचाई की जगह ट्यूबेल सिंचाई को प्राथमिकता दी गई, ताकि जल जमाव और मृदा में लवणीयता की समस्या के समाधान के साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में भूमिगत जल के उपयोग के द्वारा सिंचाई सुविधाओं को सुनिश्चित उपलब्ध हो सके।
  2. संरचनात्मक सुविधाओं के विकास के लिए लघु एवं छोटी-छोटी सिंचाई परियोजना प्रारंभ की गई। ड्रिप सिंचाई पद्धति, स्प्रिकल सिंचाई पद्धति को शुष्क क्षेत्रों में विकसित किया गया।
  3. रासायनिक उर्वरकों एवं बीजों के छोटे पैकेट बनाए गए, जिसका उपयोग छोटे किसानों को उर्वरक शुद्ध बीज उपलब्ध कराना और मिलावट से बचाना था।
  4. कीटनाशकों पर उत्पाद शुल्क को समाप्त कर दिया गया।

इस तरह कृषि में हरित क्रांति के दूसरे चरण में प्रादेशिक विषमता एवं अंतः प्रादेशिक विषमता को कम करने एवं पूरे देश में अनुकूल कृषि वातावरण बनाने की नीति अपनाई गई। पुनः पर्यावरण समस्याओं के समाधान की भी कोशिश की गई। छोटे और सीमांत किसानों को भी हरित क्रांति का लाभ प्राप्त हो सके, इसके लिए भी नीतियां बनाई गई। इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से सकारात्मक हुआ, जिससे प्रादेशिक विषमता में थोड़ी कमी आती, हालांकि अभी भी प्रादेशिक विषमता बनी हुई है, लेकिन हरित क्रांति के दोनों चरणों के सम्मिलित प्रभाव के फलस्वरुप कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हुई है।

द्वितीय हरित क्रांति के लिए प्राथमिकता और सुझाव

  1. कृषि की मूलभूत समस्याओं का समाधान, संस्थागत समस्याओं का समाधान तथा संस्थागत सुविधाओं की प्रक्रिया तीव्र करना
  2. संरचनात्मक सुविधाओं का विकास, कृषि क्षेत्र में आधारभूत संरचना का विकास, वैज्ञानिकीकारण आधुनिक तकनीक का उपयोग।
  3. कृषि में विविधीकरण, व्यवसायीकरण, आयुर्वेद, बायोडीजल, बागानी, नगदी फसलों पर विशेष बल ताकि कृषि लाभकारी हो सके।
  4. कृषि को पशु संवर्धन, मत्स्य, दुग्ध व्यवसाय एवं अन्य पशु उत्पादों से जोड़ना एवं कृषि आधारित उद्योग का विकास समन्वित रूप से करना अर्थात ‘समन्वित कृषि विकास प्रक्रिया, अपनाया जाना चाहिए। इंद्रधनुषी क्रांति को साकार करना आवश्यक है।
  5. कृषि शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम को ग्रामीण स्तर से लेकर उच्च अनुसंधान स्तर तक विस्तारित करना।
  6. कृषि सहकारिता का विकास एवं विपणन की पर्याप्त व्यवस्था।
  7. जनजातीय क्षेत्र, पहाड़ी क्षेत्र एवं हरित क्रांति में असफल क्षेत्रों में कृषि विकास को प्रोत्साहित करना।
  8. अधिक से अधिक कृषि भूमि को बहु-फसली बनाना।
  9. पर्यावरण अनुकूल कृषि एवं वैज्ञानिक कृषि को सभी क्षेत्रों में प्रोत्साहित करना।
    राष्ट्रीय कृषि नीति 2000 में कृषि विकास दर का लक्ष्य 4% रखा गया था। इसमें कृषि क्षेत्र में नई प्रौद्योगिकी का प्रयोग, ग्रामीण आधारभूत संरचना का विकास, रोजगार सृजन, राष्ट्रीय बीजग्रीड की स्थापना, मृदा की गुणवत्ता और उर्वरता को बढ़ाना एवं उदारीकरण से उत्पन्न समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना है। वर्तमान में राष्ट्रीय कृषक नीति 2007 घोषित की गई है। 17 अगस्त, 2007 को राष्ट्रीय कृषि विकास योजना प्रारंभ की गई। खाद्य सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय खाद सुरक्षा मिशन आरंभ किया गया है।
    वर्तमान में SEZ (Special Economic Zone)  की स्थापना के लिए भी राष्ट्रीय कृषि भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है। जिसका प्रतिरोध किसाऊ एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है। अतः आवश्यकता है कि कृषि भूमि का अधिगृहण न करके बंजर एवं कृषि के लिए प्रतिकूल खाली पड़ी भूमि का उपयोग विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए किया जाए, ताकि नवीन हरित क्रांति के सामने कृषि भूमि की कमी की समस्या उत्पन्न है।
    कोविड-19 महामारी के दौरान कृषि की विकास दर में 3.4 फीसदी की वृद्धि होने से जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 17.8 फीसदी से बढ़कर 19.9 प्रतिशत हो गई है। सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक 2019-20 में जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 17.8 प्रतिशत थी, जो 2020-21 में 19.9 प्रतिशत हो जाएगी। दिलचस्प बात यह है कि इससे पहले 2003-04 में कुल जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 20.77 प्रतिशत थी। इसके बाद लगातार कृषि की हिस्सेदारी कम हो रही है।
    आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि वैश्विक महामारी की वजह से दूसरे देशों की तरह भारत को संकट का सामना करना पड़ा। 2020-21 से पांच साल पहले तक भारत की औसत वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत थी। 2021-22 में वास्तविक जीडीपी में तेज रिकवरी होने की संभावना है। जो 10 से 12 फीसदी तक रह सकती है, इसके बाद 2022-23 में 6.5 प्रतिशत, 2023-24 में 7 फीसदी वृद्धि का अनुमान है।
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